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सा॒धुर्न गृ॒ध्नुरस्ते॑व॒ शूरो॒ याते॑व भी॒मस्त्वे॒षः स॒मत्सु॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sādhur na gṛdhnur asteva śūro yāteva bhīmas tveṣaḥ samatsu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सा॒धुः। न। गृ॒ध्नुः। अस्ता॑ऽइव। शूरः॑। याता॑ऽइव। भी॒मः। त्वे॒षः। स॒मत्ऽसु॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:70» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:11 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जो (गृध्नुः) दूसरे के उत्कर्ष की इच्छा करनेवाले (साधुः) परोपकारी मनुष्य के (न) समान (अस्ताइव) शत्रुओं के ऊपर शस्त्र पहुँचानेवाले (शूरः) शूरवीर के समान (भीमः) भयङ्कर (यातेव) तथा दण्ड प्राप्त करनेवाले के समान (समत्सु) संग्रामों में (त्वेषः) प्रकाशमान परमेश्वर वा सभाध्यक्ष है, उसका नित्य सेवन करो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम लोग परमेश्वर वा धर्मात्मा विद्वान् को छोड़ कर शत्रुओं को जीतने और दण्ड देने तथा सुखों का बढ़ानेवाला अन्य कोई अपना राजा नहीं है, ऐसा निश्चय करके सब लोग परोपकारी होके सुखों को बढ़ाओ ॥ ६ ॥ । इस सूक्त में ईश्वर, मनुष्य और सभा आदि अध्यक्ष के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त की पूर्वसूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अध्यात्म - सम्पत्ति

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहा था कि ज्ञानी पुरुष कर्मों के द्वारा प्रभु का उपासन करता हुआ अध्यात्म - सम्पत्ति को प्राप्त करता है । प्रस्तुत मन्त्र में उस अध्यात्म - सम्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार हुआ है - यह व्यक्ति (साधुः) = [साध्नोति परकार्यम्] सदा परहित को सिद्ध करनेवाला होता है । “परोपकाराय सतां विभूतयः” - इस उक्ति के अनुसार इसके ऐश्वर्य परोपकार के लिए ही होते हैं । (न गृध्नुः) = यह धनों में लालचवाला नहीं होता । धन में लालच होने पर उनका परोपकार में विनियोग सम्भव नहीं रहता । (अस्ता इव) = यह लोकहित के लिए इन धनों को ‘असु क्षेपणे’ क्षिप्त करनेवाला होता है । अपनी आवश्यकताओं को फेंकता जाता है, कम और कम करता जाता है और इस प्रकार लोकहित के कार्यों में धन देनेवाला हो पाता है । (शूरः) = यह दानशूर होता है । धन के उचित विनियोग से दुःखियों के दुःख को शीर्ण करनेवाला होता है । २. (याता इव) = यह सदा आक्रान्ता की भाँति बना रहता है । कष्टों व बुराइयों के साथ सदा इसका युद्ध चलता है । यह उस युद्ध में बुराइयों पर प्रबल आक्रमण करता है और (भीमः) = शत्रुओं के लिए भयंकर होता है । इन (समत्सुः) = संग्रामों में यह (त्वेष) = खूब (दीप्त) = चमकवाला होता है । इन युद्धों में यह पूर्ण उत्साहवाला होता है । लोककष्टों से संग्राम करता हुआ यह अधिक - से - अधिक चमकता है । यह ‘सर्वभूतहितेरतार्थ’ ही तो अध्यात्म - सम्पत्ति की पराकाष्ठा है । यह औरों के लिए जीता है, इसकी अपनी कोई आवश्यकता नहीं होती ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - साधुत्व, अलोलुपता, त्याग, शूरवीरता, बुराइयों पर आक्रमण, शत्रु के लिए भयंकरता, संग्राम - दीप्ति - ये सब मिलकर अध्यात्म - सम्पत्ति कहलाती हैं ।
टिप्पणी: विशेष - हम अग्नि व सुशोक प्रभु का उपासन करें [१] । वे प्रभु चराचर में व्यापक हैं [२] । क्षपावान् व रयिप्रदाता हैं [३] । प्रभु का सच्चा उपासक कों में सत्यता लाता है [४] । ज्ञानपूर्वक कर्मों को करता हुआ उन्हें प्रभु के प्रति अर्पण करता हैं [५] । परहित में लगा रहकर यह अध्यात्म - सम्पत्ति का सञ्चय करता है [६] । हम प्रभुरूप पति की कामना करनेवाले हों - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यो गृध्नुः साधुर्नास्ताइव शूरो भीमो यातेव समत्सु त्वेषः परमेश्वरः सभाध्यक्षोऽस्ति तं नित्यं सेवध्वम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (साधुः) यः परोपकारी परकार्याणि साध्नोति सः (न) इव (गृध्नुः) परोत्कर्षाभिकाङ्क्षकः (अस्ताइव) तथा शस्त्राणां प्रक्षेप्ता (शूरः) शूरवीरः (यातेव) यथा दण्डप्रापकः (भीमः) बिभेति यस्मात्स भयङ्करः (त्वेषः) त्वेषति प्रदीप्तो भवति सः (समत्सु) संग्रामेषु ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! परमेश्वरं धार्मिकं विद्वांसं सभाद्यध्यक्षं च विहाय कश्चिदन्यः स्वेषां राजा शत्रुविजेता दण्डप्रदाता सुखाभिवर्धको नैवाऽस्तीति निश्चित्य सर्वाणि परोपकृतानि सुखान्यभिवर्धयत ॥ ६ ॥ अत्रेश्वरमनुष्यसभाद्यध्यक्षाणां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Immensely loving, generous and venerable as a saint, heroic like a brave archer, terrible like the dispenser of punishment, and blazing and brilliant in the battles of life: such is Agni, light, life and might of the world.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is Agni (President of the Assembly is taught in the 6th Mantra.

अन्वय:

(1) O men, you should ever serve and adore God who like a benevolent person always desires the progress of His subjects, who like the caster of arms is the remover of the miseries of His devotees, who like the fierce King attacking the unjust wicked persons is the victor of all ignorance and being Resplendent is to be realised on the occasions of the soul's communion with Himself. (2) The President of the Assembly or the commander of the Army who is accomplisher of good deeds, is the well-wisher of all the brave and caster of arms over his enemies in the battles, should always be served by all.

पदार्थान्वयभाषाः - (साधुः) यः परोपकारी परकार्याणि साघ्नोति सः = A benevolent person. (गृघ्नुः) परोत्कर्षाभिकाङ्क्षकः = Desirous of others' advancement or progre (याता) दण्डप्रापक: = Giver of just punishment. (समत्सु ) संग्रामेषु = In the battles समत्सु इति संग्रामनाम (निघo)
भावार्थभाषाः - There is Shleshalankara or double entendre used in the Mantra. You should know that there is no king except God or a righteous learned president of the Assembly who is destroyer of enemies, punisher of the evil-doers and augmenter of happiness. Knowing this, you should always multiply noble deeds done for the good of others.
टिप्पणी: This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of God and President of the Assembly etc. as in that previous hymn. Here ends the commentary on the seventh hymn and fourth Verga of the First Mandala of the Rigveda.