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यं य॒ज्ञं नय॑था नर॒ आदि॑त्या ऋ॒जुना॑ प॒था । प्र वः॒ स धी॒तये॑ नशत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaṁ yajñaṁ nayathā nara ādityā ṛjunā pathā | pra vaḥ sa dhītaye naśat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम् । य॒ज्ञम् । नय॑थ । न॒रः॒ । आदि॑त्याः । ऋ॒जुना॑ । प॒था । प्र । वः॒ । सः । धी॒तये॑ । न॒श॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:41» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये किस की रक्षा कर किस को प्राप्त होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आदित्याः) सकलविद्याओं से सूर्य्यवत् प्रकाशमान (नरः) न्याययुक्त राजसभासदो ! आप लोग (धीतये) सुखों को प्राप्त करानेवाली क्रिया के लिये (यम्) जिस (यज्ञम्) राजधर्मयुक्त व्यवहार को (ऋजुना) शुद्ध सरल (पथा) मार्ग से (नयथ) प्राप्त होते हो (सः) सो (वः) तुम लोगों को (प्रणशत्) नष्ट करने हारा नहीं होता ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मंत्र से (न) इस पद की अनुवृत्ति हैं जहां विद्वान् लोग सभा सेनाध्यक्ष सभा में रहनेवाले भृत्य होकर विनयपूर्वक न्याय करते हैं, वहां सुख का नाश कभी नहीं होता ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

परोपकार से स्वोपकार

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (नरः) - सदा उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़नेवाले (आदित्याः) - गुणों का आदान करनेवाले पुरुषो ! (यं यज्ञम्) - जिस लोकहित के कार्य को (ऋजुना पथा) - सरल मार्ग से (नयथा) - आप पूर्णता की ओर ले - चलते हो (सः) - वह यज्ञ (वः) - तुम्हारे ही (धीतये) - पान व उपभोग के लिए (प्रनशत्) - प्रकर्षेण प्राप्त होता है, अर्थात् उस यज्ञ के द्वारा परहित करते हुए आप अपना भी हित सिद्ध कर पाते हो ।  २. संसार में परार्थ से सदा स्वार्थ तो सिद्ध होता ही है । वस्तुतः सारा संसार परस्पर उपकारी है । मनुष्य देवों को अग्निरूप मुख के द्वारा अन्न प्राप्त कराता है, फिर वे देव वृष्टि द्वारा मनुष्य को अन्न प्राप्त कराते हैं । एवं, मनुष्य देवों को प्राप्त कराता हुआ अपने को ही प्राप्त करा रहा होता है । हम औरों के प्रति मधुर शब्द बोलते हैं तो उनसे स्वयं भी मधुर शब्द सुनते हैं । संसार में हमारी क्रियाओं की ही प्रतिक्रिया हुआ करती है । जो भला मैं करता है, वह मुझे ही फिर प्राप्त हो जाता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम औरों का जो उपकार करते हैं, उससे हमारा उपकार हो जाता है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(यम्) वक्ष्यमाणम् (यज्ञम्) शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राजव्यवहारम् (नयथ) प्राप्नुथ। अत्रान्येषामपि इति दीर्घः। (नरः) नयन्ति सत्यं व्यवहारं प्राप्नुवन्त्यसत्यं च दूरीकुर्वंति तत्सम्बुद्धौ (आदित्याः) पूर्वोक्ता वरुणादयो विद्वांसः (ऋजुना) सरलेन शुद्धेन (पथा) न्यायमार्गेण (प्र) प्रकृष्टार्थे (वः) युष्माकम् (सः) यज्ञः (धीतये) धीयन्ते प्राप्यन्ते सुखान्यनया क्रियया सा (नशत्) नाशं प्राप्नुयात्। अत्र व्यत्ययेन शप् लेट् प्रयोगश्च ॥५॥

अन्वय:

पुनरेते कं संरक्ष्य किं प्राप्नुयुरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे आदित्या ! नरो यूयं धीतये यं यज्ञमृजुना पथा नयथ (स वः# प्रणशत् यूयमपि नयथ)। एवं कृते सति सयज्ञो वो युष्माकं धीतये न प्रणशत् नाशं न प्राप्नुयात् ॥५॥ #[कोष्ठान्तर्गतपाठोऽधिकः प्रतीयते। सं०]
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वस्मान्मंत्रान्नेत्यनुवर्तते यत्र विद्वांसः सभासेनाध्यक्षाः सभास्थाः सभ्याः भृत्यांश्च भूत्वा विनयं कुर्वन्ति तत्र न किंचिदपि सुखं नश्यतीति ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Adityas, heroes of light and the law, people of the land, the yajna of creation and development which you carry forward by the path of truth and piety for knowledge, science and art must not disappear from the scene.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should they obtain by preserving is taught in the fifth Mantra.

अन्वय:

O highly learned guides, the yajna in the form of destruction of enemies and preservation of the righteous you lead by a straight just path, let that lead to happiness and may never end.

पदार्थान्वयभाषाः - ( यज्ञम् ) शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राज्यव्यवहारम् = Administration which destroys enemies and protects the righteous persons. ( नरः ) नयन्ति सत्यं व्यवहारं प्राप्नुवन्ति असत्यं च दूरीकुर्वन्ति । = Guides who lead to truthful dealing and remove false-hood. (धीतये) धोयन्ते प्राप्यन्ते सुखानि अनया क्रियया सा धीतिः तस्यै = For an act that leads to happiness. ( दुधाञ्-धारणपोषणयो: )
भावार्थभाषाः - Where learned persons being the presidents of the Assembly, commanders of the armies, members of the Councils and servants behave politely, there is never an end to happiness.
टिप्पणी: Yajna in the Vedas is a very comprehensive term. It is derived from यज्ञ-देवपूजासंगतिकरणदानेषु । Hence it can be used for any noble act in which the learned are honored, there is association with noble persons and Charity. Proper administration is also such a noble act. The adjective for Adityas clearly shows that they are true leaders. Hence Rishi Dayananda's interpretation given above about Adityas as highly learned men observing Brahmacharya for 48 years and thereby shining like the sun is correct. Skanda Swami explains (Narah) used here as नराकाराः Assuming human form Why not take them for good leaders directly as Rishi Dayanand has done?
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्राने (न) या पदाची अनुवृत्ती होते. जेथे विद्वान लोक सभा सेनाध्यक्ष सभेत राहणारे चाकर बनून विनयपूर्वक न्याय करतात, तेथे सुखाचा कधीच नाश होत नाही. ॥ ५ ॥