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त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र स॒प्त युध्य॒न्पुरो॑ वज्रिन्पुरु॒कुत्सा॑य दर्दः। ब॒र्हिर्न यत्सु॒दासे॒ वृथा॒ वर्गं॒हो रा॑ज॒न्वरि॑वः पू॒रवे॑ कः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ ha tyad indra sapta yudhyan puro vajrin purukutsāya dardaḥ | barhir na yat sudāse vṛthā varg aṁho rājan varivaḥ pūrave kaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। ह॒। त्यत्। इ॒न्द्र॒। स॒प्त। युध्य॑न्। पुरः॑। व॒ज्रि॒न्। पु॒रु॒ऽकुत्सा॑य। द॒र्द॒रिति॑ दर्दः। ब॒र्हिः। न। यत्। सु॒ऽदासे॑। वृथा॑। वर्क्। अं॒होः। रा॒ज॒न्। वरि॑वः। पू॒रवे॑। कः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:63» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अगले मन्त्र में सभापति आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्रों से युक्त (राजन्) प्रकाश करने तथा (इन्द्र) विजय के देनेवाले सभा के अधिपति ! जो आपके (सप्त) सभा, सभासद्, सेना, सेनापति, भृत्य, प्रजा ये सात हैं, उन्हीं के साथ प्रेम से वर्त्तमान होके शत्रुओं के साथ (युध्यन्) युद्ध करते हुए जिस कारण तुम उन शत्रुओं के (पुरः) नगरों को (दर्दः) विदारण करते हो। जो आप (अंहोः) प्राप्त होने योग्य राज्य के (पुरुकुत्साय) बहुत मनुष्यों को ग्रहण करने योग्य (पूरवे) पूर्ण सुख के लिये (यत्) जो (वरिवः) सेवन करने योग्य पदार्थों को (सुदासे) उत्तम दान करनेवाले मनुष्यों से युक्त देश में (बर्हिः) अन्तरिक्ष के (न) समान (कः) करते हो (यत्) जो (वृथा) व्यर्थ काम करनेवाले मनुष्य हों (त्यत्) उनको (वर्क्) वर्जित करते हो, इस कारण हम सब लोगों को सत्कार करने योग्य हो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य्य सब जगत् के हित के लिये मेघ को वर्षाता है, वैसे ही सबका स्वामी सभापति सभों का हित सिद्ध करे ॥ ७ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

‘पुरुकुत्स, सुदास् व पुरु’

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (इन्द्र) = बल के सब कार्यों को करनेवाले प्रभो ! (वज्रिन्) = हे वज्रहस्त प्रभो ! (त्वं ह) = आप ही (युध्यन्) = युद्ध करते हुए (त्यत् सप्त पुरः) = उन असुरों की सात नगरियों को (पुरुकुत्साय ) = पुरुकुत्स के लिए (दर्दः) = विदीर्ण करते हो । "कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्" - इस मन्त्रभाग में दो कान, दो नासिका - छिद्र, दो आँखें व मुख मिलकर सात ऋषियों का वर्णन हुआ है । ये सातों जिस समय असुरों को आक्रमण से वैषयिक वृत्ति के होकर पतन की ओर जाते हैं तो असुरों के सात पुर बन जाते हैं । जो भी व्यक्ति पुरुकुत्स बनता है, अपना पालन व पूरण करता है और बुराइयों का हिंसन करता है, उसके लिए प्रभु इन असुरों से युद्ध करते हुए इन असुर - पुरियों का विदारण करते हैं । २. हे प्रभो ! आप (सुदासे) = सुदास के लिए उत्तमता से बुराइयों का अपक्षय करनेवाले के लिए (बर्हिः न) = घास की भाँति (वृथा) = अनायास ही (यत् अंहः) = जो पाप है उसको (वर्क्) = नष्ट कर देते हो [अवृणक्] । हम सुदास बनें, प्रभु हमारे लिए पापों को नष्ट करनेवाले होंगे । ३. हे (राजन्) = संसार के सम्पूर्ण ऐश्वर्य के स्वामी प्रभो ! आप (पूरवे) = औरों का पालन व पूरण करनेवाले के लिए, सारे का सारा स्ययं न खा जानेवाले के लिए (वरिवः) = धन को (कः) = करते हैं । जो पूर बनता है, उसे ही प्रभु धन का पात्र समझते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु पुरुकुत्स के लिए कान, नाक, आँखें व मुख आदि को पवित्र बनाये रखते हैं । सुदास के लिए वासनाओं को विनष्ट करते हैं । पुरु के लिए धन प्राप्त कराते हैं ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सभाद्यध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे वज्रिन्निन्द्र राजन् सभाधिपते ! ये तव सभादयः सप्त सन्ति तैः सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः सह युध्यन् यतस्त्वं ह खलु तेषां पुरो दर्दो विदारयसि यतस्त्वमंहो राज्यस्य पुरुकुत्साय पूरवे यद्वरिवः सुदासे बर्हिर्न को यद्वृथा मनुष्या वर्त्तन्ते त्यत्तान् वर्क् वर्जयसि तस्मात्त्वं सर्वैरस्माभिस्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (ह) किल (त्यत्) तस्मै (इन्द्र) विजयप्रद सभाद्यध्यक्ष (सप्त) सभासभासद्सभापतिसेनासेनापतिभृत्यप्रजाः (युध्यन्) युद्धं कुर्वन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् अडभावश्च। (पुरः) शत्रुनगराणि (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो यस्यास्तीति तत्संबुद्धौ (पुरुकुत्साय) बहुभिरवक्षिप्ताय (दर्दः) पुनर्विदारय। अयं यङ्लुङ्न्तः प्रयोगोऽडभावश्च। (बर्हिः) शुद्धमन्तरिक्षम्। (न) इव (यत्) (सुदासे) शोभना दासा दानकर्त्तारो यस्मिन् देशे तस्मिन् (वृथा) व्यर्थे (वर्क्) वर्जयसि। अत्र मन्त्रे घसहर० इति च्लेर्लुक्। (अंहोः) प्राप्तस्य प्राप्तव्यस्य वा राज्यस्य (राजन्) प्रकाशक (वरिवः) परिचरणम् (पूरवे) प्रपूर्णाय सुखाय (कः) करोषि। अत्र मन्त्रे घस० इति च्लेर्लुक् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - यथा सूर्यो जगद्धिताय मेघं छित्त्वा निपातयति तथैव सर्वाधीशः सभापतिः सर्वेभ्यः प्राणिभ्यो हितं सम्पादयेत् ॥ ७ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of the thunderbolt, ruler of the world, fighting seven evils and defending the seven-fold power of the order, you break down the strongholds of sin and crime for the sake of the generous and the many splendoured social order. Uproot the sin and crime like grass and deliver the wealth to the people for the sake of joy and fulfilment and take the order to the heights of the sky. (The sevenfold powers are: the council, councillors, president, army, commander, services and the people.)
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Now the attributes of the President of the Assembly are taught.

अन्वय:

O Indra (President of the Assembly, O wielder of powerful weopons ! being present with seven (Assembly, members of the Assembly, the President of the Assembly, army, the Chief Commander of the Army, and servant, subjects) thou over turnest the cities of un-righteous persons, because thou givest the kingdom that is got, to a charitable person, who possesses mighty weapons like the thunderbolt and servest him for the attainment of perfect happiness, leaving off worthless persons; therefore thou art worthy of being respected by us.

पदार्थान्वयभाषाः - (सुदासे) शोभना दासाः - दानकर्तार: यस्मिन् देशे । = Full of liberal donors. (दासृ दाने) (हो:) प्राप्तस्य प्राप्तव्यस्य वा राज्यस्य । = Of the kingdom got or to be got. (पूरवे) प्रपूर्णाय सुखाय = For full or perfect happiness.
भावार्थभाषाः - As the sun disperses the cloud for the welfare of all beings, in the same manner, the President of the Assembly should bring about the welfare of all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा सूर्य सर्व जगाच्या हितासाठी मेघांचा वर्षाव करतो तसेच सर्वांचा स्वामी असलेल्या सभापतीने सर्वांचे हित करावे. ॥ ७ ॥