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इन्द्र॒स्याङ्गि॑रसां चे॒ष्टौ वि॒दत्स॒रमा॒ तन॑याय धा॒सिम्। बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ विद॒द्गाः समु॒स्रिया॑भिर्वावशन्त॒ नरः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrasyāṅgirasāṁ ceṣṭau vidat saramā tanayāya dhāsim | bṛhaspatir bhinad adriṁ vidad gāḥ sam usriyābhir vāvaśanta naraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑स्य। अङ्गि॑रसाम्। च॒। इ॒ष्टौ। वि॒दत्। स॒रमा॑। तन॑याय। धा॒सिम्। बृह॒स्पतिः॑। भि॒नत्। अद्रि॑म्। वि॒दत्। गाः। सम्। उ॒स्रिया॑भिः। वा॒व॒श॒न्त॒। नरः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:62» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को पूर्वोक्त कृत्य किसलिये करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) सुखों को प्राप्त करानेवाले मनुष्यो ! जैसे (सरमा) विद्या धर्मादिबोधों को उत्पन्न करनेवाली माता (तनयाय) पुत्र के लिये (धासिम्) अन्न आदि अच्छे पदार्थों को (विदत्) प्राप्त करती है, जैसे (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों को रक्षा करनेवाला सभाध्यक्ष जैसे सूर्य (उस्रियाभिः) किरणों से (अद्रिम्) मेघ को (भिनत्) विदारण और जैसे (गाः) सुशिक्षित वाणियों को (विदत्) प्राप्त करता है, वैसे तुम भी (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवाले परमेश्वर, सभाध्यक्ष वा सूर्य (च) और (अङ्गिरसाम्) विद्या, धर्म और राज्यवाले विद्वानों की (इष्टौ) इष्ट की सिद्ध करनेवाली नीति में विद्यादि उत्तम गुणों का (संवावशन्त) अच्छे प्रकार वार-वार प्रकाश करो, जिससे सब संसार में अविद्यादि दुष्ट गुण नष्ट हों ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि माता के समान प्रजा में वर्त्त कर, सूर्य के समान विद्यादि उत्तम गुणों का प्रकाश कर, ईश्वर की कही वा विद्वानों से अनुष्ठान की हुई नीति में स्थित हो और सबके उपकार को करते हुए विद्यादि सद्गुणों के आनन्द में सदा मग्न रहें ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

बुद्धि का स्वाध्यायरूपी भोजन

पदार्थान्वयभाषाः - १. (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (च) = और अतएव (अङ्गिरसाम्) = अङ्ग - प्रत्यङ्ग में रस - सञ्चारवाले पुरुषों के (इष्टौ) = प्रभुपूजन के होने पर (सरमा) = [स+रमा] आत्मा के साथ रमण करनेवाली बुद्धि, आत्मारूपी रथी के साथ सारथिरूपेण रहनेवाली बुद्धि (तनयाय) = अपने विस्तार के लिए [तनु विस्तारे] (धासिम्) = भोजन को (विदत्) = प्राप्त कराती है । नवीन - नवीन ग्रन्थों का स्वाध्याय ही वह भोजन है जो बुद्धि का विस्तार करता है । २. स्वाध्याय के द्वारा बुद्धि का विस्तार करनेवाला यह (बृहस्पतिः) = ऊँचे - से - ऊँचे ज्ञान का पति (अद्रिम्) = अज्ञान के पर्वत को (भिनत्) = विदीर्ण करता है । अज्ञान - पर्वत को विदीर्ण करके (गाः विदत्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करता है । ३. (नरः) = [नृ नये] ये नर लोग अपने को उन्नतिपथ पर ले - चलनेवाले लोग (उस्त्रियाभिः) = प्रकाश की किरणों के निमित्त (संवावशन्त) = [वाशृ शब्दे] प्रभु की स्तुतियों का उच्चारण करते हैं अथवा ‘वश कान्तौ’ प्रभु - स्तुति की कामना करते हैं । ४. बुद्धि के परिपोषण के लिए आवश्यक है कि हम [क] जितेन्द्रिय बनें [इन्द्रस्य], [ख] अङ्गों को रसमय बना दें, अर्थात् यथासम्भव स्वस्थ हों, [ग] प्रभुपूजन की वृत्तिवाले हों [इष्टौ], [घ] बुद्धि को स्वाध्यायरूप भोजन अवश्य प्राप्त कराएँ [धासिम्] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा बुद्धि को उचित भोजन प्राप्त कराएँ और इस प्रकार बुद्धि का ठीक परिपोषण करें ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैरेतत्किमर्थमनुष्ठेयमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे नरो मनुष्याः ! यथा सरमा माता तनयाय धासिं विदत् प्राप्नोति यथा बृहस्पतिः सभाद्यध्यक्षो यथा सूर्य उस्रियाभिः किरणैरद्रिं भिनद्विदृणाति यथा गा विदत् प्राप्नोति तथैव यूयमपीन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विद्यादिसद्गुणान् संवावशन्त पुनः पुनः सम्यक् प्रकाशयन्तः, यतः सर्वस्मिन् जगत्यविद्यादिदुष्टगुणा नश्येयुः ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः सभाद्यध्यक्षस्य (अङ्गिरसाम्) विद्याधर्मराज्यप्राप्तिमतां विदुषाम्। अङ्गिरस इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (च) समुच्चये (इष्टौ) इष्टसाधिकायां नीतौ (विदत्) प्राप्नुयात्। अत्र लिङर्थे लङडभावश्च। (सरमा) यथा सरान् विद्याधर्मबोधान् मिमीते तथा। आतोऽनुपसर्गे कः । (अष्टा०३.२.३) इति कः प्रत्ययः (तनयाय) सन्तानाय (धासिम्) अन्नादिकम्। धासिमित्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (बृहस्पतिः) बृहतां पतिः पालयिता सभाद्यध्यक्षः (भिनत्) भिनत्ति। अत्र लडर्थे लङडभावश्च। (अद्रिम्) मेघम् (विदत्) प्राप्नोति। अस्याऽपि सिद्धिः पूर्ववत्। (गाः) पृथिवीः (सम्) सम्यगर्थे (उस्रियाभिः) किरणैः (वावशन्त) पुनः पुनः प्रकाशयत (नरः) ये नृणन्ति नयन्ति ते मनुष्यास्तत्सम्बुद्धौ ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मातृवत्प्रजायां वर्त्तित्वा सूर्यवद् विद्यादिसद्गुणान् प्रकाश्येश्वरोक्तायां विद्वदनुष्ठितायां नीतौ स्थित्वा सर्वोपकारं कर्म कृत्वा सदा सुखयितव्यम् ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Just as a mother gives milk to the child, as Brihaspati, the sun, breaks the cloud with its rays and the light reaches the earth, so you, men and women of the world, in the yajna of Indra and the yajnic programmes of the scholars of science and society, shining and advancing like sun-rays, spread the light of knowledge and the joy of life.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Why should men do all the above is taught further in the fourth Mantra.

अन्वय:

O men, as virtuous mother who gives knowledge of duty to her child, gives him proper nourishing food, as the sun dispels clouds with his rays, in the same way, an army guided in policy by the Commander and vigorous persons brilliant like the sun, destroys all wicked mighty persons who may be like the mountains and quires lands forcibly occupied by them. You should also manifest and spread knowledge so that other vices may disappear from the whole world.

पदार्थान्वयभाषाः - (अंगिरसाम्) विद्याधर्मराज्यप्राप्तिमतां विदुषाम् । अंगिरस इति पदनाम (निघ० ५५ ) = Persons possessing knowledge, righteousness and kingdom. (सरमा) यथा सरान् विद्याधर्मबोधान् मिमीते तथा । आतोऽनुपसर्गे कः इति कः प्रत्ययः || = Mother who gives knowledge of duties to her children.
भावार्थभाषाः - Men should always enjoy happiness, by behaving lovingly with the subjects like mothers, by manifesting knowledge and other virtues like the sun dispelling all darkness of ignorance, by remaining firm in the policy taught by God through the Vedas and followed by learned persons and by doing good to all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी मातेप्रमाणे प्रजेशी वागावे. सूर्याप्रमाणे विद्या इत्यादी उत्तम गुणांचा प्रकाश करावा व ईश्वरी वाणीत व विद्वानांच्या अनुष्ठानाने युक्त नीतीत स्थित व्हावे व सर्वांवर उपकार करीत विद्या इत्यादी सद्गुणाच्या आनंदात सदैव मग्न राहावे. ॥ ३ ॥