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अ॒र्वाञ्चं॒ दैव्यं॒ जन॒मग्ने॒ यक्ष्व॒ सहू॑तिभिः । अ॒यं सोमः॑ सुदानव॒स्तं पा॑त ति॒रोअ॑ह्न्यम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvāñcaṁ daivyaṁ janam agne yakṣva sahūtibhiḥ | ayaṁ somaḥ sudānavas tam pāta tiroahnyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒र्वाञ्च॑म् । दैव्य॑म् । जन॑म् । अग्ने॑ । यक्ष्व॑ । सहू॑तिभिः । अ॒यम् । सोमः॑ । सु॒दा॒न॒वः॒ । तम् । पा॒त॒ । ति॒रःअ॑ह्न्यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:45» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:32» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुदानवः) उत्तम दान शील विद्वान् लोगो ! आप (सहूतिभिः) तुल्यआह्वान युक्त क्रियाओं से (अर्वाञ्चम्) वेगादि गुण वाले घोड़ों को प्राप्त करने वा कराने (दैव्यम्) दिव्य गुणों में प्रवृत्त (तिरोअह्न्यम्) चोर आदि का तिरस्कार करनेहारे दिन में प्रसिद्ध (जनम्) पुरुषार्थ में प्रकट हुए मनुष्य की (पात) रक्षा कीजिये और जैसे (अयम्) यह (सोमः) पदार्थों के समूह सबके सत्कारार्थ है तथा (तम्) उसको तू भी (यक्ष्व) सत्कार में संयुक्त कर ॥१०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सर्वदा सज्जनों को बुला सत्कार कर सब पदार्थों को विज्ञान शोधन और उनसे उपकार ले और उत्तरोत्तर इसको जानकर इस विद्या का प्रचार किया करें ॥१०॥ इस सूक्त में वसु, रुद्र और आदित्यों की गति तथा प्रमाण आदि कहा है इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥४५॥ यह ४५ सूक्त और ३२ का वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देव - सङ्ग

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! आप कृपा करके (अर्वाञ्चम्) - [अर्वाग् अञ्चति] अन्तर्मुख यात्रावाले, बाह्य विषयों की और न जानेवाले (दैव्यं जनम्) - देववृत्ति के लोगो को (सहूतिभिः) - समान पुकारों से (यक्ष्व) - संगत कीजिए, अर्थात् आपकी कृपा से हमारे साथ अन्तर्मुख वृत्तिवाले देव लोगों का सम्पर्क हो और उन सब देववृत्ति के लोगों की एक ही पुकार व आराधना हो कि  २. हे (सुदानवः) - उत्तम दानशील पुरुषो ! उत्तमता से वासनाओं को विनष्ट करनेवाले [दा लवणे] पुरुषो ! इस प्रकार जीवन का सुन्दर शोधन [दैप् शोधने] करनेवालो ! (अयं सोमः) - यह सोम है - प्रभु की व्यवस्था के द्वारा तुम्हारे शरीरों में रसादि के क्रम से इसका उत्पादन हुआ है । (तम्) - उस सोम को (पात) - शरीर में ही इस प्रकार सुरक्षित करो कि (तिरः) - शरीर में ही अन्तर्हित हो जाए । (अह्न्यम्) - [अह व्याप्तौ] रुधिर में ही इस प्रकार व्याप्त हो जाए जैसेकि दही में घृत अथवा तिलों में तेल व्याप्त होता है ।  ३. वस्तुतः वासना की उष्णता ही सोम को रुधिर से पृथक् करती है । उसके अभाव में सोम शरीर में सुरक्षित रहेगा ही । इस वासना - विनाश के लिए आवश्यक है कि हमें सदा उत्तम पुरुषों का सङ्ग प्राप्त होता रहे, जिनसे हमें सदा 'सोमपान' की प्रेरणा प्राप्त होती रहे । यह सोमपान ही हमें उस 'सोम' प्रभु का दर्शन कराएगा ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमें सदा देवपुरुषों का सम्पर्क प्राप्त हो और हम सत्प्रेरणा को प्राप्त होते हुए वासनाओं से दूर रहकर सोमपान - क्षम बनें ।   
टिप्पणी: विशेष—इस सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि हमें 'वसु, रुद्र व आदित्यों' का सम्पर्क प्राप्त हो [१] । देवों के सम्पर्क में आकर हम भी देव बनें [२] । हम 'प्रियमेध, अत्रि, विरूप व अङ्गिरस्' हों [३] । हम यज्ञ करें, प्रभु हमारे यज्ञों के रक्षक हों [४] । वेदज्ञान के अनुसार हम अनुष्ठान करें और प्रभु से 'अन्न, धन, यश व रक्षण' प्राप्त करें [५] । प्रभु ही हमें सब हव्य पदार्थों के देनेवाले हैं [६] । ज्ञान - यज्ञों के द्वारा हम उस प्रभु का उपासन करें [७] । सुतसोम आचार्यों का सम्पर्क हमें प्राप्त हो [८] । हम प्रातः उठे और यज्ञों में प्रवृत्त हो जाएँ [९] । देवपुरुषों के सम्पर्क, सत्प्रेरणा को प्राप्त होते हुए सोमरक्षण के लिए यत्नशील हों [१०] । प्रातः प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना के लिए सन्नद्ध हों -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अर्वाश्चम्) योऽर्वतो वेगादिगुणानश्वानंचति प्राप्नोति तम् (दैव्यम्) दिव्यगुणेष भवम् (जनम्) पुरुषार्थेषु प्रादुर्भूतम् (अग्ने) विद्वन् (यक्ष्व) संगच्छस्व (सहूतिभिः) समाना हूतयः। आह्वानानि च सहूतयस्ताभिः (अयम्) प्रत्यक्षः (सोमः) विद्यैश्वर्ययुक्तः (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां विदुषां तत्सम्बुद्धौ (तम्) (पात) रक्षत (तिरोअह्न्यम्) अहनि भवमह्न्यम्। तिरस्कृतमाच्छादितमह्न्यम् येन तम्। अत्र प्रकृत्यान्तः पादमव्यपरे। इति प्रकृतिभावः ॥१०॥

अन्वय:

पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सुदानवो विद्वांसो ! यूयं सहूतिभिस्तमर्वाञ्चं दैव्यं तिरोअह्न्यं जनं पात यथायं सोमः सत्कार्य्यस्ति तथा त्वमप्येतान्यक्ष्व सत्कुरु ॥१०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वदा सज्जनानाहूय सत्कृत्य सर्वेषां पदार्थानां विज्ञानं शोधनं तेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमुत्तरोत्तरमेतद्विज्ञायैतद्विद्याप्रचारश्च कार्य्यः ॥१०॥ अस्मिन्सूक्ते वसुरुद्रादित्यानां प्रमाणादिचोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्। इति ४५ सूक्तम् वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, fiery genius of yajna, welcome the lovers of divinity come up for the yajaka and conduct the yajna with joint invocations and libations into the holy fire. Generous creators of wealth and honour, this is the soma of delight and beauty earlier distilled in the day. Protect it, promote it and enjoy it.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी नेहमी सज्जनांना आमंत्रित करून सत्कार करावा. सर्व पदार्थांचे विज्ञानाने संशोधन करावे व त्यांचा उपयोग करून घ्यावा. उत्तरोत्तर हे जाणून या विद्येचा प्रचार करावा. ॥ १० ॥