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येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒ण्यन्तं॒ जनाँ॒ अनु॑ । त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yenā pāvaka cakṣasā bhuraṇyantaṁ janām̐ anu | tvaṁ varuṇa paśyasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

येन॑ । पा॒व॒क॒ । चक्ष॑सा । भु॒र॒ण्यन्त॑म् । जना॑न् । अनु॑ । त्वम् । व॒रु॒ण॒ । पश्य॑सि॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:50» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावक) पवित्रकारक (वरुण) सबसे उत्तम जगदीश्वर ! आप (येन) जिस (चक्षसा) विज्ञान प्रकाश से (भुरण्यन्तम्) धारण वा पोषण करते हुए लोकों वा (जनान्) मनुष्यादि को (अनुपश्यसि) अच्छे प्रकार देखते हो उस ज्ञान प्रकाश से हम लोगों को संयुक्त कृपापूर्वक कीजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर की उपासना के विना किसी मनुष्य को विज्ञान वा पवित्रता होने का संभव नहीं हो सकता इससे सब मनुष्यों को एक पमेश्वर ही की उपासना करनी चाहिये ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

भुरण्यन् - लोकभरण करनेवाला

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (पावक) = प्रकाश से जीवनों को पवित्र करनेवाले ! (वरुण) = सब रोगों व आसुर भावनाओं के निवारण करनेवाले सूर्य ! (त्वम्) = तू (जनान् भुरण्यन्तम्) = लोगों का भरण - पोषण करनेवाले को - लोकों के धारणात्मक कर्मों में लगे हुए पुरुष को (येन चक्षसा) = जिस प्रकाश से (अनुपश्यसि) = अनुकूलता से देखता है, उसी प्रकाश को हम प्राप्त करें । वही प्रकाश हमसे स्तुति के योग्य हो । २. जो लोग द्वेष का निवारण करके [वरुण], अपने हृदयों को पवित्र बनाकर [पावक] लोकहितकारी कार्यों में प्रवृत्त होते हैं [भुरण्यन्तम्] - उनके लिए सूर्य का प्रकाश सदा हितकारी होता है । वस्तुतः हमारी वृत्ति उत्तम होती है तो संसार भी हमारे लिए उत्तम होता है । हमारी वृत्ति में न्यूनता आने पर ये प्रकृति के देवता भी हमारे लिए उतने हितकर नहीं रहते । अन्यत्र मन्त्र में कहा है कि जल व ओषधियाँ द्वेष करनेवाले के लिए हितकर नहीं होती - "सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्ट यं च वयं द्विष्मः ।"
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सूर्य का प्रकाश उनके लिए हितकर होता है जो लोकों का भरण करनेवाले होते हैं ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(येन) वक्ष्यमाणेन (पावक) पवित्रकारकेश्वर (चक्षसा) प्रकाशेन (भुरण्यन्तम्) धरन्तम् (जनान्) मनुष्यादीन् (अनु) पश्चादर्थे (त्वम्) उक्तार्थः (वरुण) सर्वोत्कृष्ट (पश्यसि) संप्रेक्षसे ॥६॥

अन्वय:

पुनः स कीदृशइत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पावक वरुण जगदीश्वर ! त्वं येन चक्षसा विज्ञानप्रकाशेन भुरण्यन्तं लोकं जनाँश्चानुपश्यसि तेन युक्तानस्मान् कृपया संपादय ॥६॥
भावार्थभाषाः - नहि परमेश्वरोपासनेन विना कस्यचिद्विज्ञानं पवित्रता च संभवति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरेक एवेश्वर उपासनीयः ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Lord purifier and sanctifier, with the eye with which you watch the mighty world of dynamic activity and humanity holding everything in equipoise, with the same kind and benign eye watch and bless us.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराच्या उपासनेशिवाय एखाद्या माणसाला विज्ञान व पवित्रता प्राप्त करणे अशक्य आहे. त्यासाठी सर्व माणसांनी एकाच परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे. ॥ ६ ॥