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अका॑रि त इन्द्र॒ गोत॑मेभि॒र्ब्रह्मा॒ण्योक्ता॒ नम॑सा॒ हरि॑भ्याम्। सु॒पेश॑सं॒ वाज॒मा भ॑रा नः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

akāri ta indra gotamebhir brahmāṇy oktā namasā haribhyām | supeśasaṁ vājam ā bharā naḥ prātar makṣū dhiyāvasur jagamyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अका॑रि। ते॒। इ॒न्द्र॒। गोत॑मेभिः। ब्रह्मा॑णि। आऽउ॑क्ता। नम॑सा। हरि॑ऽभ्याम्। सु॒ऽपेश॑सम्। वाज॑म्। आ। भ॒र॒। नः॒। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:63» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभा आदि के पति ! (ते) आपके जिन (गोतमेभिः) विद्या से उत्तम शिक्षा को प्राप्त हुए शिक्षित पुरुषों से (नमसा) अन्न और धन (हरिभ्याम्) बल और पराक्रम से जिन (ओक्ता) अच्छे प्रकार प्रशंसा किये हुए (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े अन्न और धनों को (अकारि) करते हैं, उनके साथ (नः) हम लोगों के लिये उनको जैसे (धियावसुः) कर्म और बुद्धि से सुखों में बसानेवाला विद्वान् (सुपेशसम्) उत्तमरूप युक्त (वाजम्) विज्ञानसमूह को (प्रातः) प्रतिदिन (जगम्यात्) पुनः-पुनः प्राप्त होवे और इसका धारण करे, वैसे आप पूर्वोक्त सबको (मक्षु) शीघ्र (आ भर) सब ओर से धारण कीजिये ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे बिजुली सूर्य्य आदि रूप से सब जगत् को आनन्दों से पुष्ट करती है, वैसे सभाध्यक्ष आदि भी उत्तम धन और श्रेष्ठ गुणों से प्रजा को पुष्ट करें ॥ ९ ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाद्यध्यक्ष और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभुस्तवन व सज्जनसङ्ग

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमान् प्रभो ! (गोतमेभिः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले पुरुषों से (ते) = तेरा स्तवन (अकारि) = किया जाता है । उन गौतमों से (नमसा) = बड़े नमन के साथ, विनयपूर्वक (हरिभ्याम्) = कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा (ब्रह्माणि) = स्तुतिवचन (आ उक्ता) = सदा कहे गये हैं । ‘मिट्ठा बोलुन, निवा चलन, हत्थों वी कुछ देव’ - ये हैं वे कर्म जिनके द्वारा प्रभु का स्तवन होता है । इस प्रकार प्रभुस्तवन करनेवाले (नः) = हमारे लिए (सुपेशसम्) = सुन्दर आकृति को उत्पन्न करनेवाले (वाजम्) = बल को (आभर) = सर्वथा भरिए [प्राप्त कराइए] । २. साथ ही यह भी कृपा कीजिए कि (प्रातः) = प्रातः (मक्षु) = शीघ्र ही (धियावसुः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा निवास को उत्तम बनानेवाला पुरुष (जगम्यात्) = हमें प्राप्त हो । इसके सङ्ग से हम भी धियावसु बन पाएँगे ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें । प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराएँ और सज्जनसङ्ग की सुविधा दें ।
टिप्पणी: विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि वे प्रभु महान् व शक्तिशाली है [१] । प्रभु का स्तोता क्रियाशील होता है [२] । वे प्रभु ही हमारे शोषक शत्रु काम व शुष्ण का विनाश करते हैं[३] । वासना का विनाश गर्भ में ही कर देना ठीक है [४] । वे प्रभु हमारे शत्रुओं को नष्ट करके हमारे लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं [५] । प्रभुरक्षण से ही युद्ध में विजय प्राप्त होती है [६] । इस विजय को करनेवाले ‘पुरुकुत्स, सुदास व पुरु’ बनते हैं [७] । हम उस सात्त्विक अन्न का प्रयोग करें जोकि ज्ञानवर्धक हो [८] और गोतम बनकर सदा प्रभुस्तवन करनेवाले हों [९] । अब प्रभु की उपासना से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! सभाद्यध्यक्ष ! ते तव यैर्गोतमेभिः सुशिक्षितैः पुरुषैर्नमसा हरिभ्यां यान्योक्ता ब्रह्माण्यकारि तैः सह नोऽस्मभ्यं यथा धियावसुः सुपेशसं वाजं प्रातर्जगम्यादेतद्भरेच्च तथा त्वमेनत् सर्वं मक्ष्वाभर ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अकारि) क्रियते (ते) तव (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (गोतमेभिः) ये गच्छन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति विद्यादिशुभान् गुणांस्तैर्विद्वद्भिः किरणैर्वा। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि धनानि वा (ओक्ता) समन्तादुक्तानि प्रशंसितानि (नमसा) अन्नेन। नम इति अन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२) (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्याम् बलपराक्रमाभ्याम् (सुपेशसम्) शोभनानि पेशांसि रूपाणि यस्मात्तम् (वाजम्) विज्ञानकरम् (आ) समन्तात् (भर) धर (नः) अस्मभ्यम् (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) कर्मप्रज्ञाभ्यां सुखेषु वासयिता (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात् ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्युत्सूर्य्यादिरूपेण सर्वं जगत्पोषति तथैव सभाद्यध्यक्षादयः प्रशस्तैर्धनादिभिर्युक्तां प्रजां कुर्य्युः ॥ ९ ॥ अस्मिन् सूक्त ईश्वरसभाद्यध्यक्षाग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of the world, by the most eminent sages of vision and intelligence, like fast motions of light rays for the sun, songs of homage have been presented with heart and soul with offerings of faith and reverence and sung for you.$May the same lord of wealth and intelligence come to us and bless us with wondrous wealth of food, light and energy at the break of dawn.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How is he (Indra) is taught further in the ninth Mantra.

अन्वय:

O Indra ( President of the Assembly) praises have been offered to thee by highly educated persons. They have been uttered to thee with great reverence and with force and strength which remove all misery. Grant us various kinds of food and knowledge. The person who causes us to remain in happiness with action and gives us knowledge that makes us beautiful may come to us in the morning again and again.

पदार्थान्वयभाषाः - (गोतमेभिः) ये गछन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति विद्यदिशुभान्गुणान् तैर्विद्वद्भिः किरणैर्वा । =By the learned who know and acquire knowledge and other divine attributes. (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां बलपराक्रमाभ्याम्। = By force and strength which remove all evils. (सुपेशसम्) शोभनानि पेशांसि ( रूपाणि) यस्मात्तम् ।
भावार्थभाषाः - As electricity supports this universe in the form of the sun and other luminaries, in the same menner, the President of the Assembly etc. should make people endowed with admirable wealth.
टिप्पणी: In this hymn also the attributes of God, fire and President of the Assembly have been mentioned, so it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the 63rd hymn of fifth varga of the 1st Mandala of Rigveda.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी विद्युत सूर्य इत्यादी रूपाने सर्व जगाला आनंद देते तसे सभाध्यक्ष इत्यादींनीही उत्तम धन व श्रेष्ठ गुणांनी प्रजेला पुष्ट करावे. ॥ ९ ॥