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यदी॑मृ॒तस्य॒ पय॑सा॒ पिया॑नो॒ नय॑न्नृ॒तस्य॑ प॒थिभी॒ रजि॑ष्ठैः। अ॒र्य॒मा मि॒त्रो वरु॑णः॒ परि॑ज्मा॒ त्वचं॑ पृञ्च॒न्त्युप॑रस्य॒ योनौ॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad īm ṛtasya payasā piyāno nayann ṛtasya pathibhī rajiṣṭhaiḥ | aryamā mitro varuṇaḥ parijmā tvacam pṛñcanty uparasya yonau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् ई॒म्। ऋ॒तस्य॑। पय॑सा। पिया॑नः। नय॑न्। ऋ॒तस्य॑। प॒थिऽभिः॑। रजि॑ष्ठैः। अ॒र्य॒मा। मि॒त्रः। वरु॑णः। परि॑ऽज्मा। त्वच॑म्। पृ॒ञ्च॒न्ति॒। उप॑रस्य। योनौ॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:79» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (ऋतस्य) उदक के (पयसा) रस को (पियानः) पीनेवाला (रजिष्ठैः) अत्यन्त धूलीयुक्त (पथिभिः) मार्गों से (उपरस्य) मेघ के (योनौ) कारणरूप मण्डल में (ईम्) जल को (नयन्) प्राप्त करता हुआ (अर्यमा) नियन्ता (सूर्यः) (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान और (परिज्मा) सब ओर से जाने-आनेवाला जीव (ऋतस्य) सत्य के (त्वचम्) त्वचा रूप उपरिभाग को (पृञ्चन्ति) सम्बन्ध करते हैं, तब सब का जीवन सम्भव होता है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जब कार्य्य और कारण में रहनेवाले प्राण और जलादि पदार्थों के साथ जीव सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, तब शरीरों के धारण करने को समर्थ होते हैं ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मूल स्थान में पहुँचने का मार्ग

पदार्थान्वयभाषाः - १. (यत्) = जब मनुष्य (ईम्) = निश्चय से (ऋतस्य) = सत्यविद्याओं की कोशभूत वेदवाणीरूप गौ के (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (पियानः) = अपना आप्यायन करता है और अपने को (ऋतस्य) = सत्य व यज्ञ के (रजिष्ठैः) = ऋजुतम, छल - छिद्र से शून्य (पथिभिः) = मार्गों से (नयन्) = ले - चलता है । २. तो (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] कामादि शत्रुओं का नियन्त्रण करनेवाला, (मित्रः) = सबके साथ स्नेह करनेवाला, (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाला (परिज्मा) = [परितः गन्ता] सब क्षेत्रों में अपने कर्तव्य का पालन करनेवाला - ये सब (उपरस्य योनौ) = धर्ममेघ के उत्पत्ति - स्थान में (त्वचं पृञ्चन्ति) = स्पर्श को प्राप्त करते हैं, अर्थात् मस्तिष्करूप द्युलोक में - ‘सहस्त्रारचक्र’ के स्थिति - स्थान में ये अपने प्राणों का निरोध करते हैं । यही समाधि की स्थिति है । इस स्थिति में ही प्रभुदर्शन होता है और उस आनन्द का अनुभव होता है जो वाणी के वर्णन का विषय नहीं बनता । ३. ‘त्वचं’ शब्द ही अंग्रेजी में Touch [टच] रूप में मिलता है, ‘पृच्’ धातु सम्पर्क अर्थवाली है । इस प्रकार धर्ममेघ समाधि की स्थिति में, इस मेघ के मूलस्थान में पहुँचने का मार्ग यही है कि [क] सत्यज्ञान प्राप्त किया जाए, [ख] सरल मार्ग से चला जाए, [ग] कामादि का वशीकरण हो, [घ] सबके प्रति स्नेह की भावना हो, [ङ] द्वेष न हो तथा [च] अपने कर्तव्यों के करने में प्रमाद व आलस्य न होकर जीवन स्फूर्तिमय हो । इन्हीं बातों को यम - नियमों में समाविष्ट किया गया है । इनपर चलते हुए और इनपर चलने के लिए प्राणयामादि के द्वारा इन्द्रियों व मनोनिरोध के द्वारा ही हम इस सर्वोच्च स्थिति में, ब्राह्मीस्थिति में पहुँच पाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ब्राह्मीस्थिति में पहुँचने का मार्ग यह है - ‘ज्ञान, सरलता, संयम, स्नेह, अद्वेष व क्रियाशीलता’ । इन बातों को जीवन में लाने के लिए ही आसन - प्राणायामादि योगाङ्गों का अनुष्ठान हुआ करता है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यदृतस्य पयसा पियानो रजिष्ठैः पथिभिरुपरस्य योनावीं नयन्नर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा चर्त्तस्य त्वचं पृञ्चन्ति तदा सर्वेषां जीवनं संभवति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा (ईम्) प्राप्तव्यं सुखम् (ऋतस्य) उदकस्य (पयसा) रसेन (पियानः) पिबन् (नयन्) प्राप्नुवन् (ऋतस्य) सत्यस्य (पथिभिः) मार्गैः (रजिष्ठैः) अतिशयेन रजस्वलैः (अर्यमा) नियन्ता सूर्य्यः (मित्रः) प्राणः (वरुणः) उदानः (परिज्मा) यः परितः सर्वतो गच्छति स जीवः (त्वचम्) त्वगिन्द्रियम् (पृञ्चन्ति) सम्बध्नन्ति (उपरस्य) मेघस्य (योनौ) निमित्ते मेघमण्डले ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - यदा कार्यकारणस्थैः प्राणजलादिभिः सह जीवाः सम्बन्धमाप्नुवन्ति तदा शरीराणि धर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When the sun drinking and waxing with the vapours of water takes these up by the straightest and speediest paths, then Aryama, the sunlight, Mitra and Varuna, complementary energies of the sun holding the earth and skies together, and Parijman, winds and electric energies in the higher space, create the body of the cloud.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is Agni is taught further in the third Mantra.

अन्वय:

When the sun, Prana, Udana and the soul, touch the external part with the Sap of the water and with the shining paths of truth, then all get life.

पदार्थान्वयभाषाः - (ईम्) प्राप्तव्यं सुखम् = Happiness that is to be attained. (ऋतस्य) उदकस्य, सत्यस्य ऋतम् इति उदकनाम (निघ० १. १२ ) ऋतम् इति सत्यनाम (निघ० ३.१० ) (उपरस्य ) मेघस्य (उपर इति मेघनाम निघ० १.१०)
भावार्थभाषाः - When souls get contact with the Prana and water etc. as cause and effect, they can assume bodies.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा कार्य कारणात असणाऱ्या प्राण व जल इत्यादी पदार्थांचा जीवांशी संबंध येतो तेव्हा ते शरीरांना धारण करण्यास समर्थ होतात. ॥ ३ ॥