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देवता: सोमः ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

अ॒स्मे सो॑म॒ श्रिय॒मधि॒ नि धे॑हि श॒तस्य॑ नृ॒णाम् । महि॒ श्रव॑स्तुविनृ॒म्णम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asme soma śriyam adhi ni dhehi śatasya nṛṇām | mahi śravas tuvinṛmṇam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मे इति॑ । सो॒म॒ । श्रिय॑म् । अधि॑ । नि । धे॒हि॒ । श॒तस्य॑ । नृ॒णाम् । महि॑ । श्रवः॑ । तु॒वि॒नृ॒म्णम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:43» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मंत्र में रुद्र के गुणों का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) जगदीश्वर सभाध्यक्ष वा आप (अस्मे) हम लोगों के लिये वा हम लोगों के (शतस्य) बहुत (नृणाम्) वीरपुरुषों के (तुविनृम्णम्) अनेक प्रकार के धन (महि) पूज्य वा बहुत (श्रवः) विद्या का श्रवण और (श्रियम्) राज्यलक्ष्मी को (आधिनिधेहि) स्थापन कीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। कोई प्राणी परमेश्वर की कृपा सभाध्यक्ष की सहायता वा अपने पुरुषार्थ के विना पूर्ण विद्या पशु चक्रवर्त्ती, राज्य और लक्ष्मी को प्राप्त नहीं हो सकता ॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

श्री - श्रव - नृम्ण

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (सोम) - शान्त परमात्मन् ! आप (अस्मे) - हममें (नृणां शतस्य) - सौ मनुष्यों की (श्रियम्) - श्री को (अधिनिधेहि) - आधिक्येन स्थापित कीजिए । श्री के दो अर्थ है -  [क] सम्पत्ति, [ख] शोभा । यहाँ दोनों अर्थों का समन्वय करके अर्थ इस प्रकार है कि हमें वह सम्पत्ति प्राप्त कराइए जो हमारी शोभा की वृद्धि का कारण बने ।  २. हे सोम ! हमें (महि) - महनीय - प्रशंसनीय (श्रवः) - [श्रूयत इति] ज्ञान प्राप्त कराइए जो ज्ञान हमारे यश [श्रवः प्रशंसा, नि० ४/२४] का कारण बने । यह ज्ञान वाद - विवाद में ही विनियुक्त न होता रहे ।  ३. हे प्रभो ! आप हमें (तुविनृम्णम्) - बहुत बल प्राप्त कराइए [नृम्ण - बल, सा०] अथवा वे [अन्नं वै नृम्णम्, कौ० २७/४] अन्न प्राप्त कराइए जो बल देनेवाले हों ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें वह सम्पत्ति प्राप्त हो जो शोभा का कारण बने, वह ज्ञान प्राप्त हो जो कीर्ति को फैलानेवाला हो, वह अन्न मिले जो बल को बढ़ानेवाला हो ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अस्मे) अस्मभ्यमस्माकं वा अत्र सुपां सुलुग् इति शे आदेशः। (सोम) सर्वसुखप्रापक सभाध्यक्ष (श्रियम्) लक्ष्मीं विद्यां भोगान् धनं वा (अधि) उपरिभावे (नि) निश्चयार्थे (धेहि) स्थापय (शतस्य) बहूनाम् (नृणाम्) वीरपुरुषाणाम् (महि) पूज्यम्महद्वा (श्रवः) विद्याश्रवणमन्नं वा (तुविनृम्णम्) बहुविधं धनम् ॥७॥

अन्वय:

पुनस्तद्गुणाउपदिश्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम सभाध्यक्ष ! त्वमस्मे अस्मभ्यमस्माकं वा शतस्य नृणां तुविनृम्णं महि श्रवः श्रियं चाधिनिधेहि ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रश्लेषाऽलङ्कारः। नहि कश्चित्परमेश्वरस्य कृपया सभाध्यक्षसहायेन स्वपुरुषार्थेन च विना पूर्णां विद्यां पशूँश्चक्रवर्त्तिराज्यं लक्ष्मीं च प्राप्तुं शक्नोतीति ॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Rudra, lord ruler of the world, Soma, joyous, kind and beatific, bring us and establish over the earth wealth and beauty, honour and fame, dignity and grandeur of a high exciting kind and quality for all the hundred orders of humanity.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

अन्वय:

O Soma (God or President of the Assembly) bestow on us, the glory of a hundred men, the great renown, knowledge, wealth and food of mighty leaders.

पदार्थान्वयभाषाः - [तुविनृम्णम्] बहुविधं धनम् = Wealth of various kinds. [ तुवीति बहुनाम निघ. ३.१ ] नृम्णम् इति धननाम [ निघ० २.१०] Tr. [ सोम] सर्वसुखप्रापक सभाध्यक्ष = O President of the Assembly-bringer of all happiness. षु-प्रसवैश्वर्ययोः
भावार्थभाषाः - There is Shleshalankara or double entendre here. None can acquire knowledge and wealth (of all kinds) without the Grace of God, the help of the President of the Assembly and his own exertion.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. कोणताही प्राणी परमेश्वराची कृपा, सभाध्यक्षाचे साह्य व आपल्या पुरुषार्थाशिवाय पूर्ण विद्या, पशू, चक्रवर्ती राज्य व लक्ष्मी प्राप्त करू शकत नाही. ॥ ७ ॥