पदार्थान्वयभाषाः - १. हे प्रभो ! (त्वा) = आपको हमारे (ते) = वे (मदाः) = हर्ष - मानस आह्लाद (अमदन्) = प्रफुल्लित करनेवालें हों । पुत्र के विजयोल्लास को देखकर पिता को प्रसन्नता होती है । गतमन्त्र के अनुसार जब हम 'वीरशुष्मा प्रमति' के द्वारा शत्रुओं को पराजित करते हैं तब हमारे ये विजयोल्लास प्रभु को प्रसन्न करनेवाले होते हैं । २. (तानि वृष्ण्या) = वे हमारे शक्तिसम्पन्न कार्य आपको प्रसन्न करनेवाले हों अथवा प्रजा पर सुखों की वर्षा करनेवाले कार्य आपको प्रसन्न करें । इन पुत्रों के द्वारा किये जानेवाले लोकहितात्मक कार्य आपकी प्रसन्नता का कारण बनें । ३. (वृत्रहत्येषु) = वासनाओं की हत्या हो जाने पर ते (सोमासः) = वे शरीर में ही सुरक्षित सोमकण आपकी प्रसन्नता का कारण बनें । हे (सत्पते) = सज्जनों के रक्षक प्रभो ! आपको हमारे 'विजयोल्लास, वीरतापूर्ण कार्य तथा सोमकणों का रक्षण' प्रसन्नता देनेवाले हों । वस्तुतः सज्जन व्यक्ति वही है जो [क] शत्रुओं को जीतकर मानस प्रसाद से परिपूर्ण है, [ख] जो शक्तिशाली कार्यों द्वारा लोकहित में प्रवृत्त है तथा [ग] सोमों के रक्षण का पूर्ण ध्यान करता है । ४. ऐसा हो तभी पाता है (यत्) = जबकि हे प्रभो ! आप (कारवे) = कलापूर्ण ढंग से, सुन्दरता से सब कार्यों को करनेवाले (बर्हिष्मते) = यज्ञशील पुरुष के लिए (दश सहस्त्राणि) = इन अनन्त व सहस्रों रूपोंवाले (वृत्राणि) = ज्ञान के आवरणभूत वासनात्मक भावों को (अप्रति) = शत्रुओं के लिए अप्रतिरथ योद्धा के समान (निबर्हयः) = पूर्णरूप से विध्वस्त कर देते हैं । हम सब कार्यों को कुशलता से करने में लगे रहें, यज्ञशील बनें तो प्रभुकृपा से हमारी सब वासनाएँ स्वतः नष्ट हो जाती हैं । वासनाओं के विनाश का सर्वोपरि सुन्दर साधन यही है कि 'अपने कर्तव्य - कर्मों में अप्रमाद से लगे रहना' ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'मनः प्रसाद, लोकहितात्मक कर्मों व सोमरक्षणों' से प्रभु को प्रसन्न करें । प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करेंगे ।