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स॒वि॒तार॑मु॒षस॑म॒श्विना॒ भग॑म॒ग्निं व्यु॑ष्टिषु॒ क्षपः॑ । कण्वा॑सस्त्वा सु॒तसो॑मास इन्धते हव्य॒वाहं॑ स्वध्वर ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

savitāram uṣasam aśvinā bhagam agniṁ vyuṣṭiṣu kṣapaḥ | kaṇvāsas tvā sutasomāsa indhate havyavāhaṁ svadhvara ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒वि॒तार॑म् । उ॒षस॑म् । अ॒श्विना॑ । भग॑म् । अ॒ग्निम् । विउ॑ष्टिषु । क्षपः॑ । कण्वा॑सः । त्वा॒ । सु॒तसो॑मासः । इ॒न्ध॒ते॒ । ह॒व्य॒वाह॑म् । सु॒अ॒ध्व॒र॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:44» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:9» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा और किसके सहाय से किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वध्वर) उत्तम यज्ञ वाले विद्वान् ! जो (सुतसोमाः) उत्तम पदार्थों को सिद्ध करते (कण्वासः) मेधावी विद्वान् लोग (व्युष्टिषु) कामनाओं में (सवितारम्) सूर्य्य प्रकाश (उषसम्) प्रातःकाल (अश्विना) वायुजल (क्षपः) रात्रि और (हव्यवाहम्) होम करने योग्य द्रव्यों को प्राप्त करानेवाले (त्वा) आपको (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रकाशित करते हैं, वह आप भी उनको प्रकाशित कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सब क्रियाओं में दिन-रात प्रयत्न से सूर्य्य आदि पदार्थों को संयुक्त कर वायु वृष्टि की शुद्धि करनेवाले शिल्परूप यज्ञ को प्रकाश करके कार्य्यों को सिद्ध और विद्वानों के संग से इनके गुण जानें ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कण्व व सुतसोम

पदार्थान्वयभाषाः - १. (व्युष्टिषु) - उषः कालों में और (क्षपः) - रात्रि को, अर्थात् दिन तथा रात्रि के प्रारम्भ में (कण्वासः) - मेधावी पुरुष (सवितारम्) - सबको कर्मों में प्रेरणा देनेवाले सूर्य को (इन्धते) - अपने में दीप्त करते हैं । सूर्य का ध्यान करके सूर्य से 'सतत क्रियाशीलता' की दीक्षा लेते हैं और इस निरन्तर कर्म - संलग्नता के द्वारा वासनाओं से बचकर सूर्य की भाँति ही चमकते हैं,  २. (उषसम्) - ये उषा को अपने में समिद्ध करते हैं और जैसे उषा [उष दाहे] अन्धकार का दहन करती है, उसी प्रकार ये अपने अज्ञानान्धकार का दहन करने के लिए यत्नशील होते हैं ।  ३. (अश्विना) - ये प्राणापान की साधना करते हैं । इस प्राणसाधना से ये शरीर व मन को स्वस्थ व निर्मल बनाते हैं । यह प्राणसाधना इनके मस्तिष्क को भी दीप्त करनेवाली होती है ।  ४. (भगम्) - मेधावी पुरुष 'भग' को अपने में दीप्त करता है । यह 'भग' ऐश्वर्य की देवता है । सांसारिक यात्रा के लिए आवश्यक ऐश्वर्य को जुटाना भी प्रभु - प्राप्ति के लिए एक साधन है । तुलसीदास ने 'भूखे भजन न होई' इन शब्दों में इस सत्य को व्यक्त किया है ।  ५. (अग्निम्) - ये अग्नि को अपने में दीप्त करते हैं । अग्नि से प्रकाश व आगे बढ़ने की दीक्षा लेते हैं ।  ६. हे (स्वध्वर) - सब उत्तम, हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों को सिद्ध करनेवाले प्रभो ! (सुतसोमासः) - अपने में सोम का सम्पादन करनेवाले, वीर्यशक्ति को शरीर में ही उत्पन्न व सुरक्षित करनेवाले व्यक्ति (हव्यवाहम्) - सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (त्वा) - आपको (इन्धते) - अपने हृदयों में दीप्त करते हैं । प्रभु - प्राप्ति व प्रभु - दर्शन का उपाय 'कण्व व सुतसोम' बनना है । हम कण्व मेधावी बनें, अपने में सोमशक्ति की रक्षा करें तभी हम प्रभुदर्शन कर सकेंगे । प्रभुदर्शन के लिए, उस महान् देव के स्वागत के लिए हम 'सविता, उषा, अश्विनौ, भग व अग्निदेव' को अपने जीवन में लाएँ । यह देवों को जीवन में लाना ही प्रभु के स्वागत की तैयारी है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम अपने जीवनों में 'सविता, उषा, अश्विनौ, भग व अग्नि' आदि देवों को प्रातः - सायं पूजन करते हुए मेधावी व सशक्त बनकर प्रभु के स्वागत की तैयारी करते हैं ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(सवितारम्) सूर्य्यप्रकाशम् (उषसम्) प्रातःकालम् (अश्विना) वायुजले (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (अग्निं) विद्युतम् (व्युष्टिषु) कामनासु (क्षपः) रात्रीः (कण्वासः) मेधाविनः (त्वा) त्वाम् (सुतसोमासः) सुताः सम्पादिता उत्तमाः पदार्था यैस्ते (इन्धते) दीप्यन्ते (हव्यवाहम्) यो हव्यानि वहति प्राप्नोति तम् (स्वध्वर) शोभना अध्वरा यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥८॥

अन्वय:

पुनस्तं कीदृशं जानीयुः केन सह च किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्वध्वर विद्वन् ! ये सुतसोमाः कण्वासो व्युष्टिषु सवितारमुषसमश्विनौ भगमग्निं क्षपो हव्यवाहं त्वां च समिन्धते ताँस्त्वमपि दीप्यस्व ॥८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वासु क्रियास्वहोरात्रे सवित्रादीन्पदार्थान् संप्रयोज्य वायुवृष्टिशुद्धिकराणि शिल्पादीनि सर्वाणि कार्य्याणि संपादनीयानि केनापि विद्वत्सङ्गेन विनैतेषां गुणज्ञानाभावात् क्रियासिद्धिं कर्त्तुं नैव शक्यत इति ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, lord of light, high-priest of great yajnas, wise scholars, and those who have distilled the soma essence of life in their visions of light and life’s joy, invoke, study and develop the powers and blessings of Savita, inspiring light of the sun, the dawn, the Ashvins, water and air, Bhaga, universal vitality and majesty of divine nature, Agni, energy of heat, light and electricity, the nights and showers of peace, and yajna which is the harbinger of all the blessings of life and its wealth.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्व क्रियेमध्ये दिवसरात्र प्रयत्नपूर्वक सूर्य इत्यादी पदार्थांना संयुक्त करून वायू वृष्टीची शुद्धी करणाऱ्या शिल्परूपी यज्ञाला प्रकाशित करावे व कार्य सिद्ध करावे आणि विद्वानांच्या संगतीने त्यांचे गुण जाणावे. ॥ ८ ॥