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अ॒भि॒ष्ट॒ने ते॑ अद्रिवो॒ यत्स्था जग॑च्च रेजते। त्वष्टा॑ चि॒त्तव॑ म॒न्यव॒ इन्द्र॑ वेवि॒ज्यते॑ भि॒यार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhiṣṭane te adrivo yat sthā jagac ca rejate | tvaṣṭā cit tava manyava indra vevijyate bhiyārcann anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि॒ऽस्त॒ने। ते॒। अ॒द्रि॒ऽवः॒। यत्। स्थाः। जग॑त्। च॒। रे॒ज॒ते॒। त्वष्टा॑। चि॒त्। तव॑। म॒न्यवे॑। इ॒न्द्र॒। वे॒वि॒ज्यते॑। भि॒या। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:80» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:31» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस सभाध्यक्ष को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अद्रिवः) बहुमेघयुक्त सूर्य्य के समान (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष (यत्) जब (ते) आपके (अभिष्टने) सर्वथा उत्तम न्याययुक्त व्यवहार में (स्थाः) स्थावर (जगच्च) और जङ्गम (रेजते) कम्पायमान होता है तथा जो (त्वष्टा) शत्रुच्छेदक सेनापति है (तव) उसके (मन्यवे) क्रोध के लिये (भिया चित्) भय से भी (वेविज्यते) उद्विग्न होता है, तब आप (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करते हुए सुखी हो सकते हैं ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिए कि जैसे सूर्य के योग से प्राणधारी अपने-अपने कर्म में वर्त्तते और सब भूगोल अपनी-अपनी कक्षा में यथावत् भ्रमण करते हैं, वैसे ही सभा से प्रशासन किये राज्य के संयोग से सब मनुष्यादि प्राणी धर्म के साथ अपने-अपने व्यवहार में वर्त्त के सन्मार्ग में अनुकूलता से गमनागमन करते हैं ॥ १४ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वह अद्भुत शक्ति

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय वीर ! वृत्र [वासना] के विजेता पुरुष ! हे (अद्रिवः) = वज्रवन् - निरन्तर क्रियाशील पुरुष ! (ते अभिष्टने) = तेरा सिंहनाद होने पर (यत्) = जो (स्थाः) = स्थावर है (जगत् च) = और जो जंगम है वह सब (रेजते) = काँप उठता है, अर्थात् तेरी शक्ति के सामने इस चराचर ब्रह्माण्ड की शक्ति भी तुच्छ होती है । २. और तो और (त्वष्टा चित्) = इस संसार का निर्माता भी (तव मन्यवे) = तेरे ऋद्ध होने पर (भिया वेविज्यते) = भय से काँप उठता है । प्रभु ने क्या काँपना ! हाँ , यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है और इस वर्णन से जितेन्द्रिय पुरुष की अद्भुत शक्ति का शंसन हो रहा है । महाभारत में वेदव्यास ने इसका चित्रण विश्वामित्र के नव - संसार के निर्माण के संकल्प की कथा में किया है । विश्वामित्र नया संसार ही बनाने के लिए उद्यत हो उठता है, तब जैसे - तैसे देवता उसे शान्त करते हैं । हाँ, यह सब होता तभी है जबकि (अर्चन् अनु स्वराज्यम ) = यह आत्मशासन की भावना का समादर करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष की शक्ति अद्भुत है । वह चराचर ब्रह्माण्ड को कम्पित करने में सक्षम है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तस्य किं कृत्यमस्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे अद्रिव इन्द्र ! यद्यदा ते तवाभिष्टने स्था जगच्च रेजते त्वष्टा सेनापतिस्तव मन्यवे ते भिया चिद्वेविज्यते तदा भवान् स्वराज्यमन्वर्चन् सुखी भवेत् ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभिष्टने) अभितः शब्दयुक्ते व्यवहारे (ते) तव (अद्रिवः) बहुमेघयुक्तसूर्य्यवत्सेनायुक्त (यत्) यदा (स्थाः) स्थावरम् (जगत्) जङ्गमम् (च) (रेजते) कम्पते (त्वष्टा) छेत्ता (चित्) अपि (तव) (मन्यवे) क्रोधाय (इन्द्र) राज्यधारक सभाद्यध्यक्ष (वेविज्यते) अत्यन्तं बिभेति सम्यक् (भिया) भयेन (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूर्यस्य योगेन प्राणिनः स्वस्वकर्मसु प्रवर्त्तन्ते, भूगोला यथानुक्रमं भ्रमन्ति, तथैव सभया प्रशासितस्य राज्यस्य योगेन सर्वे प्राणिनो धर्मेण स्वस्वव्यवहारे वर्त्तित्वा सन्मार्गेऽनुचलन्तीति वेद्यम् ॥ १४ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord ruler of the republic, dedicated to the freedom of the people and sovereignty of the state, when in the resounding fame and reverberations of your power, everything non-moving and everybody moving shines with brilliance, and the artists and technologists, Tvashtas of the nation, creators and makers of beautiful things, move with awe in homage to your spirit and passion for freedom and governance, then your dedication to the republic would be complete and wholly fulfilled.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What is the duty of Indra (President or King) is taught further in the 14th Mantra.

अन्वय:

O great King or President, whose realm is adorned with innumerable cloud-like mountains, when at thy awfully just dealing, all objects both movable and immovable tremble and even thy own mighty commander of army who never fails to put down thine enemies in battle becomes agitated with fear at thy indignation, do thou, then honour thy sovereign authority and feel happy

पदार्थान्वयभाषाः - (अभिष्टने) अभित: शब्दयुक्ते व्यवहारे । = In battles where there is noise all around. (त्वष्टा ) छेता = Destroyer or or piercer of enemies- Commander of the army.
भावार्थभाषाः - As by the presence of the sun all creatures engage themselves in their activities and the worlds revolve according to their due course, in the same manner, men should know that by the proper administration conducted by the Assembly or the council, they follow the right path.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की सूर्याच्या योगाने जसे प्राणी आपापले कर्म करतात व भूगोल आपापल्या कक्षेत भ्रमण करतात, तसे सभेने प्रशासित केलेल्या राज्याद्वारे सर्व माणसे धर्माने आपापल्या व्यवहारात राहून सन्मार्गाने चालतात. ॥ १४ ॥