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अक्ष॒न्नमी॑मदन्त॒ ह्यव॑ प्रि॒या अ॑धूषत। अस्तो॑षत॒ स्वभा॑नवो॒ विप्रा॒ नवि॑ष्ठया म॒ती योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

akṣann amīmadanta hy ava priyā adhūṣata | astoṣata svabhānavo viprā naviṣṭhayā matī yojā nv indra te harī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अक्ष॑न्। अमी॑मदन्त। हि। अव॑। प्रि॒याः। अ॒धू॒ष॒त॒। अस्तो॑षत। स्वऽभा॑नवः। विप्राः॑। नवि॑ष्ठया। म॒ती। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:82» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभापते ! जो (ते) तेरे (हरी) धारण-आकर्षण करनेहारे वाहन वा घोड़े हैं उनको तू हमारे लिये (नु योज) शीघ्र युक्त कर, हे (स्वभानवः) स्वप्रकाशस्वरूप सूर्यादि के तुल्य (विप्राः) बुद्धिमान् लोगो ! आप (नविष्ठया) अतिशय नवीन (मती) बुद्धि के सहित होके (प्रियाः) प्रिय हूजिये, सबके लिये सब शास्त्रों की (हि) निश्चय से (अस्तोषत) प्रशंसा आप किया करिये, शत्रु और दुःखों को (अवाधूषत) छुड़ाइये, (अक्षन्) विद्यादि शुभगुणों में व्याप्त हूजिये, (अमीमदन्त) अतिशय करके आनन्दित हूजिये और हमको भी ऐसे ही कीजिये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि श्रेष्ठ गुण-कर्म्म-स्वभावयुक्त सब प्रकार उत्तम आचरण करनेहारे सेना और सभापति तथा सत्योपदेशक आदि के गुणों की प्रशंसा और कर्मों से नवीन-नवीन विज्ञान और पुरुषार्थ को बढ़ाकर सदा प्रसन्नता से आनन्द का भोग करें ॥ २ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

विप्र [का लक्षण]

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु के अनुग्रह को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति (विप्राः) = [विप्रा पूर्णे] अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले होते हैं, वे (अक्षन्) = शरीर = पोषण के लिए भोजन करते हैं और (अमीमदन्त)= एक हर्ष का अनुभव करते हैं । इनके द्वारा भोजन सदा प्रसन्नतापूर्वक किया जाता है । भोजन को भी ये एक यज्ञ का रूप दे देते हैं और (हि) = निश्चय से (प्रियाः) = प्रभु के प्यारे होते हैं और (अव अधूषत) = सब आधि - व्याधियों को कम्पित करके अपने से दूर करनेवाले होते हैं । इनका सात्त्विक यज्ञीय भोजन शरीर में अनामय [नीरोगता] का कारण बनता है तो मन में यह प्रकाशक होता है । २. (अस्तोषत) = ये प्रभु का स्तवन करते हैं और परिणामतः (स्वभानवः) - आत्मा की दीप्तिवाले होते हैं, (नविष्ठया) अत्यन्त स्तुत्य (मती) = बुद्धि से युक्त होते हैं । इनके शरीर और मन की भाँति इनकी बुद्धि भी अत्यन्त शुद्ध होती है । हे (इन्द्र) = प्रभो ! आप (ते हरी) = अपने इन इन्द्रियाश्वों को (योजा नु) = हमारे शरीररूप रथ में जोडिए । आप इस रथ को निरन्तर आगे ले = चलनेवाले हों और इस प्रकार हमारी जीवन - यात्रा की पूर्ति में साधक बनें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ = विप्र वह है जो [क] प्रसन्नतापूर्वक सात्त्विक भोजन करता है, [ख] शरीर और मन के मैलों को दूर करता है, [ग] प्रभुस्तवन करता हुआ आत्मप्रकाश को देखने का प्रयत्न करता है, [घ] प्रशस्त बुद्धि से युक्त होता है, [ङ] इन्द्रियों को स्वकार्य में व्याप्त करके जीवन = यात्रा को पूर्ण करता है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यौ ये तव हरी वर्त्तेते तावस्मदर्थं नु योज। हे स्वभानवो विप्रा ! भवन्तः सूर्यादय इव नविष्ठया मती सह सर्वेषां प्रिया भवन्तु सर्वाणि शास्त्राणि ह्यस्तोषत शत्रून् दुःखान्यवाधूषताक्षन्नमीमदन्तास्मानपीदृशान् कुर्वन्तु ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अक्षन्) शुभगुणान् प्राप्नुवन्तु (अमीमदन्त) आनन्दन्तु (हि) खलु (अव) विरुद्धार्थे (प्रियाः) प्रीतियुक्ताः सन्तः (अधूषत) शत्रून् दुःखानि वा दूरीकुरुत (अस्तोषत) स्तुत (स्वभानवः) स्वकीया भानवो दीप्तयो येषां ते (विप्राः) मेधाविनः (नविष्ठया) अतिशयेन नूतनया (मती) बुद्ध्या (योज) योजय (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) सभाध्यक्ष (ते) (हरी) ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरुत्तमगुणकर्मस्वभावयुक्तस्य सर्वथा प्रशंसिताचरणस्य सेनाद्यध्यक्षस्योपदेशकस्य वा गुणप्रशंसनाऽनुकरणाभ्यां नवीनौ विज्ञानपुरुषार्थौ वर्धयित्वा सर्वदा प्रसन्नतयाऽऽनन्दो भोक्तव्यः ॥ २ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Noble men acquiring holy knowledge, rejoicing, dearest favourite saints and sages brilliant with their innate genius and virtue, ward off the evil and pray to Indra with latest words of wisdom and homage. Indra, yoke your horses (on the wing and come to join the yajna).
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is Indra is taught further in the second Mantra.

अन्वय:

O Indra (O President of the Assembly or the Commander of the army) quickly yoke for us your attributes of upholding or attracting or good horses. O wise learned men, resplendent like the sun, you may become popular or loved and liked by all with your ever new inteligence. study all the Vedas and other Shastras. Drive away all enemies and miseries. Enjoy happiness and bliss. Be endowed with noble virtues and make us also like your noble selves.

पदार्थान्वयभाषाः - (अक्षन्) शुभगुणान् प्राप्नुवन्तु = Acquire good virtues. (अधूषत) शत्रून् दुःखानि वा दूरी कुरुत = Drive away enemies or miseries. (विप्राः) मेधाविनः = Wisemen.
भावार्थभाषाः - Men should happily enjoy all bliss by praising and imitating the virtues of a noble virtuous preacher or the President of the Assembly and army etc. augmenting new scientific and other knowledge and exertion.
टिप्पणी: अक्षन् has been derived by the Rishi from अशूङ्ग्याप्तौ though Sayanacharya has derived it from अद्-भक्षणे which is farfetched. अधूषत from धूञ्-कम्पने or धू-विधूनने, विप्र इति मेघाविनाम (निघ० ३.१५)
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी श्रेष्ठ गुणकर्म स्वभावयुक्त सर्व प्रकारे उत्तम आचरण करणारी सेना व सभापती आणि सत्योपदेश इत्यादींच्या गुणांची प्रशंसा करावी व कर्मानी नवनवे विज्ञान व पुरुषार्थ वाढवून सदैव प्रसन्न राहून आनंद भोगावा. ॥ २ ॥