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स॒ह॒स्रा॒क्षो विच॑र्षणिर॒ग्नी रक्षां॑सि सेधति। होता॑ गृणीत उ॒क्थ्यः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sahasrākṣo vicarṣaṇir agnī rakṣāṁsi sedhati | hotā gṛṇīta ukthyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षः। विऽच॑र्षणिः। अ॒ग्निः। रक्षां॑सि। से॒ध॒ति॒। होता॑। गृ॒णी॒ते॒। उ॒क्थ्यः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:79» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:28» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (उक्थ्यः) स्तुति करने योग्य (सहस्राक्षः) असंख्य नेत्रों की सामर्थ्य से युक्त (विचर्षणिः) साक्षात् देखनेवाला (होता) अच्छे-अच्छे विद्या आदि पदार्थों को देनेवाला (अग्निः) परमेश्वर (रक्षांसि) दुष्ट कर्म वा दुष्ट कर्मवाले प्राणियों को (सेधति) दूर करता है और वेदों का (गृणीते) उपदेश करता है, वैसे तू हो ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर वा विद्वान् जिन कर्मों के करने की आज्ञा देवे उनको करो और जिनका निषेध करे उनको छोड़ दो ॥ १२ ॥ इस सूक्त में अग्नि ईश्वर और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इसके अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सहस्राक्ष अग्नि

पदार्थान्वयभाषाः - १. (सहस्राक्षः) = अनन्त ज्ञान - चक्षुओंवाले (विचर्षणिः) = विशेषेण सबके द्रष्टा, सबका ध्यान करनेवाले (अग्निः) = अग्रगति के साधक वे प्रभु (रक्षांसि) = हमारी सब राक्षसीवृत्तियों को - आसुर भावनाओं को (सेधति) = हमसे दूर करते हैं । प्रभु हमें ज्ञान देते हैं, हृदयस्थ होते हुए अशुभ कर्मों से बचने के लिए प्रेरित करते हैं, सदा शुभमार्ग पर चलने के लिए उत्साहित करते हैं । ये (होता) = उन्नति के लिए सब आवश्यक वस्तुओं के देनेवाले प्रभु (उक्थ्यः) = स्तोत्रों से स्तुति करने के योग्य हैं और हमसे स्तुति किये जाने योग्य ये प्रभु (गृणीते) = हमें ज्ञान की वाणियों का उपदेश देते हैं । प्रभु ही आद्य गुरु है - ‘स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्’ [पा०यो सू०] । इनके रक्षण में ही हम कल्याणकारक ज्ञान प्राप्त करते हैं । उत्तम गुरुओं का मिलना भी प्रभुकृपा से ही होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - वे प्रभु सहस्राक्ष, विचर्षणि व अग्नि हैं । वे ही सब राक्षसी वृत्तियों को दूर करते हैं ।
टिप्पणी: विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि राजसवृत्ति को दूर हटाने के लिए हम हितरमणीय ज्ञान की ज्वालाओंवाले बनें [१] । प्रभुप्राप्ति के लिए वासनाओं से ऊपर उठे [३] । ‘अर्यमा, मित्र, वरुण व परिज्मा’ बनें [३] । महनीय ज्ञान को प्राप्त करें [४] । हमारा धन ज्ञान से युक्त हो [५] । प्रभु की शक्ति से हम रक्षोदहन करनेवाले हों [६] । प्रभुवन्दन हमें ज्ञानप्राप्ति में सफल करे [७] । वरेण्य धन की हमें प्राप्ति हो [८] । यह धन विश्वायुपोषस् हो [९] । हम पवित्र वचनों व स्तुति - वाणियों से प्रभु का आराधन करें [१०] । विघ्न दूर हों और आगे बढ़ें [११] । वे हृदयस्थ प्रभु हमारे गुरु हों, उपदेष्टा हों [१२] । हम स्वराज्य आत्मराज्य की भावना का आदर करें इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथोक्थ्यः सहस्राक्षो विचर्षणिर्होताग्नी रक्षांसि सेधति निषेधति वेदान् गृणीते तथा त्वं भव ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्राक्षः) सहस्राण्यक्षीणि यस्मिन् सः (विचर्षणिः) साक्षाद् द्रष्टा (अग्निः) यथा परमेश्वरस्तथा विद्वान् (रक्षांसि) दुष्टानि कर्माणि दुष्टस्वभावान् प्राणिनः (सेधति) दूरीकरोति (होता) दाता (गृणीते) उपदिशति (उक्थ्यः) स्तोतुमर्हः ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं परमेश्वरो विद्वान् वा यानि कर्माणि कर्त्तुमुपदिशति तानि कर्त्तव्यानि यानि निषेधति तानि त्यक्तव्यानि इति विजानीत ॥ १२ ॥ अत्राऽग्निविद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, lord of a thousand eyes (such as the sun), lord of universal vision, dispels and destroys the evil, the demons, darkness and suffering and poverty. High- priest of cosmic yajna, he is adorable and reveals the voice of omniscience in the soul.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is Agni is taught further in the 12th Mantra.

अन्वय:

O learned person ! As God who is praiseworthy, in whom are all the thousands of eyes of all creatures, All-beholding or Omniscient, Giver of peace drives away all Rakshasas i.e. evil actions and evil minded persons and imparts the knowledge of the Vedas, thou should also be like Him. An admirable wiseman also follows and obeys God in giving knowledge to all.

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्राक्षः) सहस्रारिण अक्षीणि यस्मिन्- = All-pervading, in whom are all the eyes of all tures. (रक्षसान्) दुष्टानि कर्माणि दुष्टस्वभावान् प्राणिनः । (सेधति) दूरीकरोति । = Drives away.
भावार्थभाषाः - O men! You should know that God devoted to Him tell us the deeds that are to be done (our duties and also all that should not be done, (sins and evils). You should act according to those instructions given in the Vedas.
टिप्पणी: Here ends the 79th hymn and 28th Varga of the first Mandala of the Rigveda. It has connection with the previous hymn as there is mention of Agni, attributes of God and learned persons on this as in the previous hymn.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वर व विद्वान जे कर्म करण्याची आज्ञा देतात ते करा व ज्याचा निषेध असेल त्याचा त्याग करा. ॥ १२ ॥