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अ॒स्मा इदु॒ प्र भ॑रा॒ तूतु॑जानो वृ॒त्राय॒ वज्र॒मीशा॑नः किये॒धाः। गोर्न पर्व॒ वि र॑दा तिर॒श्चेष्य॒न्नर्णां॑स्य॒पां च॒रध्यै॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u pra bharā tūtujāno vṛtrāya vajram īśānaḥ kiyedhāḥ | gor na parva vi radā tiraśceṣyann arṇāṁsy apāṁ caradhyai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। प्र। भ॒र॒। तूतु॑जानः। वृ॒त्राय॑। वज्र॑म्। ईशा॑नः। कि॒ये॒धाः। गोः। न। पर्व॑। वि। र॒द॒। तिर॑श्चा। इष्य॑न्। अर्णां॑सि। अ॒पाम्। च॒रध्यै॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष (कियेधाः) कितने गुणों को धारण करनेवाला (ईशानः) ऐश्वर्ययुक्त (तूतुजानः) शीघ्र करनेहारे आप जैसे सूर्य्य (अपाम्) जलों के सम्बन्ध से (अर्णांसि) जलों के प्रवाहों को (चरध्यै) बहाने के अर्थ (वृत्राय) मेघ के वास्ते वर्त्तता है, वैसे (अस्मै) इस शत्रु के वास्ते शस्त्र को (प्र) अच्छे प्रकार (भर) धारण कर (तिरश्चा) टेढ़ी गतिवाले वज्र से (गोर्न) वाणियों के विभाग के समान (पर्व) उस के अङ्ग-अङ्ग को काटने को (इष्यन्) इच्छा करता हुआ (इदु) ऐसे ही (विरद) अनेक प्रकार हनन कीजिये ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे सेनापते ! आप जैसे प्राणवायु से तालु आदि स्थानों में जीभ का ताड़न कर भिन्न-भिन्न अक्षर वा पदों के विभाग प्रसिद्ध होते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष शत्रु के बल को छिन्न-भिन्न और अङ्गों को विभागयुक्त करके इसी प्रकार शत्रुओं को जीता करे ॥ १२ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

गो - पर्व - विदारण

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे परमात्मन् ! (तूतुजानः) = शीघ्रता से कार्यों को करते हुए अथवा शत्रुओं का संहार करते हुए (ईशानः) = सबका शासन करनेवाले (कियेधाः) = कियत् प्रमाण अनिर्वचनीय बल को धारण करनेवाले अथवा क्रममाण शत्रुओं को रोकनेवाले आप (अस्मै वृत्राय) = इस ज्ञान के आवरणभूत वासनारूप शत्रु के लिए (इत् उ) = निश्चय से (वज्रम्) = वज्र को प्रभर प्रहत कीजिए । वृत्र को वज्रप्रहार से नष्ट करके इस भक्त के जीवन को प्रकाशमय बनाइए । २. (गोः न पर्व) = गो - पृथिवी के पर्वों की भाँति वेदवाणी के पर्वों को (विरदा) = विश्लिष्ट करनेवाले होओ । एक - एक शब्द को विच्छिन्न करके - उसका निर्वचन करके (तिरश्चा) = [तिरः अञ्चति] छिपकर अन्दर गति करनेवाले (अर्णांसि) = ज्ञानजलों को (इष्यन्) = प्राप्त कराते हुए आप (अपां चरध्ये) = सरस्वती नदी के ज्ञानजलों के चरण के लिए हों । वासना के कारण सरस्वती नदी का जो प्रवाह सूख गया था, वह वासनात्मक वृत्र के विनाश के द्वारा फिर से प्रवाहित होने लगे । आप हमें ऐसी शक्ति प्राप्त कराइए कि हम एक - एक शब्द के अन्दर निहित भाव को उसके विश्लेषण से देखनेवाले बनें । शब्दों की व्युत्पत्ति को समझें और ज्ञान में व्युत्पन्न हो सकें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभुकृपा से हमारी वासना नष्ट हो और हम शब्दों के विश्लेषण के साथ अपने ज्ञान को उज्ज्वल कर सकें ।
टिप्पणी: नोट - यहाँ 'गोर्न पर्व विरदा' - इस वाक्य से गौओं के पर्वों के विदारण का शब्दशः अर्थ लेकर पाश्चात्यों को आर्यों के गोमांस - भक्षण का सन्देह हो गया । वस्तुतः यहाँ वाणी के विश्लेषण से ज्ञानवृद्धि का संकेत है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सभाद्यध्यक्ष ! कियेधा ईशानस्तूतुजानस्त्वं सूर्योऽपामर्णांसि चरध्यै निपातयन् वृत्रायेवास्मै शत्रवे वृत्राय वज्रं प्रभर तिरश्चा वज्रेण गोर्न वाचो विभागमिव तस्य पर्वाङ्गमङ्गं छेत्तुमिष्यन्निदु विरद विविधतया हिन्धि ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) वक्ष्यमाणाय (इत्) अपि (उ) उक्तार्थे (प्र) प्रकृष्टतया (भर) धर (तूतुजानः) त्वरमाणः (वृत्राय) मेघायेव शत्रवे (वज्रम्) शस्त्रसमूहम् (ईशानः) ऐश्वर्यवानैश्वर्यहेतुर्वा (कियेधाः) कियतो गुणान् धरतीति (गोः) वाचः (न) इव (पर्व) अङ्गमङ्गम् (वि) विशेषार्थे (रद) संसेध (तिरश्चा) तिर्यग्गत्या (इष्यन्) जानन् (अर्णांसि) जलानि (अपाम्) जलानाम् (चरध्यै) चरितुं भक्षितुं गन्तुम् ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे सेनेश ! त्वं यथा प्राणवायुना ताल्वादिषु ताडनं कृत्वा भिन्नान्यक्षराणि पदानि विभज्यन्ते, तथैव शत्रोर्बलं छिन्नं भिन्नं कृत्वाङ्गानि विभक्तानि कृत्वैवं विजयस्व ॥ १२ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, ruling lord of manifold power, fast and impetuous, wields the thunderbolt of sunrays for this Vritra, cloud of vapours and darkness, and releasing the waters for the streams to flow on earth, breaks the layers of vapours with the thunderbolt as lightning breaks things into pieces bit by bit.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे सेनापती ! जसे प्राणवायूद्वारे टाळू इत्यादी स्थानी जिभेचे ताडन करून भिन्न भिन्न अक्षर किंवा पदांचे विभाग प्रकट होतात. तसेच सभाध्यक्षाने शत्रूचे बल नष्ट करून त्यांच्या अंगांना छेदून शत्रूंना जिंकावे. ॥ १२ ॥