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यास्ते॑ प्र॒जा अ॒मृत॑स्य॒ पर॑स्मि॒न्धाम॑न्नृ॒तस्य॑ । मू॒र्धा नाभा॑ सोम वेन आ॒भूष॑न्तीः सोम वेदः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yās te prajā amṛtasya parasmin dhāmann ṛtasya | mūrdhā nābhā soma vena ābhūṣantīḥ soma vedaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः । ते॒ । प्र॒जाः । अ॒मृत॑स्य । पर॑स्मिन् । धाम॑न् । ऋ॒तस्य॑ । मू॒र्धा । नाभा॑ । सो॒म॒ । वे॒नः॒ । आ॒भूष॑न्तीः । सो॒म॒ । वे॒दः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:43» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसकी कौन कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) विज्ञान के देनेवाले (वेनः) कमनीयस्वरूप (मूर्द्धा) सर्वोत्तम ! तू (ऋतस्य) सत्यस्वरूप वा सत्यप्रिय (अमृतस्य) नाश रहित (नाभा) स्थिर सुख के बन्धनरूप (धामन्) न्याय वा आनन्दमय स्थान में वर्त्तमान ईश्वर के समान न्यायकारी (ते) तेरी (याः) जो (प्रजाः) प्रजा हैं उनको (आभूषन्तीः) सब प्रकार भूषणयुक्त होने की (वेनः) इच्छा कर और उनको (वेदः) सब विद्याओं से प्राप्त हो ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जहां मनुष्य ईश्वर ही की उपासना करनेहारे अत्युत्तम सभाध्यक्ष का आश्रय करते हैं वहां वे दुःख के लेश को भी नहीं प्राप्त होते जैसे परमेश्वर और सभाध्यक्ष श्रेष्ठ आचरण करनेवाले मनुष्यों की इच्छा करते हैं वैसे ही प्रजा में रहनेवाले मनुष्य परमेश्वर वा सभाध्यक्ष की नित्य इच्छा करें क्योंकि इसके विना बहुत सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकते ॥९॥ इस सूक्त में रुद्र शब्द के अर्थ का वर्णन सब सुखों का प्रतिपादन मित्रपन का आचरण परमेश्वर वा सभाध्यक्ष के आश्रय से सुखों की प्राप्ति एक ईश्वर ही की उपासना परमसुख की प्राप्ति और सभाध्यक्ष का आश्रय करना कहा है इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तैंतालीसवां सूक्त और सत्ताईसवां वर्ग समाप्त हुआ ॥४३।२७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अमृत के परधाम में

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (सोम) - शान्त परमात्मन् ! (याः) - जो (ते प्रजाः) - तेरी प्रजाएँ हैं, अर्थात् जो प्राकृतिक भोगों में न फँसकर तेरा स्मरण करनेवाले हैं ।  २. जो (अमृतस्य) - [अमृतं हिरण्यम, नि०१२] अमृत के, हिरण्य के, हितरमणीय वीर्य व सोमशक्ति के (परस्मिन् धामन्) - सर्वोत्कृष्ट स्थान में रहता है । सोम का सर्वोत्कृष्ट स्थान मस्तिष्क है । सोम की ऊर्ध्वगति होकर अन्ततः यह मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है । यह मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि ही सोम का सर्वोत्कृष्ट स्थान है । इसमें रहने का अभिप्राय है - ज्ञान में विचरना । यही ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है ।  ३. (ऋतस्य मूर्धा) - जो व्यक्ति ऋत के शिखर पर वर्तमान होता है, अर्थात् ऋत का पूर्णरूप से पालन करता है - सब क्रियाओं को ठीक समय व ठीक स्थान पर करता है ।  ४. (नाभा) - जो नाभि में रहता है - 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः', यह यज्ञ ही भुवन की नाभि है । नाभि में रहना अर्थात् यज्ञमय जीवनवाला बनना । इस यज्ञमय जीवनवाले पुरुष को ही हे (सोम) - प्रभो ! आप (वेनः) - [कामयस्व] चाहते हो । यही पुरुष आपको प्रिय होता है । हे (सोम) - शान्तात्मन् प्रभो ! (आभूषन्तीः) - अन्नमयकोश को तेज से, प्राणमय को वीर्य से, मनोमय को बल व ओज से, विज्ञानमय को मन्यु व विज्ञान से तथा आनन्दमय को सहस् से - इस प्रकार शरीर को सर्वतः अलंकृत करती हुई प्रजाओं को (वेदः) - आप प्राप्त कीजिए व जानिए, अर्थात् इनके रक्षण का ध्यान कीजिए ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु के प्रिय वे ही व्यक्ति होते हैं, जो प्राकृतिक भोगों में नहीं फँसते, ऋत का पालन करते हैं, यज्ञशील होते हैं और अपने को गुणों से अलंकृत करते हैं ।   
टिप्पणी: विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि कब हम प्रभु के लिए शन्तम स्तोत्र का उच्चारण करेंगे [१], ताकि अदिति हमारा कल्याण करे [२] । मित्र, वरुण, रुद्र व सब देव हमारे निवास को उत्तम बनाएँ व नीरोगता दें [३] । सुखप्राप्ति के मूल साधन 'ज्ञान - प्राप्ति, यज्ञ, प्रभु - प्रेरणा को सुनना व जलों का समुचित प्रयोग' हैं [४] । वे प्रभु सूर्य व स्वर्ण की भाँति देदीप्यमान हैं [५] । वे हमारे "अश्व - मेष, नर - नारी व गौओं" के लिए कल्याण करें [६] । हमें 'श्री, श्रव व नृम्ण' प्राप्त कराएँ [७] । प्रभुकृपा से हम अयज्ञशील व अदानशील व्यक्तियों से दब न जाएँ [८] । ऋत को व यज्ञ को अपनाते हुए प्रभु के प्रिय हों [९] । प्रभु हमें उषः काल के अद्भुत धन को प्राप्त कराएँ -   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(याः) वक्ष्यमाणाः (ते) तव जगदीश्वरस्येव सभाध्यक्षस्य (प्रजाः) प्रादुर्भूताः पालनीयाः (अमृतस्य) नाशरहितस्य कारणस्य सकाशाद्वोत्पन्नाः (परस्मिन्) उत्तमे (धामन्) धामन्यानन्दमये स्थाने (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य सत्यप्रियस्य वा (मूर्द्धा) उत्तमः (नाभा) सन्नहनस्य सुखस्थिरस्य बन्धनरूपे। अत्र सुपां सुलुक् इत्याकारादेशः। (सोम) सर्वसुखैश्वर्यप्रद (वेनः) कामयस्व (आभूषन्तीः) समन्ताद्भाषणयुक्ताः (सोम) विज्ञानप्रद (वेदः) प्राप्नुहि ॥९॥

अन्वय:

पुनरेतस्य का कीदृशीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! वेनो मूर्द्धा त्वमृतस्याऽमृतस्य नाशरहितस्य नाभा परस्मिन्धामन् वर्त्तमानस्थेश्वरस्ये ते याः प्रजाः सन्ति ता आभूषन्तीर्वेदः सर्वाभिर्विद्याभिः प्राप्नुहि ॥९॥
भावार्थभाषाः - यत्र मनुष्या अद्वितीयस्येश्वरस्योपासकस्य सभाद्यध्यक्षस्य चाश्रयं कुर्वन्ति तत्रैते दुःखस्य लेशमपि न प्राप्नुवन्ति। यथा परमेश्वरः श्रेष्ठाचारिणो मनुष्यान् कामयते सभाध्यक्षश्च तथैव प्रजास्थैरपि पुरुषैः परमेश्वरसभाध्यक्षौ नित्यं कामनीयौ नैतत्कामनया विना विस्तृतं सुखं कदाचित्सम्भवतीति ॥९॥ अस्मिन् सूक्ते रुद्रशब्दार्थवर्णनं सर्वसुखप्रतिपादनं मित्रताऽऽचरणं परमेश्वरसभाध्यक्षाश्रयेण सर्वसुखप्रापणमेकस्येश्वरस्योपासनं परमसुखप्रापणं सभाद्यध्यक्षाश्रयकरणं चोक्तमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति त्रयश्चत्वारिंशं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Soma, lord of peace and prosperity, Vena, blessed presence of beauty and grace, these are your people trying to reach the prime centre of immortal truth and law. Know these, love these, and help them reach and abide in the highest heaven of joy.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

अन्वय:

In case of God- (1) O God Giver of all knowledge and happiness, Thou art to be desired by all, the Head, the Central Point. All these people decorated with the ornament of education are Thy subjects and Thy children of who art absolutely True and immortal and abiding in Thy most Blissful state and at the highest place of the law (whose laws are eternal). Endow them with all true knowledge and wisdom. Love and cherish them as they honor Thee. In the case of the President of the Assembly- (2) O President of the assembly, desired by all, the head, the central point or the summit (of administration), all these subjects are thy children. Thou abidest in the highest law of God who is Immortal and absolutely True. Cherish them well. Endow them with true knowledge and wisdom.

पदार्थान्वयभाषाः - ( धामन्) धामनि आनन्दमये स्थाने = In absolutely Blissful State.,
भावार्थभाषाः - When people take shelter in God who is un-paralleled and the President of the Assembly who is devoted to Him, they do not suffer at all. As God desires men of noble character and conduct and the President of the Assembly also does the same, in the same manner, all subjects should always desire God and the President of the Assembly. Without this sort of desire, real and vast happiness can not be attained.
टिप्पणी: In this hymn, various meanings of Rudra, the means of the attainment of all happiness with the help of God and the President of the Assembly, worship of God and allied subjects have been dealt with, so it has direct connection with the previous hymn. Here ends the commentary on the forty-third hymn of the 1st Mandala of the Rigveda.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेथे माणसे ईश्वराचीच उपासना करणाऱ्या अत्युत्तम सभाध्यक्षाचा आश्रय घेतात. तेथे त्यांना थोडेही दुःख प्राप्त होत नाही. जसे परमेश्वर व सभाध्यक्ष यांना श्रेष्ठ आचरण करणारी माणसे आवडतात. तसेच प्रजेत राहणाऱ्या माणसांनी परमेश्वर व सभाध्यक्षाची नित्य कामना करावी. कारण त्याशिवाय पुष्कळ सुख कधी प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ ९ ॥