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आन्यं दि॒वो मा॑त॒रिश्वा॑ जभा॒राम॑थ्नाद॒न्यं परि॑ श्ये॒नो अद्रे॑:। अग्नी॑षोमा॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नोरुं य॒ज्ञाय॑ चक्रथुरु लो॒कम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ānyaṁ divo mātariśvā jabhārāmathnād anyam pari śyeno adreḥ | agnīṣomā brahmaṇā vāvṛdhānoruṁ yajñāya cakrathur u lokam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। अ॒न्यम्। दि॒वः। मा॒त॒रिश्वा॑। ज॒भा॒र॒। अम॑थ्नात्। अ॒न्यम्। परि॑। श्ये॒नः। अद्रेः॑। अग्नी॑षोमा। ब्रह्म॑णा। व॒वृ॒धा॒ना। उ॒रुम्। य॒ज्ञाय॑। च॒क्र॒थुः॒। ऊँ॒ इति॑। लो॒कम् ॥ १.९३.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:93» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:28» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जो (ब्रह्मणा) परमेश्वर से (वावृधाना) उन्नति को प्राप्त हुए (अग्नीषोमा) अग्नि और पवन (यज्ञाय) ज्ञान और क्रियामय यज्ञ के लिये (उरुम्) बहुत प्रकार (लोकम्) जो देखा जाता है, उस लोकसमूह को (चक्रथुः) प्रकट करते हैं, उनमें से (मातरिश्वा) पवन जो कि आकाश में सोनेवाला है, वह (दिवः) सूर्य्य आदि लोक से (अन्यम्) और दूसरा अप्रसिद्ध जो कारणलोक है, उसको (आ, जभार) धारण करता है तथा (श्येनः) वेगवान् घोड़े के समान वर्त्तनेवाला अग्नि (अद्रेः) मेघ से (अमथ्नात्) मथा करता है, उनको जानकर उपयोग में लाओ ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जो पवन और बिजुली के दो रूप हैं, एक कारण और दूसरा कार्य्य, उनसे जो पहिला है वह विशेष ज्ञान से जानने योग्य और जो दूसरा है वह प्रत्यक्ष इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य है। जिसके गुण और उपकार जाने हैं, उस पवन वा अग्नि से कारणरूप में उक्त अग्नि और पवन प्रवेश करते हैं, यही सुगम मार्ग है जो कार्य के द्वारा कारण में प्रवेश होता है, ऐसा जानो ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं यौ ब्रह्मणा वावृधानाग्नीषोमा यज्ञायोरुं लोकं चक्रथुस्तयोर्मध्यान्मातरिश्वा दिवोऽन्यमाजभार हरति द्वितीयः श्येनोऽग्निरद्रेरन्यं पर्य्यमथ्नात्सर्वतो मथ्नाति तौ विदित्वा सम्प्रयोजयत ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (अन्यम्) भिन्नमप्रसिद्धम् (दिवः) सूर्य्यादेः (मातरिश्वा) आकाशशयानो वायुः (जभार) हरति। अत्रापि हस्य भः। (अमथ्नात्) मथ्नाति (अन्यम्) भिन्नमप्रसिद्धम् कारणाख्यम् (परि) सर्वतः (श्येनः) वेगवानश्व इव वर्त्तमानः। श्येनास इत्यश्वना०। निघं० १। १४। (अद्रेः) मेघात् (अग्नीषोमा) कारणाख्यौ वायुविद्युतौ (ब्रह्मणा) परमेश्वरेण (वावृधाना) वर्धमानौ (उरुम्) बहुविधम् (यज्ञाय) ज्ञानक्रियामयाय यागाय (चक्रथुः) कुरुतः (उ) वितर्के (लोकम्) दृश्यमानं भुवनसमूहम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यूयमेतयोर्वायुविद्युतोर्द्वे स्वरूपे स्त एकं कारणभूतं द्वितीयं कार्यभूतं च तयोर्यत्कारणाख्यं तद्विज्ञानगम्यं यच्च कार्याख्यं तदिन्द्रियग्राह्यमेतेन कार्याख्येन विदितगुणोपकारकृतेन वायुनाऽग्निना वा कारणाख्ये प्रवेशं कुरुतः। अयमेव सुगमो मार्गो यत् कार्यद्वारा कारणे प्रवेश इति विजानीत ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! वायू व विद्युतची जी दोन रूपे आहेत, त्यापैकी एक कारण व दुसरे कार्य. त्यापैकी जे पहिले आहे ते विशेष ज्ञानाने जाणण्यायोग्य आहे. दुसरे कार्य जे इंद्रियांद्वारे ग्रहण करण्यायोग्य आहे व ज्याचे गुण व उपयोग जाणलेले आहेत, त्या वायू व अग्नीद्वारे कारणरूपात वरील अग्नी व विद्युत प्रवेश करतात. हाच सुगम मार्ग आहे. ज्याचा कार्याद्वारे कारणात प्रवेश असतो, हे जाणा. ॥ ६ ॥