तक्वा॒ न भूर्णि॒र्वना॑ सिषक्ति॒ पयो॒ न धे॒नुः शुचि॑र्वि॒भावा॑ ॥
takvā na bhūrṇir vanā siṣakti payo na dhenuḥ śucir vibhāvā ||
तक्वा॑। न। भूर्णिः॑। वना॑। सि॒स॒क्ति॒। पयः॑। न। धे॒नुः। शुचिः॑। वि॒भाऽवा॑ ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छासठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
अद्भुत धन
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
हे मनुष्या ! भवन्तो रयिर्नेव चित्रः सूरो नेव संदृगायुर्नेव प्राणो नित्यो नेव सूनुः पयो नेव धेनुस्तक्वा नेव भूर्णिर्विभावा शुचिरग्निर्वना सिसक्ति तं यथावद् विज्ञाय कार्येषूपयोजयन्तु ॥ १ ॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
How is Agni is taught in the 2nd Mantra.
O men, you should know well the Agni (fire) and utilise it properly in various works which is like wonderful wealth, like the sun which shows us all objects, like vital breath, dear like a well-conducted own son, hidden in all things, like a thief, speedy, like a milk-yielding cow, which is pure and radiant, consumes the forests.
