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यस्मै॒ त्वमा॒यज॑से॒ स सा॑धत्यन॒र्वा क्षे॑ति॒ दध॑ते सु॒वीर्य॑म्। स तू॑ताव॒ नैन॑मश्नोत्यंह॒तिरग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasmai tvam āyajase sa sādhaty anarvā kṣeti dadhate suvīryam | sa tūtāva nainam aśnoty aṁhatir agne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मै॑। त्वम्। आ॒ऽयज॑से। सः। सा॒ध॒ति॒। अ॒न॒र्वा। क्षे॒ति॒। दध॑ते। सु॒ऽवीर्य॑म्। सः। तू॒ता॒व॒। न। ए॒न॒म्। अ॒श्नो॒ति॒। अं॒ह॒तिः। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:94» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:30» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सब विद्या के विशेष जनानेवाले विद्वान् ! (अनर्वा) विना घोड़ों के अग्न्यादिकों से चलाये हुए विमान आदि यान के समान (त्वम्) आप (यस्मै) जिस (आयजसे) सर्वथा सुख को देनेहारे जीव के लिये रक्षा को (साधति) सिद्ध करते हो (सः) वह (सुवीर्य्यम्) जिन मित्रों के काम में अच्छे-अच्छे पराक्रम हैं, उनको (दधते) धारण करता और वह (तूताव) उस को बढ़ाता भी है, (एनम्) इस उत्तम गुणयुक्त पुरुष को (अंहतिः) दरिद्रता (न, अश्नोति) नहीं प्राप्त होती, (सः) वह (क्षेति) सुख में रहता है, ऐसे (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी न हों ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वानों की सभा वा अग्निविद्या में मित्रपन प्रसिद्ध करते हैं, वे पूरे शरीर तथा आत्मा के बल को पाकर सुखयुक्त रहते हैं, अन्य नहीं ॥ २ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दारिद्र्य - कष्ट - निरसन

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यस्मै) = जिस भी व्यक्ति के लिए (त्वम्) = आप (आयजसे) = सब उत्तम साधन प्रदान कराते हो, गतमन्त्र के अनुसार जिसके लिए आप कल्याणी मति प्राप्त कराते हो (सः) = वह (साधति) = सब पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला होता है । (अनर्वा) = वह काम - क्रोधादि से हिंसित नहीं होता । कामादि से हिंसित न होने के कारण (क्षेति) = [क्षि निवासगत्योः] उत्तम निवास व गतिवाला होता है । उत्तम गति व आचरण के कारण (सुवीर्य दधते) = उत्तम शक्ति को धारण करता है । २. उत्तम शक्ति के धारण से (सः) = वह (तूताव) = वृद्धि प्राप्त करता है । एवं, (एनम्) = इसको (अंहतिः) = दारिद्र्य की पीड़ा (न अश्नोति) = प्राप्त नहीं होती । ३. हे परमात्मन् ! (वयम्) = हम (तब सख्ये) = आपकी मित्रता में (मा रिषाम) = हिंसित न हों । प्रभु की मित्रता में न आधियाँ हैं, न व्याधियाँ । इस मित्रता में अलक्ष्मी का स्थान नहीं है । इस प्रकार इस मित्रता में जीव आगे - ही - आगे बढ़ता है । यहाँ उन्नत है, अवनति नहीं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ = प्रभु से कल्याणी मति को प्राप्त करके हम भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टिकोण से आगे - ही - आगे बढ़ते हैं ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अग्नेऽनर्वेव त्वं यस्मा आयजसे भवान् जीवाय रक्षणं साधति स सुवीर्यं दधते स तूताव चैनमंहतिर्नाश्नोति स सुखे क्षेति। ईदृशस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मै) जीवाय (त्वम्) (आयजसे) समन्तात् सुखं ददते (सः) (साधति) साध्नोति। विकरणव्यत्ययेनात्र श्नोः स्थाने शप्। (अनर्वा) अविद्यमानाश्वो रथ इव (क्षेति) क्षयति निवसति। अत्र बहुलं छन्दसीति विकरणस्य लुक् (दधते) (सुवीर्यम्) शोभनानि वीर्याणि यस्मिन् सखीनां कर्मणि तत् (सः) (तूताव) वर्धयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्येति दीर्घः। (न) निषेधे (एनम्) पूर्वोक्तगुणम्। (अश्नोति) व्याप्नोति व्यत्येयनात्र परस्मैपदम्। (अंहतिः) दारिद्र्यम् (अग्ने, सख्ये, मा, रिषाम, वयम्, तव) इति पूर्ववत् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विदुषां सभायामग्निविद्यायां वा मित्रतामाचरन्ति ते पूर्णं शरीरात्मबलं प्राप्य सुखसंपन्ना भूत्वा निवसन्ति नेतरे ॥ २ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, whoever you bless grows in strength and competence. He lives and moves undisturbed, irresistible, wins power and valour, and rises to greatness and prosperity. Want, anxiety and poverty touch him never. Agni, we pray, we may never suffer want and misery while we enjoy your friendship and company.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वानाच्या सभेशी व अग्निविद्येशी सख्य करतात ते शरीर व आत्म्याचे पूर्ण बल प्राप्त करून सुखी होतात, इतर नव्हे. ॥ २ ॥