वांछित मन्त्र चुनें

त्वं त्यां न॑ इन्द्र देव चि॒त्रामिष॒मापो॒ न पी॑पयः॒ परि॑ज्मन्। यया॑ शूर॒ प्रत्य॒स्मभ्यं॒ यंसि॒ त्मन॒मूर्जं॒ न वि॒श्वध॒ क्षर॑ध्यै ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tyāṁ na indra deva citrām iṣam āpo na pīpayaḥ parijman | yayā śūra praty asmabhyaṁ yaṁsi tmanam ūrjaṁ na viśvadha kṣaradhyai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। त्याम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। दे॒व॒। चि॒त्राम्। इष॑म्। आपः॑। न। पी॒प॒यः॒। परि॑ऽज्मन्। यया॑। शूर॑। प्रति॑। अ॒स्मभ्य॑म्। यंसि॑। त्मन॑म्। ऊर्ज॑म्। न। वि॒श्वध॑। क्षर॑ध्यै ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:63» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:8


0 बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सभाध्यक्षादि और विद्युत् अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे बिजुली के समान (परिज्मन्) सब ओर से दुष्टों के नष्ट करने (विश्वध) विश्व के धारण करने (शूर) निर्भय (देव) विद्या और शिक्षा के प्रकाश करने और (इन्द्र) सुखों के देनेवाले सभाध्यक्ष ! जैसे (त्वम्) आप (यया) जिससे (नः) हम लोगों के (त्मनम्) आत्मा को (क्षरध्यै) चलायमान होने को (ऊर्जम्) अन्न वा पराक्रम के (न) समान (यंसि) दुष्ट काम से रोक देते हो (त्यम्) उस (चित्राम्) अद्भुत सुखों को करनेवाली (इषम्) इच्छा वा अन्न को (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (आपो न) जलों के समान (प्रतिपीपयः) वार-वार पिलाते हो, वैसे हम भी आपको अच्छे प्रकार प्रसन्न करें ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्न क्षुधा को और जल तृषा को निवारण करके सब प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे सभापति आदि सबको सुखी करें ॥ ८ ॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सादा खाना, पानी पीना [वानस्पतिक भोजन व पानी]

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (इन्द्र) = वृष्टि आदि कर्मों को करनेवाले । (देव) = अनादि सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिए (त्यम्) = उस प्रसिद्ध (चित्राम्) = [चित्+रा] ज्ञान का वर्धन करनेवाले (इषम्) = अन्न को (परिज्मन्) = इस सूर्य के चारों ओर घूमनेवाली अथवा (परितः) व्याप्त - विस्तृत भूमि पर (पीपयः) = [प्रावर्धयः] खूब ही प्रवृद्ध कीजिये । उसी प्रकार प्रवृद्ध कीजिए न - जैसेकि (आपः) = जलों को आपने प्रवृद्ध किया है । हे प्रभो ! जैसे आप इस पृथिवी पर वर्तमान हम लोगों को जलों को प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार ज्ञानवर्धक सात्त्विक अन्नों को भी प्राप्त कराइए । २. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! हमें वह अन्न प्राप्त कराइए (यया) = जिससे (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (त्मनम्) = आत्मतत्त्व को (प्रतियंसि) = प्राप्त कराते हो । आत्मतत्त्व को उसी प्रकार प्राप्त कराते हो (न) = जैसे (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को प्राप्त कराते हो । हे (विश्वधः) = विश्व को धारण करनेवाले प्रभो ! हमें वे अन्न प्राप्त कराइए जो (क्षरध्यै) = मलों का क्षरण करनेवाले हों । ऐसे अन्न ही स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें वे अन्न प्राप्त हों जो [क] बुद्धि - ज्ञानवर्धक हो [चित्राम्], [ख] आत्मतत्व का दर्शन करानेवाले हों, [ग] ऊर्जम् बल और प्राणशक्ति को प्राप्त करनेवाले हों, [घ] मलों के क्षरण करनेवाले हों ।
0 बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सभाद्यध्यक्षविद्युतोर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे विद्युदिव परिज्मन् विश्वध शूर देवेन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! यथा त्वं यया नोऽस्माकं त्मनमात्मानं क्षरध्या ऊर्जं न संचलितुमन्नं पराक्रममिव यंसि त्यां तां चित्रामिषमस्मभ्यमापो न जलानीव प्रतिपीपयः पाययसि तथा वयमपि त्वां संतोषयेम ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः सूर्यो वा (त्याम्) ताम् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सुखप्रद सुखहेतुर्वा (देव) विद्याशिक्षाप्रकाशक चक्षुर्हिता वा (चित्राम्) अद्भुतसुखप्रकाशिकाम् (इषम्) इच्छामन्नादिप्राप्तिं वा (आपः) जलानि (न) इव (पीपयः) पाययसि। ण्यन्तोऽयं प्रयोगः। (परिज्मन्) परितः सर्वतो जहि हिनस्ति दुष्टांस्तत्सम्बुद्धौ विद्युद्वा (यया) उक्तया (शूर) निर्भय निर्भयहेतुर्वा (प्रति) वीप्सायाम् (अस्मभ्यम्) (यंसि) दुष्टाचारान्निरुणत्सि। अत्र शपो लुक्। (त्मनन्) आत्मानम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्याकारलोपः। उपधादीर्घत्वनिषेधश्च। सायणाचार्य्येणेदं पदमुपधादीर्घत्वनिषेधकरं वचनमविज्ञायाशुद्धं व्याख्यातम्। (ऊर्जम्) पराक्रममन्नं वा (न) इव (विश्वध) विश्वं दधातीति तत्सम्बुद्धौ (क्षरध्यै) क्षरितुं संचलितुम् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽन्नं क्षुधं यथा च जलं पिपासां निवार्य्य सर्वान् प्राणिनः सुखयतस्तथैव सभाद्यध्यक्षः सर्वान्सुखयेत् ॥ ८ ॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, brilliant lord of generosity, ever present and all protective, brave hero, ruler and holder of the world, like the flow of nature’s waters, let that various and wondrous energy, mind and means flow freely for us for the expression and fulfilment of our spiritual self by which you again and again direct and guide the conduct of our soul as well as the psychic flow of our energy.
0 बार पढ़ा गया

आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The attributes of the President of the Assembly and electricity are taught further in the 8th Mantra.

अन्वय:

O President of the Assembly like electricity, destroying the wicked, O illuminator of knowledge and education, O brave, as thou suppliest us with abundant food and fulfillest our noble desires which manifest wonderful happiness for our movement every where. like the water which satisfies a man, we also please thee.

पदार्थान्वयभाषाः - (इषम्) इच्छाम् अन्नादिप्राप्ति वा =Desire and the acquisition of food etc. (परिज्मन्) परिसर्वतः जहि हिनस्ति दुष्टान् तत् सम्बुद्धौ विधुद्वा | =O destroyer of the wicked or electricity.
भावार्थभाषाः - As food and water satisfy all beings by removing hunger and thirst, the same manner, the President of the Assembly should make people, happy and contented.
0 बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अन्न क्षुधेचे व जल तृषेचे निवारण करून सर्व प्राण्यांना सुख देते. तसे सभापती इत्यादींनी सर्वांना सुखी करावे. ॥ ८ ॥