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स॒हस्रं॑ सा॒कम॑र्चत॒ परि॑ ष्टोभत विंश॒तिः। श॒तैन॒मन्व॑नोनवु॒रिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मोद्य॑त॒मर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sahasraṁ sākam arcata pari ṣṭobhata viṁśatiḥ | śatainam anv anonavur indrāya brahmodyatam arcann anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒हस्र॑म्। सा॒कम्। अ॒र्च॒त॒। परि॑। स्तो॒भ॒त॒। विं॒श॒तिः। श॒ता। ए॒न॒म्। अनु॑। अ॒नो॒न॒वुः॒। इन्द्रा॑य। ब्रह्म॑। उत्ऽय॑तम्। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:80» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जो सभाध्यक्ष (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करता हुआ वर्त्तमान होता है (एनम्) उसका आश्रय करके उस अपने राज्य को सब प्रकार से अधर्माचरण से (परिष्टोभत) रोको, (साकम्) परस्पर मिल के (सहस्रम्) असंख्यात गुणों से युक्त पुरुषों से सहित (अर्चत) सत्कार करो। जिसको (विंशतिः) बीस (शता) सैकड़े (अनु) अनुकूलता से (अनोनवुः) स्तुति करो, जो (उद्यतम्) प्रसिद्ध (ब्रह्म) वेद वा अन्न को (अर्चन्) सत्कार करता हुआ वर्त्तता है, उस (इन्द्राय) अधिक सम्पत्तिवाले सभाध्यक्ष के लिये अनुकूल हो के स्तुति करो ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को विरोध के विना छोड़े परस्पर सुख कभी नहीं होता। मनुष्यों को उचित है कि विद्या तथा उत्तम सुख से रहित और निन्दित मनुष्य को सभाध्यक्ष आदि का अधिकार कभी न देवें ॥ ९ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सहस्त्रं - विंशतिः - शता

पदार्थान्वयभाषाः - १. (सहस्त्रम्) = [स+हस्] हँसने के साथ, अर्थात् अत्यन्त प्रसन्नता के साथ (साकम्) = सब मिलकर, घर में सब पारिवारिक सदस्य एक स्थान में [अस्मिन् सधस्थे] एकत्र होकर (अर्चत) = उस प्रभु का अर्चन करो । प्रातः - सायं सब मिलकर उस प्रभु की अर्चना करें, यही बच्चों को उत्तम बनाने का वास्तविक मार्ग है । २. एकत्र होकर हम सब प्रयत्न करें कि (विंशतिः) = हमारी दस इन्द्रियों व दस प्राण मिलकर - ये बीस - के - बीस (परिष्टोभत) = उस प्रभु का स्तवन करनेवाले हों । उन - उन क्रियाओं को करते हुए ये प्रभु का स्मरण करनेवाले हों। सब क्रियाएँ प्रभु - स्मरण के साथ ही चलें । इस प्रभु - स्मरण में हम एक आनन्द का अनुभव करें [सहस्रम्] । ३. मेरे जीवन के (शता) = सौ - के - सौ वर्ष (एनम्) = इस परमात्मा को (अन्वनोनवुः) = स्तवन करनेवाले हों । मैं प्रभुस्तवन से कभी दूर न होऊँ । मेरी प्रत्येक क्रिया प्रभुस्तवन का रूप धर ले - मेरी भक्ति कर्ममयी हो । मेरा भोजन भी प्रभु के मन्दिर की मरम्मत के रूप में हो । ऐसा होने पर (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (ब्रह्म) = वे प्रभु (उद्यतम्) = स्वागत के लिए तैयार होते हैं । यह मोक्षलोक वा ब्रह्मलोक में पहुँचता है जहाँ कि इसका अभिनन्दन ब्रह्म के द्वारा किया जाता है । यह सब होता तभी है जबकि हम (अर्चन अनु स्वराज्यम्) = आत्मशासन की भावना का आदर करते है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - घर में हम सब मिलकर प्रभु - अर्चन करें । हमारी इन्द्रियों व प्राणों से प्रभुस्तवन ही चले । आजीवन हम प्रभुस्तवन से दूर न हों ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः राजपुरुषैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यः स्वराज्यं स्वकीयं राष्ट्रमर्चन् सत्कुर्वन् वर्त्तते तमाश्रित्य तदधर्माचरणात् पृथक् परिष्टोभत साकं सहस्रमर्चत यं विंशतिः शतान्यन्वनोनवुर्य उद्यतं ब्रह्मार्चन् वर्त्तते तस्मा इन्द्राय सभाध्यक्षायानु स्तुवत ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रम्) असंख्यातगुणसम्पन्नम् (साकम्) परस्परं मिलित्वा (अर्चत) सत्कुरुत (परि) सर्वतः (स्तोभत) स्तम्भयत (विंशतिः) एतत्संख्याकानि (शता) शतानि सैन्यानि (एनम्) सभाध्यक्षम् (अनु) आनुकूल्ये (अनोनवुः) स्तुवत (इन्द्राय) उत्कृष्टैश्वर्य्याय (ब्रह्म) वेदं सुसंस्कृमन्नं वा (उद्यतम्) उद्वृत्तम् (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - नहि विरोधत्यागेन विना परस्परं सुखं भवति, नहि मनुष्यैर्विद्योत्तमसुशिक्षारहितो निन्दितो मनुष्यः सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः ॥ ९ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Let all together with unanimity honour Indra, the ruler dedicated in faith and honour to the freedom and sovereignty of the Republic and the law and constitution in force under the rules of Veda, universal knowledge and universal values of humanity. Let a council of twenty assist and support him for work and stability of the government. Let hundreds of commanders obey and admire him for the success and glory of the land and the people.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should officers of the State do is taught further in the ninth Mantra.

अन्वय:

O men taking shelter under Indra (President or King ) who has a high regard for his sovereign authority, purge your kingdom of all evil. Unite in your thousands to welcome such a noble ruler and bands of scores of hundreds of you should extol him favourably and submit and offer allegiance to him, who accepts with reverence (as his rule of life) the ever useful Vedic teachings.

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रम्) असंख्यातगुणसम्पन्नम् । = Endowed with innumerable virtues.
भावार्थभाषाः - There can not be mutual happiness without giving up all animosiry and disputes. Men should never appoint as President a person who is devoid of knowledge, wisdom and good education and who is ignoble.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विरोधाचा त्याग केल्याशिवाय माणसांना परस्पर सुख कधी प्राप्त होत नाही. विद्या व सुशिक्षण नसणाऱ्या निंदित माणसाला सभाध्यक्षाचा अधिकार कधी देऊ नये. ॥ ९ ॥