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आ ते॑ सुप॒र्णा अ॑मिनन्तँ॒ एवैः॑ कृ॒ष्णो नो॑नाव वृष॒भो यदी॒दम्। शि॒वाभि॒र्न स्मय॑मानाभि॒रागा॒त्पत॑न्ति॒ मिहः॑ स्त॒नय॑न्त्य॒भ्रा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā te suparṇā aminantam̐ evaiḥ kṛṣṇo nonāva vṛṣabho yadīdam | śivābhir na smayamānābhir āgāt patanti mihaḥ stanayanty abhrā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। ते॒। सु॒ऽप॒र्णाः। अ॒मि॒न॒न्त॒। एवैः॑। कृ॒ष्णः। नो॒ना॒व॒। वृ॒ष॒भः। यदि॑। इ॒दम्। शि॒वाभिः॑। न। स्मय॑मानाभिः। आ। अ॒गा॒त्। पत॑न्ति। मिहः॑। स्त॒नय॑न्ति। अ॒भ्रा ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:79» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप जैसे (सुपर्णाः) किरणें (आमिनन्त) सब ओर से वर्षा की प्रेरणा करती हैं (एवैः) प्राप्त करनेवाले गुणों से सहित (कृष्णः) आकर्षण करता (वृषभः) वर्षानेवाला सूर्य (इदम्) जल को वर्षाता है, वैसे विद्या की (नोनाव) प्रशंसित वृष्टि करें तथा (स्मयमानाभिः) सदा प्रसन्नवदन (शिवाभिः) शुभ गुण, कर्म्मयुक्त कन्याओं के साथ तत्तुल्य ब्रह्मचारियों के विवाह के (न) समान सुख को (यदि) जो (अगात्) प्राप्त हो और जैसे (अभ्रा) मेघ (स्तनयन्ति) गर्जते तथा (मिहः) वर्षा के जल (आ पतन्ति) वर्षते हैं, वैसे विद्या को वर्षावे तो (ते) तुझको क्या अप्राप्त हो, अर्थात् सब सुख प्राप्त हों ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार और उपमालङ्कार हैं। जिन विद्वान् ब्रह्मचारियों की विदुषी ब्रह्मचारिणी स्त्री हों, वे पूर्ण सुख को क्यों न प्राप्त हों ॥ २ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वृष्टि व गर्जन

पदार्थान्वयभाषाः - १. (सुपर्णाः) = उत्तम पालन व पूरणादि कर्मोंवाले (ते) = वे प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष (एवैः) = क्रियाशीलताओं के द्वारा (आ, अमिनन्त) = व्यापक ज्ञान को प्राप्त कराते हैं [मि - to measure, obsreve, perceive] । ज्ञानप्राप्ति के लिए वस्तुतः यह आवश्यक है कि [क] वासनाओं से अपने को बचाया जाए, मन में ईर्ष्या - द्वेषादि मलिनताओं को न आने दिया जाए [सुपर्णाः], [ख] दूसरी आवश्यक बात यह है कि जीवन क्रियामय हो, आलस्यशून्यता नितान्त आवश्यक है [एवैः] । वासनाशून्यता और क्रियाशीलता के बिना ज्ञानप्राप्ति सम्भव ही नहीं । २. (कृष्णः) = संसार के रंग में अपने को न रंगनेवाला, निर्लेप (वृषभः) = शक्तिशाली पुरुष ही (नोनाव) = प्रभु का स्तवन करता है । प्रभु की वास्तविक स्तुति यही है कि हम संसार में आसक्त न हो जाएँ और अपनी शक्ति को क्षीण न होने दें । ३. प्रभु कहते हैं कि (यदि इदम्) = यदि तेरे जीवन में यह बात आ जाए तो (शिवाभिः) = कल्याणकारी (न) = [न इति चार्थे] और (स्मयमानाभिः) = मुस्कुराहटवाली वाणियों से (आगात्) = तू हमारे समीप आ । प्रभु - प्राप्ति उसी को होती है जो शुभ व प्रसन्नतादायक वाणी का ही उच्चारण करता है । ४. इस प्रकार प्रभु का उपासन होने पर (मिहः पतन्ति) = धर्ममेघ समाधि में आनन्द की वृष्टियाँ होती है और (अभ्रा स्तनयन्ति) = हृदयान्तरिक्ष में प्रभु की वाणीरूप बादल की गर्जना होती हैं, प्रभु की प्रेरणा सुस्पष्ट सुनाई पड़ती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभुप्राप्ति के लिए वासनाशून्यता, क्रियाशीलता, निर्लेपता व शक्तिशालिता की आवश्यकता है । प्रभु का उपासक शुभ वाणी ही बोलता है । उपासना की सिद्धि होने पर ही आनन्द की वृष्टि होती है और प्रभुप्रेरणा सुस्पष्ट रूप से सुन पड़ती है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यो सुपर्णाः आमिनन्तैवैः कृष्णो वृषभ इदमिव नोनाव यथा स्मयमानाभिः शिवाभिर्नेव यद्यगाद् यथाऽभ्रास्ते नयन्ति मिह आपतन्ति तथा विद्या वर्षेत् तर्हि तस्य ते तव किमप्राप्तं स्यात् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (ते) तव (सुपर्णाः) किरणाः। सुपर्ण इति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अमिनन्त) प्रक्षिपन्ति (एवैः) प्रापकैर्गुणैः (कृष्णः) आकर्षणकर्त्ता (नोनाव) अत्यन्तप्रशंसितः (वृषभः) वृष्टिहेतुः सूर्य्यः (यदि) चेत् (इदम्) जलम्। इदमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (शिवाभिः) कल्याणकारिकाभिः कन्याभिः (न) इव (स्मयमानाभिः) किञ्चिद्धासकारिकाभिः (आ) अभितः (अगात्) प्राप्नोति (पतन्ति) उपरिष्टादधः (मिहः) वृष्टयः (स्तनयन्ति) शब्दयन्ति (अभ्रा) अभ्राणि ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येषां ब्रह्मचारिणां ब्रह्मचारिण्यः स्त्रियः स्युस्ते सुखं कथन्न लभेरन् ॥ २ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, if your golden sunbeams were to expand with their forces across the spaces, and if the sun holding the skies and the earth were to break the cloud pregnant with vapours, the cloud would roar and showers would fall, coming to the earth as if with smiling blissful breezes of joy.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

अन्वय:

O learned persons, as the rays of the sun with winds induce the rain and the sun which has attractive power and is the cause of rain, showers the waters, in the same manner, young men who are attractive and virile, shower knowledge and happiness and when they approach auspicious smiling maidens, why should not be there the rain of knowledge and happiness as when the clouds thunder and the rain descends?

पदार्थान्वयभाषाः - (सुपरर्णा:) किरणा: सुपर्णा इति रश्मिनाम (निघ० १.५) = The rays of the sun. (एव:) प्रापकैर्गुणैः = With attributes that cause happiness. इदम् इत्युदकनाम (निघ० १.२ ) = Water. (कृष्ण:) आकर्षणकर्ता सूर्य:- = The sun with power of attraction.
भावार्थभाषाः - Why should not those Brahamacharis enjoy happiness who get in marriage Brahamacharinis who have observed perfect continence and are chaste ?
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार व उपमालंकार आहेत. विद्वान ब्रह्मचाऱ्याला विदुषी ब्रह्मचारिणी पत्नी मिळाल्यास त्याला पूर्ण सुख का प्राप्त होणार नाही? ॥ २ ॥