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गर्भो॒ यो अ॒पां गर्भो॒ वना॑नां॒ गर्भ॑श्च स्था॒तां गर्भ॑श्च॒रथा॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

garbho yo apāṁ garbho vanānāṁ garbhaś ca sthātāṁ garbhaś carathām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गर्भः॑। यः। अ॒पाम्। गर्भः॑। वना॑नाम्। गर्भः॑। च॒। स्था॒ताम्। गर्भः॑। च॒रथा॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:70» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो जगदीश्वर वा जीव (अपाम्) प्राण वा जलों के (अन्तः) बीच (गर्भः) स्तुतियोग्य वा भीतर रहनेवाला (वनानाम्) सम्यक् सेवा करने योग्य पदार्थ वा किरणों में (गर्भः) गर्भ के समान आच्छादित (अद्रौ) पर्वत आदि बड़े-बड़े पदार्थों में (चित्) भी गर्भ के समान (दुरोणे) घर में गर्भ के समान (विश्वः) सब चेतन तत्त्वस्वरूप (अमृतः) नाशरहित (स्वाधीः) अच्छे प्रकार पदार्थों का चिन्तन करनेवाला (विशाम्) प्रजाओं के बीच आकाश वायु के (न) समान बाह्य देशों में भी सब दिव्य गुण कर्मयुक्त व्रतों को (अश्याः) प्राप्त होवे, (अस्मै) उसके लिये सब पदार्थ हैं, उसका (आ वनेम) सेवन करें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। पूर्व मन्त्र से (अश्याः) (वनेम) (विश्वानि) (दैव्यानि) (व्रता) इन पाँच पदों की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के विना कोई भी वस्तु अव्याप्त नहीं है और चेतनस्वरूप जीव अपने कर्म के फल भोग से एक क्षण भी अलग नहीं रहता। इससे उस सबमें अभिव्याप्त अन्तर्य्यामी ईश्वर को जानकर सर्वदा पापों को छोड़ कर धर्मयुक्त कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिये। जैसे पृथिवी आदि कार्यरूप प्रजा अनेक तत्त्वों के संयोग से उत्पन्न और वियोग से नष्ट होती है, वैसे यह ईश्वर जीव कारणरूप आदि वा संयोग-वियोग से अलग होने से अनादि है, ऐसा जानना चाहिये ॥ २ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

चराचर में व्यापक प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - १. (यः) = जो प्रभु (अपां गर्भः) = सब प्रजाओं के मध्य में अवस्थित हैं और (वनानाम्) = ज्ञानरश्मियों के (गर्भः) = मध्य में स्थित हैं । सब प्रजाओं के मध्य में, उनके हृदयों में स्थित हुए - हुए उनको ज्ञान देनेवाले हैं ।  २. वे प्रभु (स्थाताम्) = स्थावर पदार्थों के (गर्भः) = मध्य में स्थित है (च) = तथा (चरथां गर्भः) = जंगम पदार्थों के भी मध्य में स्थित हैं । इस चराचर सम्पूर्ण जगत् में वे प्रभु व्याप्त हैं ।  ३. (अस्मै) = गत मन्त्र में वर्णित उपासक के लिए वे प्रभु (अद्रौ चित अन्तः) = पर्वत के अन्दर भी विद्यमान हैं और (दुरोणे) = गृह में भी व्याप्त हैं । क्या पर्वतों में और क्या घरों में, सर्वत्र यह प्रभु की महिमा को देखता है ।  ४. (विशां न विश्वः) = [न इति चार्थे] सब प्रजाओं का वे प्रभु निवासस्थान हैं । “विशन्ति भूतानि यस्मिन् सर्वेषु विशतीति वा” - सब प्रजाओं में वे प्रभु प्रविष्ट हैं और सब प्रजाएँ उसी में निविष्ट हैं । (अमृतः) = वे प्रभु अमृत हैं, सब उपासकों को अमृतत्व प्राप्त करानेवाले हैं और (स्वाधीः) = उत्तम ध्यान व कर्म से युक्त हैं । सब प्राणियों का ध्यान करते हैं और उनके कल्याण के लिए सब आवश्यक कर्मों को करनेवाले हैं [धी - ज्ञान व कर्म] । प्रभु के न ज्ञान में कमी है, न कर्म में । इस प्रभु का ही हम भजन करनेवाले बनें ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम सर्वव्यापक, अमृत, सर्वज्ञ प्रभु की उपासना करें । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यो जगदीश्वरो जीवो वा यथाऽपामन्तर्गर्भो वनानामन्तर्गर्भः स्थातामन्तर्गर्भश्चरथामन्तर्गर्भोऽद्रौ चिदन्तर्गर्भो दुरोणेऽन्तर्गर्भो विश्वोऽमृतः स्वाधीर्विशा प्रजानामन्तराकाशोऽग्निर्वायुर्नेव सर्वेषु च बाह्यदेशेष्वपि विश्वानि दैव्यानि व्रतान्यश्या व्याप्तोऽस्त्यस्मै सर्वे पदार्थाः सन्ति तं वयं वनेम ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (गर्भः) स्तोतव्योऽन्तःस्थो वा (यः) परमात्मा जीवात्मा वा (अपाम्) प्राणानां जलानां (गर्भः) गर्भ इव वर्त्तमानः (वनानाम्) संभजनीयानां पदार्थानां रश्मीनां वा (गर्भः) गूढ इव स्थितः (च) समुच्चये (स्थाताम्) स्थावराणाम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति तुक्। (गर्भः) गर्भ इवावृतः (चरथाम्) जङ्गमानाम्। अत्र वाच्छन्दसीति नुडागमाभावः। (अद्रौ) शैलादो घने पदार्थे (चित्) अपि (अस्मै) जगदुपकाराय कर्मभोगाय वा (अन्तः) मध्ये (दुरोणे) गृहे (विशाम्) प्रजानाम् (न) इव (विश्वः) अखिलश्चेतनस्वरूपः (अमृतः) अनुत्पन्नत्वान्नाशरहितः (स्वाधीः) यः सुष्ठु समन्ताद् ध्यायति सर्वान् पदार्थान् सः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। (अश्याः) (वनेम) (विश्वानि) (दैव्यानि) (व्रता) इति पञ्चपदानां पूर्वस्मान्मन्त्रादनुवृत्तिश्च। मनुष्यैर्नहि चिन्मयेन परमेश्वरेण विना किंचिदपि वस्त्वव्याप्तमस्ति। नहि चिन्मयो जीवः स्वकर्मफलभोगविरह एकक्षणमपि वर्त्तते तस्मात्तं सर्वाभिव्याप्तमन्तर्यामिणं विज्ञाय सर्वदा पापकर्माणि त्यक्त्वा धर्म्यकार्य्येषु प्रवर्त्तितव्यम्। यथा पृथिव्यादिककार्य्यरूपाः प्रजा अनेकेषां तत्त्वानां संयोगेनोत्पन्ना वियोगेन विनष्टाश्च भवन्ति तथैष ईश जीवकारणाख्या अनादित्वात् संयोगविभागेभ्यः पृथक्त्वादनादयो सन्तीति वेदितव्यम् ॥ २ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni abides at the heart of the waters and the pranic energies of the universe. It is at the heart of forests, sunbeams and all the lovely and beloved beauties of the world. It is at the heart of all that is still and all that moves. It abides in the cloud and in the mountain and it is the centre of the homes of people. Universal, immortal, free and absolute, it is the very life and ruler of everything in nature as it is the life and ruler of all the people for their sake only.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is he (Agni) is taught further in the second mantra.

अन्वय:

Let us worship God who is adorable and with in the waters and Pranas, within forests and rays of the sun and the moon, within all movable and immovable things within the mountains and within the mansions being Omnipresent. He is perfect, Immortal Lord of the subjects, performing always noble deeds like the creation and preservation of the world and Omniscient. He is the controller of all objects.

पदार्थान्वयभाषाः - (गर्भ:) स्तोतव्योऽन्तःस्थोवा = Adorable and within. (विश्व:) अखिल: चेतनस्वरूप:= Perfect and conscious. (स्वाधी:) य: सुष्ठु समन्ताद् ध्यायति सर्वान् पदार्थान् स: = He who knows all things well, Omniscient
भावार्थभाषाः - Men should know that there is nothing that is not. pervaded by the conscious Supreme Being or God. The soul cannot remain even for a moment without doing an act or getting its fruit. Therefore a man should always engage himself in doing righteous deeds by giving up all evils.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी हे जाणावे की जो परमेश्वर (किंवा विद्वान) वेदाद्वारे अंर्तयामी रूपाने व उपदेशाद्वारे माणसांना सर्व विद्या देतो. त्या परमेश्वराची उपासना व (विद्वानांचा) सत्संग करावा. ॥ ३ ॥