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वि॒श्ववे॑दसो र॒यिभिः॒ समो॑कसः॒ संमि॑श्लास॒स्तवि॑षीभिर्विर॒प्शिनः॑। अस्ता॑र॒ इषुं॑ दधिरे॒ गभ॑स्त्योरन॒न्तशु॑ष्मा॒ वृष॑खादयो॒ नरः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvavedaso rayibhiḥ samokasaḥ sammiślāsas taviṣībhir virapśinaḥ | astāra iṣuṁ dadhire gabhastyor anantaśuṣmā vṛṣakhādayo naraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒श्वऽवे॑दसः। र॒यिऽभिः॑। सम्ऽओ॑कसः। सम्ऽमि॑श्लासः। तवि॑षीभिः। वि॒ऽर॒प्शिनः॑। अस्ता॑रः। इषु॑म्। द॒धि॒रे॒। गभ॑स्त्योः। अ॒न॒न्तऽशु॑ष्माः। वृष॑ऽखादयः। नरः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:64» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त पवन किस प्रकार के गुणवाले हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) विद्या को प्राप्त होनेवाले मनुष्यो ! तुम लोग जो (समोकसः) जिनसे अच्छे प्रकार निवास होता है (संमिश्लासः) अग्नि आदि चार तत्त्वों के साथ अत्यन्त मिले हुए (इषुम्) बाण वा इच्छा विशेष छोड़ते हुए (वृषखादयः) रसों को वर्षानेवाले पदार्थों के खानेवाले (अनन्तशुष्माः) अनन्त बलवान् (विरप्सिनः) बड़े (विश्ववेदसः) सब पदार्थों की प्राप्ति के हेतु होके सब पदार्थों को इधर-उधर चलानेवाले वायु (रयिभिः) चक्रवर्त्तिराज्य की शोभा आदि तथा (तविषीभिः) बल पराक्रम सेना आदि प्रजा और (गभस्त्योः) किरणयुक्त सूर्य्य वा प्रसिद्ध अग्नि के समान भुजाओं में बल को (दधिरे) धारण करते हैं, उनके गुणों को ठीक-ठीक जान कर उनसे विद्या, शिक्षा और यान के चलाने की क्रियाओं को ग्रहण करो ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य लोग विद्वान् तथा वायु आदि पदार्थविद्या के विना परलोक और इस लोक के सुखों की सिद्धि कभी नहीं कर सकते ॥ १० ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान + धन + बल का वर्धन

पदार्थान्वयभाषाः - १. प्राणों की साधना करनेवाले पुरुष (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण ज्ञानोंवाले होते है । इनकी बुद्धि सूक्ष्म होकर इनके ज्ञान का वर्धन होता है । २. (रयिभिः समोकसः) = धनों से ये समान निवासस्थानवाले होते हैं, अर्थात् ये धनों को प्राप्त करनेवाले होते हैं । ३. (तविषीभिः संमिश्लासः) = बलों से ये मिश्रित व युक्त होते हैं और ४. इस प्रकार ज्ञान, धन व बल से सम्पन्न होकर ये (विरप्शिनः) = महान् बनते हैं । (अस्तारः) = [असु क्षेपणे] ये शत्रुओं को सुदूर फेंकनेवाले होते हैं । काम - क्रोधादि को अपने समीप नहीं फटकने देते । (गभस्त्योः) = अपनी दोनों भुजाओं में (इषुम्) = बाण को (दधिरे) = धारण करते हैं । कामादि शत्रुओं को इन बाणों से विद्ध करके दूर भगा देते हैं । भुजाओं में बाणों का संकेत “कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः” - इस मन्त्रभाग में इस प्रकार हुआ है कि दक्षिण हस्त का बाण कृत व पुरुषार्थ है और वामहस्त का बाण जय है । यह सदा पुरुषार्थ में लगा हुआ काम - क्रोधादि शत्रुओं को पराजित कर विजयलाभ करता है । इस विजयलाभ के कारण ही यह महान् है । ४. (अनन्तशुष्माः) = इस प्रकार ‘कृत व जय’ - रूप बाणों को धारण करते हुए ये लोग खूब शक्तिशाली बनते हैं । (वृषखादयः) = [वृषः सोमः खादिः भोजनं येषाम्] सोम इनका भोजन होता है । सोम को ये शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करते हैं और इसलिए (नरः) = नर होते हैं, ‘नृ नये’ - अपने को उन्नतिपथ पर निरन्तर आगे ले - चलते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना हमारे ज्ञान, धन व बल सभी को बढ़ाती है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे नरो मनुष्या ! यूयं ये समोकसः संमिश्लास इषुमस्तारो वृषखादयोऽनन्तशुष्मा विरप्सिनो विश्ववेदसो रयिभिस्तविषीभिश्च प्रजा गभस्त्योः सूर्य्याग्न्योरिव बलं दधिरे धरन्ति तेषां सङ्गेन विद्याशिक्षायानचालनक्रियाश्च स्वीकुरुत ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्ववेदसः) विश्वानि सर्वाणि वस्तूनि विदन्ति येभ्यस्ते (रयिभिः) चक्रवर्त्तिराज्यश्रियादिभिः (समोकसः) सम्यगोको निवासार्थं स्थानं येभ्यस्ते (संमिश्लासः) अग्न्यादितत्त्वैः सम्यङ् मिश्राः। अत्र कपिलकादीनां सञ्ज्ञाछन्दसोर्वा रो लमापद्यत इति वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०८.२.१८) इति लत्वम्। (तविषीभिः) बलपराक्रमयुक्ताभिः सेनाभिः (विरप्शिनः) महान्तः। विरप्शीति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (अस्तारः) प्रक्षेप्तारः। अत्रास् धातोस्तृन् वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीडागमविकल्पः। (इषुम्) बाणम्। प्राप्तिसाधनमिच्छाविशेषं वा (दधिरे) धरन्ति (गभस्त्योः) रश्मियुक्तयोः सूर्य्यप्रसिद्धाग्न्योरिव भुजयोः (अनन्तशुष्माः) अनन्तं शुष्मं बलं येषान्ते (वृषखादयः) ये वृषान् रसवर्षकान् पदार्थान् खादयन्ति ते (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्या वायवो वा ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्नहि विद्वद्भिर्वाय्वादिपदार्थविद्यया च विना परमार्थव्यवहारसुखानि सेद्धुं शक्यन्ते ॥ १० ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Heroic men, mighty powers, cosmic energies, Maruts, voracious eaters, excellent and exuberant, who know and rule the world live together with all their wealth together, mix together in equal homes with all their light and power of the elements, hold immense strength in their hands, fix the arrow on the bow and shoot. They are the real men, the Maruts.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How are they (Maruts) is taught further in the tenth Mantra.

अन्वय:

The Maruts (heroes) are knowers of all important things dwelling together with wealth of vast government, endowed with strength, great on account of their virtues, repellers of foes, of infinite powers, eaters of nourishing food, leaders of men, hold in their arms which are like the sun and fire, shafts and various weapons or noble desires in their minds. They drive away their enemies with their powerful armies.

पदार्थान्वयभाषाः - (विरप्शिनः) महान्तः विरप्शीति महन्नाम (निघ० ३.३ ) = Great on account of their virtues. (अस्तार:) प्रक्षेप्तार: । अत्र अस-प्रक्षेपणे इति धातोः स्तृन् ' वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति इडागमविकल्पः । = Throwers or repellers of their foes. (गभस्त्योः) रश्मियुक्तयोः सूर्यप्रसिद्धाग्न्योरिव भुजयोः = In the arms which are like the sun and fire-full of splendour.
भावार्थभाषाः - Men can not attain spiritual and secular happiness without the learned people and the knowledge of the science of the air and other elements.
टिप्पणी: (गभस्ती इति बाहुनाम (निघ० २.४) गभस्त्य इति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) Though Prof. Max Muller and other. Western Scholars translate the word "Maruts" as storm Gods, yet even they like Prof. Wilson and Griffith have to admit willy nilly that the adjectives used for Maruts and other descriptions clearly point out that they are heroic men. For instances, Prof. Wilson's translation of the above Mantra (10th.) is as follows. “The Maruts who are all knowers. "Who are leaders (of men)." In the translation of the 9th Mantra also Prof. Wilson says-Maruts, who are heroes, etc. Griffith in his translation of the 8th Mantra says. (प्रचेतसः) Exceeding wise they roar like lions mightily-combined as priests. In the translation of the 9th Mantra.(गणश्रियः ) (Heroes) who Match in companies, friendly men. In the translation of the 10th Mantra विरप्शिन: Singers loud of voice-Heroes, of powers infinite,-the archers, they have laid the arrow of their arms. Does all this not corroborate Rishi Dayananda Saraswati's contention that by the word "Marutah" are not meant any "Storm Gods" but brave heroes besides the winds by the way of illustration.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे विद्वान व वायू इत्यादी पदार्थविद्येशिवाय परलोक व इहलोकाच्या सुखाची सिद्धी कधी करू शकत नाहीत. ॥ १० ॥