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दु॒रोक॑शोचिः॒ क्रतु॒र्न नित्यो॑ जा॒येव॒ योना॒वरं॒ विश्व॑स्मै ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

durokaśociḥ kratur na nityo jāyeva yonāv araṁ viśvasmai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दु॒रोक॑ऽशोचिः॑। क्रतुः॑। न। नित्यः॑। जा॒याऽइ॑व। योनौ॑। अर॑म्। विश्व॑स्मै ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:66» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो मनुष्य (क्रतुः) बुद्धि वा कर्म के (न) समान (नित्यः) अविनाशिस्वभाव (जायेव) भार्या के समान (योनौ) कारणरूप में (अरम्) अलंकर्त्ता (श्वेतः) शुद्ध शुक्लवर्ण के (न) समान (विक्षु) प्रजाओं में शुद्ध करने (रथः) सुवर्णादि से निर्मित विमानादि यान के (न) समान (रुक्मी) रुचि करनेवाले कर्म वा गुणयुक्त (दुरोकशोचिः) दूरस्थानों में दीप्तियुक्त (विश्वस्मै) सब जगत् के लिये सुख करने (समत्सु) संग्रामों में (चित्रः) अद्भुत स्वभावयुक्त (अभ्राट्) आप ही प्रकाशमान होने से शुद्ध (त्वेषः) प्रदीप्त स्वभाववाला है, वही चक्रवर्त्ति राजा होने के योग्य होता है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि जो ज्ञान और कर्मकाण्ड के समान सदा वर्त्तमान, अनुकूल स्त्री के समान सुखों का निमित्त, सूर्य के समान शुभगुणों को प्रकाश करने, आश्चर्य गुणवाले रथ के समान मोक्ष में प्राप्त करने, वीर के समान युद्धों में विजय करनेवाला हो, वह राज्यलक्ष्मी को प्राप्त होता है ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दुर्लभ दीप्तिवाले प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - १. वे प्रभु (दुरोकशोचिः) = [उच समवाये - ओक] दुर्लभ दीप्तिवाले हैं । गीता में कहा है कि “दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः॥” हजारों सूर्यों की दीप्ति आकाश में उठ खड़ी हो तो शायद उस प्रभु की दीप्ति के कुछ तुल्य हो सके ।  २. (क्रतुः न) = संकल्प के समान अथवा ज्ञान की भाँति वह (नित्यः) = अन्दर से होनेवाला है । जैसे संकल्प हृदय में स्थित है, उसी प्रकार वे प्रभु सदा हमारे हृदय में स्थित हैं ।  ३. (योनौ) = गृह में (इव) = जिस प्रकार (जाया) = पत्नी (विश्वस्मै अरम्) = सबके लिए, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समर्थ होती है व सब सन्तानों के जीवन को अलंकृत करती है, उसी प्रकार प्रभु सब भक्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं और सब भक्तों के जीवनों को गुणालंकृत करते हैं ।  ४. वे प्रभु (चित्रः) = अद्भुत हैं । (यत् अभ्राट्) = जब चमकते हैं, अर्थात् अद्भुत दीप्तिवाले हैं । (विक्षु) = प्रजाओं में (श्वेतः न) = अत्यन्त शुभ्र के समान हैं । वस्तुतः जब प्रभु भक्तों के हृदयों में दीप्त होते हैं तब उनके जीवनों को अत्यन्त शुद्ध बना देते हैं ।  ५. वे प्रभु (रथो न रुक्मी) = एक स्वर्ण के रथ [Golden chariot] के समान हैं । जो भी जीव इस स्वर्णरथ पर आरोहण करता है, वह अपनी यात्रा को सुन्दरता से पूर्ण कर पाता है । वे प्रभु इस भक्त के लिए (समत्सु) = संग्रामों में (त्वेषः) = दीप्ति के समान हैं । वासनाओं के साथ संग्राम में इस प्रभु के तेज से ही तेजस्वी होकर हम विजय प्राप्त करते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - वे प्रभु अत्यन्त दुर्लभ दीप्तिवाले हैं । वे ही हमारे जीवनों को दीप्ति से दीप्त करते हैं और संग्रामों में विजय प्राप्त कराते हैं । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यद्यो मनुष्यो क्रतुर्नेव नित्यो जायेव योनावरं कर्त्ता श्वेतो नेव विक्षु रथो नेव रुक्मी दुरोकशोचिर्विश्वस्मै सर्वसुखकर्त्ता समत्सु चित्रोऽभ्राट् त्वेषोऽस्ति स सम्राड् भवितुमर्हति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दुरोकशोचिः) दूरस्थेष्वोकेषु स्थानेषु शोचयो दीप्तयो यस्य सः (क्रतुः) प्रज्ञा कर्म वा (न) इव (नित्यः) अविनश्वरस्वभावः (जायेव) यथा भार्या तथा (योनौ) कारणे (अरम्) अलम् (विश्वस्मै) सर्वस्मै जगते (चित्रः) अद्भुतस्वभावः (यत्) यः (अभ्राट्) न केनापि प्रकाशितो भवति स्वप्रकाशत्वात् (श्वेतः) भास्वरस्वरूपत्वाच्छुद्धः (न) इव (रुक्मी) प्रशस्तानि रुक्माणि रोचकानि कर्माणि गुणा वा सन्ति यस्य सः (त्वेषः) प्रदीप्तस्वभावः (समत्सु) संग्रामेषु। समत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यो ज्ञानकर्मवत्सदा वर्त्तमानोऽनुकूलस्त्रीवत्सर्वसुखनिमित्तः सूर्य्यवत् प्रकाशकोऽद्भुतो रथवन्मोक्षमार्गस्य नेता वीरवद्युद्धेषु विजेता वर्त्तते, स राज्यश्रियमवाप्नोति ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Lord of awful light for all places, eternal like the yajna of creation, beauty of the home like the wife, for all, wondrous of form and character that shines among people like the very sunlight, it is magnificent as a warrior’s chariot, blazing in battles with victory.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How should a man as a leader ( Agni) be is taught further in the fifth Mantra.

अन्वय:

That man can become an emperor or governor of a vast State who shines in distant places on account of his virtues, who is steadfast and firm like the steady intellect or action, who is an ornament to all as a wife in a dwelling or at home, who is white like the sun or perfectly pure, who illuminates all objects, being wonderful by his noble character and conduct, who is like a golden Chariot among men possessing Charming merits and actions and who is resplendent in battles.

पदार्थान्वयभाषाः - (दुरीकशोचि :) दूरस्थेषु ओकेषु-स्थानेषु शोचय:दीप्तयो यस्य सः = Who shines in distant places on account of his virtues. (सम्राट् ) न केनापि प्रकाशितो भवति स्वप्रकाशत्वात् । = Who shines by himself, not depending upon others. (रुक्मी) प्रशस्तानि रुक्माणि रोचकानि कर्माणि गुणा वा सन्ति यस्य सः = A man of charming merits and actions. (समत्सु ) संग्रामेषु समत्सु इति संग्रामनाम (निघ० २.१७) = In battles.
भावार्थभाषाः - There is Upamalankara in the Mantra as several similes have been used. That man can attain the prosperity of a State who is steadfast und firm like the harmony of knowledge and action, who is the cause of all happiness like an agreeable wife, who Is resplendent or bright like the sun, who is wonderful leader of the path of emancipation and who is conqueror in all battles like a brave hero.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सभापती इत्यादी परमेश्वराचे सेवन व विद्युत अग्नी सिद्ध करतात. जसे गायींना गृह व किरणांना सूर्य प्राप्त होतो, तसा त्यांना आनंद मिळतो. जशी माणसे समुद्राद्वारे नाना प्रकारची कार्ये सिद्ध करून सुशोभित होतात तसे सज्जन पुरुषांनी अंतर्यामी परमेश्वराची उपासना व विद्युत विद्या यथायोग्य सिद्ध करून आपल्या सर्व कामना पूर्ण कराव्यात. ॥ ५ ॥