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देवता: मरुतः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: जगती स्वर: निषादः

आ वो॑ वहन्तु॒ सप्त॑यो रघु॒ष्यदो॑ रघु॒पत्वा॑नः॒ प्र जि॑गात बा॒हुभिः॑। सीद॒ता ब॒र्हिरु॒रु वः॒ सद॑स्कृ॒तं मा॒दय॑ध्वं मरुतो॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vo vahantu saptayo raghuṣyado raghupatvānaḥ pra jigāta bāhubhiḥ | sīdatā barhir uru vaḥ sadas kṛtam mādayadhvam maruto madhvo andhasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वः॒। व॒ह॒न्तु॒। सप्त॑यः। र॒घु॒ऽस्यदः॑। र॒घु॒ऽपत्वा॑नः। प्र। जि॒गा॒त॒। बा॒हुऽभिः॑। सीद॑ता। ब॒र्हिः। उ॒रु। वः॒। सदः॑। कृ॒तम्। मा॒दय॑ध्वम्। म॒रु॒तः॒। मध्वः॑। अन्ध॑सः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:85» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (रघुस्यदः) गमन करने-करानेहारे (रघुपत्वानः) थोड़े वा बहुत गमन करनेवाले (मरुतः) वायुओं के समान (सप्तयः) शीघ्र चलनेहारे अश्व (वः) तुमको (वहन्तु) देश-देशान्तर में प्राप्त करें, उनको (बाहुभिः) बल पराक्रमयुक्त हाथों से (प्राजिगात) उत्तम गतिमान् करो उनसे (उरु) बहुत (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आसीदत) बैठ के आकाशादि में गमनागमन करो। जिनसे तुम्हारे (सदः) स्थान (कृतम्) सिद्ध (भवेत्) होवें, उनसे (मध्वः) मधुर (अन्धसः) अन्नों को प्राप्त हो के हमको (मादयध्वम्) आनन्दित करो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - सभाध्यक्षादि मनुष्य लोग क्रियाकौशल से शिल्पविद्या से सिद्ध करने योग्य कार्यों को करके अच्छे भोगों को प्राप्त हों, कोई भी मनुष्य इस जगत् में पदार्थविज्ञान क्रिया के विना उत्तम भोगों को प्राप्त होने में समर्थ नहीं होता। इससे इस काम का नित्य अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ६ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

गतिमय इन्द्रियाश्व

पदार्थान्वयभाषाः - १. 'मरुतः' का अर्थ आधिदैविक जगत् में 'वृष्टि की वायुएँ हैं, आधिभौतिक क्षेत्र में ये वीर सैनिक हैं और अध्यात्म में ये प्राण हैं । प्राणसाधक पुरुष भी 'मरुतः' कहलाते हैं । प्राणसाधना से शरीर के सब शत्रु उसी प्रकार नष्ट होते हैं जैसेकि वीर सैनिक रणभूमि में शत्रुओं का नाश करते हैं । इस प्रकार प्राणसाधना से इन्द्रियों के दोष दूर होकर इन इन्द्रियाश्वों की गति व शक्ति बढ़ जाती है, अतः कहते हैं कि (वः) = तुम्हें (सप्तयः) = सर्पणशील अपने - अपने कार्यों को उत्तमता से करनेवाले (रघुष्यदः)= वेगयुक्त गतिवाले (रघुपत्वानः) = शीघ्रता से मार्ग का आक्रमण करनेवाले इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = जीवन - यात्रा में वहन करनेवाले हों । २. (बाहुभिः) = अपने प्रयत्नों व पराक्रमों से (प्रजिगात्) = तीव्रता से आगे और आगे चलो । जीवनपथ को प्रशस्त व उन्नत बनाते हुए तुम (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय में (सीदत) = बैठो । प्राणसाधना से हृदय वासनाशून्य बनता ही है । (वः) = तुम्हारा (सदः) = यह बैठने का स्थान - हृदय (उरु कृतम्) = विशाल बनाया गया है । विशालता में ही तो उसकी पवित्रता है । सब अशुभ वासनाएँ संकुचित हृदय की ही उपज हैं । ३. हे (मरुतः) प्राणो व प्राणसाधक पुरुषो ! आप (मध्वः) = अत्यन्त माधुर्य को लिये हुए (अन्धसः) = इस ध्यान से रक्षणीय सोम के पान से (मादयध्वम्) = आनन्द का अनुभव करो । सोमरक्षण ही सब आनन्दों का मूल है । ४. सैनिक पक्ष में (अन्धसः) = अन्नवाचक हो जाता है । सैनिकों को भी 'आयु, सत्त्व [उत्साह], बल व आरोग्य' वर्धक अन्न का सेवन करना है । यह अन्न उनको मस्ती देनेवाला हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ = प्राणसाधना से इन्द्रियाश्व निर्दोष होकर हमें यात्रा में आगे ले - चलते हैं । पुरुषार्थ बढ़ता है, हृदय विशाल व पवित्र बनता है । सोमरक्षण होकर आनन्द की वृद्धि होती है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! ये रघुस्यदो रघुपत्वानो मरुत इव सप्तयोऽश्वा वो युष्मान् वहन्तु तान् बाहुभिः प्राऽऽजिगात तैरुरुबर्हिरासीदत यैर्वो युष्माकं सदस्कृतं भवेत् तैर्मध्वोऽन्धसः प्राप्यास्मान् मादयध्वम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (वहन्तु) देशान्तरं प्रापयन्तु (सप्तयः) संयुक्ताः शीघ्रं गमयितारोऽग्निवायुजलादयोऽश्वाः (रघुस्यदः) ये मार्गान् स्यन्दन्ते ते। गत्यर्थाद् रघिधातोर्बाहुलकादौणादिक उः प्रत्ययो नकारलोपश्च। (रघुपत्वानः) ये रघून् पथः पतन्ति ते। अत्रान्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति वनिप् प्रत्ययः। (प्र) उत्कृष्टार्थे (जिगात) स्तुत्यानि कर्माणि कुरुत (बाहुभिः) हस्तक्रियाभिः (सीदत) देशान्तरं गच्छत (आ) सर्वतः (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (उरु) बहु (वः) युष्माकम् (सदः) स्थानम्। अत्र छन्दसि वा कःकरत्करतिकृधिकृतेष्वनदितेः। (अष्टा०८.३.५०) अनेन सूत्रेण विसर्जनीयस्य सत्वम्। (कृतम्) निष्पादितम् (मादयध्वम्) आनन्दं प्रापयत (मरुतः) वायव इव ज्ञानयोगेन शीघ्रं गन्तारो मनुष्याः (मध्वः) मधुरगुणयुक्तानि (अन्धसः) अन्नानि ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः क्रियाकौशलेन शिल्पविद्यासिद्धानि कार्याणि कृत्वा संभोगान् प्राप्नुवन्तु, नहि केनचिदस्मिन् जगति पदार्थविज्ञानक्रियाभ्यां विनोत्तमा भोगाः प्राप्तुं शक्यन्ते तस्माद् एतन्नित्यमनुष्ठेयम् ॥ ६ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Maruts, may superfast vehicles transport you here and everywhere. May the flying planes at top speed take you anywhere by the force of their arms. Come, the chamber is made ready for you. Come and be comfortable in the seats. Enjoy yourselves with honey sweets of food and drink.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What do the Maruts do is taught further in the sixth Mantra.

अन्वय:

O men, may the swiftly gliding quick-paced combined horses in the form of fire, air and water etc. carry you hither. Moving swiftly come hither and do admirable deeds with your arms. Go to distant places in the firmament. O ye men quick going like the winds with the help of sciences, i. e. the knowledge of various sciences. Be delighted and gladden others by taking sweet food.

पदार्थान्वयभाषाः - (सप्तय:) संयुक्ताः शीघ्र गमयितारः अग्निवायु-जलादयः अश्वाः = Causing swift movement when combined,horses in the form of fire, air and water etc. (जिगात) स्तुत्यानि कर्माणि कुरुत = Do admirable deeds. (बर्हि:) अन्तरिक्षम् = Firmament. (मरुतः) वायवः इव ज्ञानयोगेन शीघ्र गन्तारो ममुष्याः = Men who go quickly to distant places like the winds with the help of scientific knowledge.
भावार्थभाषाः - The President of the Assembly and others should enjoy by accomplishing many works with the help of the arts and industries. It is not possible for any one to get good enjoyment without the scientific knowledge and its practical application. Therefore this should ever be done by all.
टिप्पणी: बहिरिति अन्तरिक्ष नाम (निघ० १.३) गा-स्तुतौ
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सभाध्यक्ष इत्यादींनी क्रियाकौशल्ययुक्त शिल्पविद्येद्वारे सिद्ध कार्य करून चांगल्या प्रकारे भोग प्राप्त करावेत. कोणताही माणूस या जगात पदार्थ विज्ञान क्रियेशिवाय उत्तम भोग प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. त्यामुळे या कामाचे सदैव अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ६ ॥