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तमी॑ळत प्रथ॒मं य॑ज्ञ॒साधं॒ विश॒ आरी॒राहु॑तमृञ्जसा॒नम्। ऊ॒र्जः पु॒त्रं भ॑र॒तं सृ॒प्रदा॑नुं दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam īḻata prathamaṁ yajñasādhaṁ viśa ārīr āhutam ṛñjasānam | ūrjaḥ putram bharataṁ sṛpradānuṁ devā agniṁ dhārayan draviṇodām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। इ॒ळ॒त॒। प्र॒थ॒मम्। य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म्। विशः॑। आरीः॑। आऽहु॑तम्। ऋ॒ञ्ज॒सा॒नम्। ऊ॒र्जः। पु॒त्रम्। भ॒र॒तम्। सृ॒प्रऽदा॑नुम्। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥ १.९६.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:96» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (प्रथमम्) समस्त उत्पन्न जगत् के पहिले वर्त्तमान (यज्ञसाधम्) विज्ञान योगाभ्यासादि यज्ञों से जाना जाता (ऋञ्जसानम्) विवेक आदि साधनों से अच्छे प्रकार सिद्ध किया जाता (आहुतम्) विद्वानों से सत्कार को प्राप्त (आरीः) प्राप्त होने योग्य (विशः) प्रजाजनों और (भरतम्) धारणा वा पुष्टि करनेवाला (सृप्रदानुम्) जिससे कि ज्ञान देना बनता है उस (ऊर्जः) कारणरूप पवन से (पुत्रम्) प्रसिद्ध हुए प्राण को उत्पन्न करने और (द्रविणोदाम्) धन आदि पदार्थों के देनेवाले (अग्निम्) जगदीश्वर को (देवाः) विद्वान् जन (धारयन्) धारण करते वा कराते हैं (तम्) उस परमेश्वर की तुम नित्य (ईडत) स्तुति करो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - हे जिज्ञासु अर्थात् परमेश्वर का विज्ञान चाहनेवाले मनुष्यो ! तुम जिस ईश्वर ने सब जीवों के लिये सब सृष्टियों को उत्पन्न करके प्राप्त कराई हैं वा जिसने सृष्टि धारण करनेहारा पवन और सूर्य रचा है, उसको छोड़ के अन्य किसी की कभी ईश्वरभाव से उपासना मत करो ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

नवगुणयुक्त प्रभु का नवन [स्तवन]

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (विशः) = इस संसार में जीवन - यात्रा के लिए प्रवेश करनेवाली प्रजाओ ! (तम् आरीः) = उस प्रभु की ओर चलती हुई तुम (ईळत) = उस प्रभु का उपासन करो जो [क] (प्रथमम्) = सृष्टि से पहले ही हैं अथवा [प्रथ विस्तारे] अत्यन्त विस्तारवाले हैं , [ख] (यज्ञसाधम्) = हमारे सब यज्ञों को सिद्ध करनेवाले हैं , [ग] (आहुतम्) = जिनके दान [हु दाने] सब ओर उपलब्ध हैं , [घ] (ऋञ्जसानम्) = [ऋञ्ज to decorate] जो उपासकों के जीवन को अलंकृत करनेवाले हैं , [ङ] (ऊर्जः पुत्रम्) = शक्ति के पुतले हैं , शक्ति के पुञ्ज हैं - ‘सहसः सूनु’ हैं , [च] (भरतम्) = इस शक्ति के द्वारा सबका भरण करनेवाले हैं , [छ] (सृप्रदानुम्) = सर्पणशील दानवाले हैं , जिनका दान सदा चलता है - ऐसे प्रभु की हमें उपासना करनी चाहिए ।  २. (देवाः) = देववृत्ति के लोग तो उस (अग्निम्) = अग्रणी (द्रविणोदाम्) = सब द्रव्यों को देनेवाले प्रभु को (धारयन्) = धारण करते ही हैं । वस्तुतः प्रभु के धारण करने से ही वे देव बनते हैं । प्रभु - कृपा से ही ये यज्ञों को सिद्ध करनेवाले होते हैं , शक्ति के पुञ्ज बनते हैं तथा औरों का धारण करते हुए अपने जीवनों को सद्गुणों से अलंकृत करते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम उस प्रभु का उपासन करें जोकि - “प्रथम , यज्ञसाध , आहुत , ऋञ्जसान , ऊर्जः पुत्र , भरत , सृप्रदानु , अग्नि व द्रविणोदा” हैं ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यं प्रथमं यज्ञसाधमृञ्जसानं विद्वद्भिराहुतमारीर्विशो भरतं सृप्रदानुमूर्जः पुत्रं प्राणं च जनयन्तं द्रविणोदामग्निं देवा धारयन् धरन्ति धारयन्ति वा तं परमेश्वरं यूयं नित्यमीळत ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) परमात्मानम् (ईळत) स्तुत (प्रथमम्) सर्वस्य जगत आदिमं स्रष्टारम् (यज्ञसाधम्) यो यज्ञैर्विज्ञानादिभिर्ज्ञातुं शक्यस्तम् (विशः) प्रजाः (आरीः) आप्तुं योग्याः (आहुतम्) विद्वद्भिः सत्कृतम् (ऋञ्जसानम्) विवेकादिसाधनैः प्रसाध्यमानम् (ऊर्जः) वायुरूपात् कारणात् (पुत्रम्) प्रसिद्धं प्राणम् (भरतम्) धारकम् (सृप्रदानुम्) सृप्रं सर्पणं दानुर्दानं यस्मात्तम् (देवाः०) इत्यादि पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - हे जिज्ञासवो मनुष्या यूयं येनेश्वरेण सर्वेभ्यो जीवेभ्यः सर्वाः सृष्टीर्निष्पाद्य प्रापिता येन सृष्टिधारको वायुः सूर्यश्च निर्मितस्तं विहायाऽन्यस्य कदाचिदपीश्वरत्वेनोपासनं मा कुरुत ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O grateful and dynamic people, serve and worship Him, Agni, first and highest of existence, invoked and loved with homage through yajna, visualised and realised through vision and discrimination, manifested in energy and products of energy, sustainer of all and inspiring all with knowledge. Devas, divinities of nature and nobilities of humanity, hold on to Him and bear on the fire of yajna from generation to generation, universal giver as He is.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे जिज्ञासू जनांनो! अर्थात, परमेश्वराचे विज्ञान इच्छिणाऱ्या माणसांनो! ज्या ईश्वराने सर्व जीवांसाठी सर्व सृष्टी उत्पन्न करून प्राप्त करवून दिलेली आहे. ज्याने सृष्टी धारण करणारे वायू व सूर्य निर्माण केलेले आहेत त्याला सोडून इतर कोणाचीही ईश्वरभावाने उपासना करू नका. ॥ ३ ॥