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ए॒षा स्या वो॑ मरुतोऽनुभ॒र्त्री प्रति॑ ष्टोभति वा॒घतो॒ न वाणी॑। अस्तो॑भय॒द्वृथा॑सा॒मनु॑ स्व॒धां गभ॑स्त्योः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣā syā vo maruto nubhartrī prati ṣṭobhati vāghato na vāṇī | astobhayad vṛthāsām anu svadhāṁ gabhastyoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षा। स्या। वः॒। म॒रु॒तः॒। अ॒नु॒ऽभ॒र्त्री। प्रति॑। स्तो॒भ॒ति॒। वा॒घतः॑। न। वाणी॑। अस्तो॑भयत्। वृथा॑। आ॒सा॒म्। अनु॑। स्व॒धाम्। गभ॑स्त्योः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:88» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्या ज्ञान चाहनेवाला पुरुष उनमें कैसे वर्त्त कर, क्या ग्रहण करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) मनुष्यो ! तुम लोगों की जो (एषा) यह कही हुई वा (स्या) कहने को है, वह (अनुभर्त्री) इष्ट सुख धारण करानेहारी (वाणी) वाक् (वाघतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने-करानेहारे विद्वान् के (न) समान विद्याओं का (प्रति+स्तोभति) प्रतिबन्ध करती अर्थात् प्रत्येक विद्याओं को स्थिर करती हुई (आसाम्) विद्या के कामों को (गभस्त्योः) भुजाओं में (अनु) (स्वधाम्) अपने साधारण सामर्थ्य के अनुकूल प्रतिबन्धन करती है तथा (वृथा) झूँठ व्यवहारों को (अस्तोभयत्) रोक देती है, इस वाणी को आप लोगों से हम सुनें ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ऋतु-ऋतु में यज्ञ करानेवाले की वाणी यज्ञ कामों का प्रकाश कर दोषों को निवृत्त करती है, वैसे ही विद्वानों की वाणी विद्याओं का प्रकाश कर अविद्या को निवृत्त करती है, इसीसे सब मनुष्यों को विद्वानों के संग का निरन्तर सेवन करना चाहिये ॥ ६ ॥ ।इस सूक्त में मनुष्यों को विद्यासिद्धि के लिये पढ़ने-पढ़ाने की रीति प्रकाशित की है, इस कारण इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्राणसाधना व स्वधा

पदार्थान्वयभाषाः - १. (न) = अब [न सम्प्रत्यर्थे] (वाघतः) = ज्ञानी ऋत्विज् की = ज्ञान का वहन करनेवाले यज्ञशील पुरुष की (एषा) = यह (स्या) = वह (वाणी) = वाणी हे (मरुतः) प्राणो ! (वः) = आपकी (अनुभर्त्री) = अनुक्रम से, आनुकूल्येन भरण करनेवाली होकर (प्रतिष्टोभति) = एक - एक का - प्रत्येक का स्तवन करती है । गतमन्त्र के अनुसार प्राणसाधना करने पर गोतम की वाणी भी प्राणशक्ति सम्पन्न बनती है और उन प्राणों की शक्ति को अनुक्रम से अपने में धारण करती हुई यह वाणी उन प्राणों का स्तवन करनेवाली बनती है । इस गोतम की वाणी 'वाघत्' की वाणी बन जाती है । यह वाणी ज्ञानी ऋत्विज् की वाणी हो जाती है । २. (गभस्त्योः) = बाहुओं में (स्व - धाम्) आत्मधारण की शक्ति के (अनु) = पीछे यह वाणी (आसाम्) = इन मरुतों का (वृथा) = अनायासेन (अस्तोभयत्) = [अस्तौत्] स्तुति करती है । प्राणसाधना से जब बाहुओं में शक्ति आती है तब वाणी अनायास ही प्राणों का स्तवन कर उठती है । उस समय प्राणों की महिमा का साक्षात् अनुभव होता है और इस अनुभवकर्ता के लिए प्राणों का स्तवन स्वभाविक ही हो जाता है । प्राणों ने ही तो वाणी को 'वायत्' की वाणी बनाया है । इन प्राणों के अनुग्रह से ही ज्ञान व यज्ञशीलता की वृद्धि हुई है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ = प्राणसाधना से हमारा ज्ञान बढ़ता है, यज्ञशीलता के भाव में उन्नति होती है और आत्मधारण की शक्ति बढ़ती है ।
टिप्पणी: विशेष = सूक्त के आरम्भ में कहा है कि प्राणसाधना से हमारा शरीररूप रथ 'ज्योतिर्मय' बनता है [१] ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ दोनों ही प्रशस्त होती हैं [२] । प्रभुरूप इष्टधन की प्राप्ति होती है [३] । बुद्धि, दिव्यवृत्ति व ज्ञान को प्राप्त करके हम आनन्दरस का पान करते हैं [४] । हमारा शरीर पूर्ण स्वस्थ होता है [५] । हम आत्मधारण की शक्तिवाले होते हैं [६] । हमें भद्र क्रतु प्राप्त होते हैं' = इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्जिज्ञासुरेतेषु कथं वर्त्तित्वा किं गृह्णीयादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! वो युष्माकं यैषा स्यानुभर्त्री वाणी वाघतो नेव विद्याः प्रतिष्टोभत्यासां गभस्त्योरनु स्वधां प्रतिष्टोभति वृथा व्यवहारानस्तोभयदेतां भवद्भ्यो वयं प्राप्नुयाम ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) उक्तविद्या (स्या) वक्ष्यमाणा (वः) युष्मान् (मरुतः) (अनुभर्त्री) अनुगतसुखधारणस्वभावा (प्रति) प्रतिबन्धेन (स्तोभति) बध्नाति (वाघतः) ऋत्विजः (न) इव (वाणी) (अस्तोभयत्) बन्धयति (वृथा) (आसाम्) विद्यया क्रियमाणानाम् (अनु) (स्वधाम्) स्वकीयां धारणशक्तिम् (गभस्त्योः) बाह्वोः ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा ऋत्विजो वाक्यज्ञकार्याणि प्रकाश्य दोषान् निवारयन्ति, तथैव विदुषां वाणी विद्याः प्रकाश्याऽविद्यां निवारयति। अत एव सर्वैर्विद्वत्सङ्गः सततं सेवनीयः ॥ ६ ॥ अत्र मनुष्याणां विद्यासिद्धयेऽध्ययनाऽध्यापनरीतिः प्रकाशितैतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम् ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Maruts, heroes of the winds and leaders of humanity, this voice of celebration is replete with nourishment and confirmation of your honour and valour. It defines your action and achievement and, in consequence, it commits you to your honour and duty as the voice of the high priest commits the yajamana to his duty on purpose, according to the power and potential in his hands.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject is continued.

अन्वय:

O men, this your speech which upholds happiness favourably, glorifies sciences like the speech of a priest. It manifests its sustaining power in the arms of a learned person and keeps away all useless dealings. Let us learn this from you.

पदार्थान्वयभाषाः - (वाघतः) ऋत्विक् = Priest. (स्वधाम्) स्वकीयां धारणशक्तिम् = Upholding power. (गभस्त्योः) वाह्वोः = In the arms.
भावार्थभाषाः - As priests illumine all acts of the speech and Yajna and drive away all evils, in the same manner, the speech of learned persons illumines all sciences and keeps away all ignorance. Therefore, all should have always the association with wise learned persons.
टिप्पणी: वाघत इति ऋत्विङ् नाम (निघ० ३.१८ ) गभस्तोति बाहुनाम (निघ० २.४ ) Prof. Maxmuller frankly admits in his note that "This last verse is almost un-intelligible to me."But having given the following translation which has practically no sense. "This comforting speech rushes sounding towards you, like the speech of a suppliant; it rushes freely from our hands as our speeches are wont to do.(Vedic Hymns Vol.I,P.169).Prof. Maxmuller adds in the Note: My own translation is to a great extent conjectural. (Vedic Hymns Vol.P.178).What is the value of such a conjectural translation when the translator frankly admits that the verse is almost intelligible to him. This hymn is connected with the previous hymn as the system of learning and teaching has been taught here for the accomplishment of knowledge. Here ends the commentary on the eighty-eight hymn of the first Mandala of the Rigveda.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी ऋत्विजाची वाणी यज्ञकार्याला प्रकाशित करते व दोष काढून टाकते तसेच विद्वानाची वाणी विद्या प्रकट करून अविद्येचा नाश करते. त्यासाठी सर्व माणसांनी विद्वानांच्या संगतीचे निरंतर सेवन केले पाहिजे. ॥ ६ ॥