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न वेप॑सा॒ न त॑न्य॒तेन्द्रं॑ वृ॒त्रो वि बी॑भयत्। अ॒भ्ये॑नं॒ वज्र॑ आय॒सः स॒हस्र॑भृष्टिराय॒तार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na vepasā na tanyatendraṁ vṛtro vi bībhayat | abhy enaṁ vajra āyasaḥ sahasrabhṛṣṭir āyatārcann anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। वेप॑सा। न। त॒न्य॒ता। इन्द्र॑म्। वृ॒त्रः। वि। बी॒भ॒य॒त्। अ॒भि। ए॒न॒म्। वज्रः॑। आय॒सः। स॒हस्र॑ऽभृष्टिः। आ॒य॒त॒। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:80» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:31» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापते ! (स्वराज्यमन्वर्चन्) अपने राज्य का सत्कार करता हुआ तू जैसे (वृत्रः) मेघ (वेपसा) वेग से (इन्द्रम्) सूर्य्य को (न विबीभयत्) भय प्राप्त नहीं करा सकता और वह मेघ गर्जन वा प्रकाश की हुई (तन्यता) बिजुली से भी भय को (न) नहीं दे सकता (एनम्) इस मेघ के ऊपर सूर्यप्रेरित (सहस्रभृष्टिः) सहस्र प्रकार के दाह से युक्त (आयसः) लोहा के शस्त्र वा आग्नेयास्त्र के तुल्य (वज्रः) वज्ररूप किरण (अभ्यायत) चारों ओर से प्राप्त होता है, वैसे शत्रुओं पर आप हूजिये ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मेघ आदि सूर्य्य को नहीं जीत सकते, वैसे ही शत्रु भी धर्मात्मा सभा और सभापति का तिरस्कार नहीं कर सकते ॥ १२ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

इन्द्र की निर्भीकता

पदार्थान्वयभाषाः - १. अध्यात्म - जीवन में वासनारूप शत्रु का महान् भय बना ही रहता है । यह वासना प्रद्युम्न - प्रकृष्ट बलवाली है - ‘मारः’ - यह असावधान पुरुष को तो मार ही डालनेवाली है, परन्तु जिस समय (अर्चन् अनु स्वराज्यम्) = एक पुरुष संयम की भावना का समादर करता है, उस समय (वृत्रः) = यह ज्ञान की आवरणभूत वासना (इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (न वेपसा) = न तो अपने कम्पनों और (न तन्यता) = न ही अपनी गर्जनाओं से (विबीभयत्) = भयभीत कर पाती है । संयमी पुरुष इस काम से डरता नहीं । काम का अभियान होने पर सब सुकृत पर्वत - कन्दराओं में जा छिपते हैं, परन्तु जब यह इन्द्र संयम की भावना को प्रधानता देता है तब यह वृत्र उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता । २. इन्द्र का भयभीत होना तो दूर रहा, इस काम की चेष्टाएँ व गर्जन होने पर इन्द्र का (आयसः) = लोहे का बना हुआ (सहस्रभृष्टिः) = शतशः धारोंवाला (वज्रः) = वज्र (एनं अभि) = इस वृत्र को लक्ष्य करके (आयत) = प्राप्त होता है । यह ‘आयस वज्र’ अनथक क्रियाशीलता ही है । एक व्यक्ति चलने में थकता नहीं तो कहते हैं - अरे भाई ! इसकी टाँगें तो मानो लोहे की बनी हुई हैं । इस प्रकार कर्म करते हुए भी न थकने पर यह कहा जाएगा कि - इसके हाथों में तो एक ‘आयसवज्र’ है । यह आसयवज्र शतशः वासनारूप शत्रुओं का नाश करने के कारण यहाँ सहस्त्रभृष्टि कहा गया है, हजारों धारों से शत्रुओं को नष्ट करनेवाला ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम अनथकरूप से क्रियाशील बनें । यह क्रियाशीलता ही वह वज्र बनेगी जो वासनारूप शत्रुओं का दलन करेगी ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सभाध्यक्ष ! स्वराज्यमन्वर्चंस्त्वं यथा वृत्र इन्द्रं वेपसा न विबीभयत् तन्यता न विबीभयदेनं मेघं प्रति सूर्यप्रेरितः सहस्रभृष्टिरायसो वज्रोऽभ्यायत तथा शत्रून् प्रति भव ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधार्थे (वेपसा) वेगेन (न) निषेधे (तन्यता) तन्यतुना गर्जनेन शब्देन। अत्र सुपां सुलुगिति डादेशः। (इन्द्रम्) सभाद्यध्यक्षम् (वृत्रः) मेघ इव शत्रुः (वि) विशेषे (बीभयत्) भयितुं शक्नोति (अभि) आभिमुख्ये (एनम्) शत्रुं पर्जन्यं वा (वज्रः) शस्त्रसमूहः किरणसमूहो वा (आयसः) अयसा निष्पन्नस्तेजोमयो वा (सहस्रभृष्टिः) सहस्रमसंख्याता भृष्टयः पीडा दाहा वा यस्मात् सः (आयत) समन्ताद्धन्ति। अत्र यमो गन्धने। (अष्टा०१.२.१५) [इति सिचः कित्त्वम्, कित्त्वादनुनासिकलोपः] (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मेघादयः सूर्यस्य पराजयं कर्तुं न शक्नुवन्ति, तथैव शत्रवो धार्मिकौ सभाद्यध्यक्षौ परिभवतिुन्न शक्नुवन्ति ॥ १२ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Neither by thunder nor by lightning can Vrtra, the cloud, terrorize Indra, the sun. Similarly neither by force nor by fear can the forces of evil, injustice and violence shake Indra, the ruler, who is dedicated with faith and reverence to the freedom and self-government of the people and the republic. Instead, the thunderbolt of inviolable steel and a hundred-fold lightning blaze overwhelms this demon of destructive forces from all round.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is Indra is taught further in the 12th Mantra.

अन्वय:

(Indra) O President of the council of Ministers, or King! welcoming thy royal authority thou shouldst behave towards thy enemies just like the sun whom the cloud can not frighten either by its quick movement or by its roaring thunder, but who attacks the latter from all sides with his hot rays like steel missales emitting fire and burning in a thousand ways.

पदार्थान्वयभाषाः - (तन्यता) तन्यतुना गर्जनेन- शब्देन = By the thunder. (सहस्रभृष्टिः) सहस्रम् असंख्याताः भृष्टयः पीडा दाहा वा यस्मात् । = Giving pin and burning in various ways. (आयत) समन्तात् हन्ति = Completely shatters.
भावार्थभाषाः - As the clouds etc. cannot defeat the sun. in the same manner, enemies cannot vanquish the President of the Assembly and the council.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मेघ इत्यादी सूर्याचा पराभव करू शकत नाहीत तसेच शत्रूही धर्मात्मा, सभा व सेनापतीचा कधी अनादर करू शकत नाहीत. ॥ १२ ॥