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अ॒स्मे धे॑हि॒ श्रवो॑ बृ॒हद्द्यु॒म्नं स॑हस्र॒सात॑मम्। इन्द्र॒ ता र॒थिनी॒रिषः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asme dhehi śravo bṛhad dyumnaṁ sahasrasātamam | indra tā rathinīr iṣaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मे इति॑। धे॒हि॒। श्रवः॑। बृ॒हत्। द्यु॒म्नम्। स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मम्। इन्द्र॑। ताः। र॒थिनीः॑। इषः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:9» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी पूर्वोक्त धन कैसा होना चाहिये, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्तबलयुक्त ईश्वर ! आप (अस्मे) हमारे लिये (सहस्रसातमम्) असंख्यात सुखों का मूल (बृहत्) नित्य वृद्धि को प्राप्त होने योग्य (द्युम्नम्) प्रकाशमय ज्ञान तथा (श्रवः) पूर्वोक्त धन और (रथिनीरिषः) अनेक रथ आदि साधनसहित सेनाओं को (धेहि) अच्छे प्रकार दीजिये॥८॥
भावार्थभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप कृपा करके जो अत्यन्त पुरुषार्थ के साथ जिस धन कर के बहुत से सुखों को सिद्ध करनेवाली सेना प्राप्त होती है, उसको हम लोगों में नित्य स्थापन कीजिये॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

धन , रथ व अन्न

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (इन्द्र) - परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (अस्मे) - हमारे लिए (श्रवः) - उस धन को (धेहि) - धारण कराइए  , जो धन [क] (बृहत्) - वृद्धि का कारणभूत है [ख] (द्युम्नम्) - ज्योतिर्मय है [ग] (सहस्त्रसातमम्) - सहस्र संख्याक दानों से युक्त है । २. इस प्रकार के धनों को तो हमें प्राप्त कराइए ही  , हे प्रभो ! (ताः) - उन (रथिनीः) - बहुत से रथों से युक्त (इषः) - अन्नों को (धेहि) - धारण कराइए ।  ३. धन वही ठीक है जो कि [क] वृद्धि का कारणभूत हो  , अर्थात् हमें विषय - वासनाओं में फंसाकर ह्रास की ओर ले - जानेवाला न हो । [ख] यह धन हमें अपना दास बनाकर कहीं हमें मूर्ख ही न बना दे । यह हमारी ज्ञान - ज्योति का बढ़ानेवाला हो तथा [ग] साथ ही हम इस धन का खूब दान करनेवाले बनें । लालच में पड़कर हम इसके पहरेदार ही न बन जाएँ । इस प्रकार के धन के साथ हमारे पास आने - जाने के लिए वाहनों की कमी न हो तथा वाञ्छनीय अन्नों की कभी न्यूनता न हो । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमें प्रभु - कृपा से 'बृहत् - द्युम्न - सहस्रसातम' धन प्राप्त हो तथा रथों के साथ अन्नों की कमी न हो । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशं तदित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे इन्द्र ! त्वमस्मे सहस्रसातमं बृहद् द्युम्नं श्रवो रथिनीरिषश्च धेहि॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मे) अस्मभ्यम्। अत्र सुपां सुलुगिति शेआदेशः। (धेहि) प्रयच्छ (श्रवः) पूर्वोक्तम् (बृहत्) उपबृंहितम् (द्युम्नम्) प्रकाशमयं ज्ञानम् (सहस्रसातमम्) सहस्रमसंख्यातं सुखं सनुते ददाति येन तदतिशयितम्। जनसनखनक्रमगमो विट्। (अष्टा०३.२.६७) अनेन सहस्रोपपदात्सनोतेर्विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। (अष्टा०६.४.४१) अनेन नकारस्याकारादेशः, ततस्तमप्। (इन्द्र) महाबलयुक्तेश्वर ! (ताः) पूर्वोक्ताः (रथिनीः) बहवो रमणसाधका रथा विद्यन्ते यासु ताः। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः, सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशश्च। (इषः) इष्यन्ते यास्ताः सेनाः। अत्र कृतो बहुलमिति वार्तिकेन कर्मणि क्विप्॥८॥
भावार्थभाषाः - हे जगदीश्वर ! भवत्कृपयात्यन्तपुरुषार्थेन च येन धनेन बहुसुखसाधिकाः पृतनाः प्राप्यन्ते तदस्मासु नित्यं स्थापय॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of honour, wealth and power, grant us great honour and knowledge, wealth and happiness of a thousand sort, a strong economy and a mighty force of chariots (moving on land and sea and in the air).
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject is continued.

अन्वय:

O God, grant us brilliant knowledge and great renown, a thousand ways grant riches which bring happiness in and grant that we may have strong armies and many chariots and other conveyances for them.

पदार्थान्वयभाषाः - (घुम्नम्) प्रकाशमयं ज्ञानम् = Bright knowledge. (सहस्रसातमम् ) सहस्रम् असंख्यातं सुखं सनुते ददाति येन तत् अतिशयितम् |
भावार्थभाषाः - O Lord, grant us that wealth by Thy grace and as a result of our own exitron by which we may have armies that accomplish much happiness (by overcoming all un-righteous persons).
टिप्पणी: सहस्रमिति बहुनाम (निघ० ३.१) षणु-दाने । = Giver of innumerable kinds of happiness or articles. रथिनी: It is amusing to find Griffith giving a foot note saying- “The meaning of रथिनी: (Rathinceh) is not clear". It is not at all a difficult word. Skanda swami explains रथिनी: इषः as रथ सहिताः इप: अन्नानि Venkata Madhava and Sayanacharya also follow him saying वहुरथोपेता इष: अन्नानि Wilson translates it peculiarly as "those articles of food (which are brought from the fields) in carts. Rishi Dayananda takes इष: unlike these other commentators as इष्यन्ते यारता: सेना: अत्र कृतो बहुलम् इति वार्तिकेन कर्मणि क्विप् = desired armies. In this case, the adjective रथिनी: having various kinds of charicts becomes quite clear and Griffith's doubt is cleared.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे जगदीश्वरा ! तुझ्या कृपेने अत्यंत पुरुषार्थ करून धनाने सुख सिद्ध करणारी सेना प्राप्त होऊ दे ॥ ८ ॥