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तमिद्वो॑चेमा वि॒दथे॑षु शं॒भुवं॒ मन्त्रं॑ देवा अने॒हस॑म् । इ॒मां च॒ वाचं॑ प्रति॒हर्य॑था नरो॒ विश्वेद्वा॒मा वो॑ अश्नवत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam id vocemā vidatheṣu śambhuvam mantraṁ devā anehasam | imāṁ ca vācam pratiharyathā naro viśved vāmā vo aśnavat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम् । इत् । वो॒चे॒म॒ । वि॒दथे॑षु । श॒म्भुव॑म् । मन्त्र॑म् । दे॒वाः॒ । अ॒ने॒हस॑म् । इ॒माम् । च॒ । वाच॑म् । प्रति॒हर्य॑थ । न॒रः॒ । विश्वा॑ । इत् । वा॒मा । वः॒ । अ॒श्न॒व॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:40» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मंत्र में सब मनुष्यों के लिये वेदों के पढ़ने का अधिकार है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवाः) विद्वानो ! (वः) तुम लोगों के लिये हम लोग (विदथेषु) जानने योग्य पढ़ने-पढ़ाने आदि व्यवहारों में जिस (अनेहसम्) अहिंसनीय सर्वदा रक्षणीय दोषरहित (शंभुवम्) कल्याणकारक (मंत्रम्) पदार्थों को मनन करानेवाले मंत्र अर्थात् श्रुति समूह को (वोचेम) उपदेश करें (तम्) उस वेद को (इत्) ही तुम लोग ग्रहण करो (इत्) जो (इमाम्) इस (वाचम्) वेदवाणी को बार-२ जानों तो (विश्वा) सब (वामा) प्रशंसनीय वाणी (वः) तुम लोगों को (अश्नवत्) प्राप्त होवे ॥६॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को योग्य है कि विद्या के प्रचार के लिये मनुष्यों को निरन्तर अर्थ अंग उपांग रहस्य स्वर और हस्तक्रिया सहित वेदों को उपदेश करें और ये लोग अर्थात् मनुष्यमात्र इन विद्वानों से सब वेद विद्या को साक्षात् करें जो कोई पुरुष सुख चाहें तो वह विद्वानों के संग से विद्या को प्राप्त करें तथा इस विद्या के विना किसी को सत्य सुख नहीं होता इससे पढ़ने-पढ़ाने वालों को प्रयत्न से सकल विद्याओं को ग्रहण करना वा कराना चाहिये ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सम्पूर्ण सौन्दर्य की प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (देवाः) - विद्वानो ! हम (विदथेषु) - ज्ञान - यज्ञों में एकत्र होने पर (इत्) - ही (तम्) - उस (मन्त्रम्) - मन्त्रात्मक वाणी को ही (वोचेम) - बोलें जोकि (शंभुवम्) - कल्याण का भावन करनेवाली है तथा (अनेहसम्) - जो स्वाध्याय के द्वारा अहिंस्य है ।  २. प्रभु मनुष्यों को कहते हैं कि हे (नरः) - आगे बढ़ने की प्रवृत्तिवाले मनुष्यो ! (इमां वाचम्) - इस ज्ञान की वाणी की (प्रतिहर्यथ) - प्रतिदिन कामना करोगे और इसके प्रति जाओगे [ई गतिकान्त्योः], अर्थात् खूब इच्छापूर्वक, हृदय से इसे पढ़ोगे तो (इत्) - निश्चय से (विश्वा वामा) - सब सुन्दर, प्रकृतिजन्य पदार्थ (वः) - तुम्हें (अश्नवत्) - व्याप्त करेंगे, प्राप्त होंगे, अर्थात् उस समय ये प्राकृतिक पदार्थ तुम्हारे लिए उपयुक्त होने से तुम्हारा कल्याण - ही - कल्याण करनेवाले होंगे । एवं, इस ज्ञान की वाणी के अपनाने से यह संसार सुन्दर - ही - सुन्दर हो जाएगा ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम ज्ञानयज्ञों में ज्ञान की वाणियों को ही बोलें, इन्हीं ही कामना करें । परिणामतः हमारे लिए यह संसार सौन्दर्य को लिये हुए होगा ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(तम्) वेदम् (इत्) एव (वोचेम) उपदिशेम। अन्येषामपीति दीर्घः। (विदथेषु) विज्ञानेषु पठनपाठनव्यवहारेषु कर्तव्येषु सत्सु। विदथानि वेदनानि विदथानि प्रचोदयादित्यपि निगमो भवति। निरु० ६।७। (शंभुवम्) शं कल्याणं यस्मात्तम्। अत्र शम्युपपदे भुवः# संज्ञान्तरयोः इति क्विप् कृतोबहुलम् इति हेतौ (मन्त्रम्) मन्यते गुप्ताः पदार्थाः परिभाषन्ते येन तम् मंत्रा मननात्। निरु० ७।१२। (देवाः) विद्वांसः (अनेहसम्) अहिंसनीयं सर्वदा रक्ष्यं निर्दोषम्। अत्र नञिहन एह च। उ० ४।*२३१। इति नञ्पूर्वकस्य हन् धातोः प्रयोगः (इमाम्) वेदचतुष्टयीम् (च) सत्यविद्यान्वयसमुच्चये (वाचम्) वाणीम् (प्रतिहर्यथ) पुनः पुनर्विजानीथ। अत्र अन्येषामपि इति दीर्घः। (नरः) विद्यानेतारः (विश्वा) सर्वा (इत्) यदि (वामा) प्रशस्ता वाक्। वाम इति प्रशस्यनामसु पठितम्। निघं० ३।८। (वः) युष्मान् युष्मभ्यं वा (अश्नवत्) प्राप्नुयात्। अयं लेट् प्रयोगो व्यत्ययेन परस्मैपदं च ॥६॥ #[अ० ३।२।१७९।] *[उ० ४।२२४।]

अन्वय:

अथ सर्वमनुष्याऽर्था वेदाः संतीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे देवा विद्वंसो वो युष्मभ्यं वयं विदथेषु यमनेहसं शंभुवं मंत्रं वोचेम तमिद्यूयं विजानीत। हे नरो यूयमिद्यदीमां वाचं प्रति हर्यथ तर्हि विश्वा सर्वा वामा प्रशस्तेऽयं वाक् वो युष्मानश्नवत् व्याप्नुयात् ॥६॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्विद्याप्रचाराय सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो नित्यं सार्थाः सांगाः सरहस्याः सस्वरहस्तक्रिया वेदा उपदेष्टव्याः। यदि कश्चित्सुखमिच्छेत्संगेन वेदविद्यां प्राप्नुयात्। नैतया विना कस्यचित्सत्यं सुखं भवति। तस्मादध्यापकैरध्येतृभिश्च प्रयत्नेन सकला वेदा ग्राहयितव्या ग्रहीतव्याश्चेति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Noble and generous people, in yajnas and holy congregations, if we chant that sacred blissful and imperishable mantra of science and divine mystery of Veda, and you, O men and women, if you receive, realise and follow this holy speech in action, it would bring you all the splendid wealth of the world.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The Vedas are Universal is taught in the 6th Mantra.

अन्वय:

O learned persons, as in all dealings of reading and teaching, we teach these felicitous and faultless Mantras, you should also do likewise. O leaders of knowledge, if you know well these, the Divine Speech contained in these auspicious Vedas, she may obtain all bliss for you.

पदार्थान्वयभाषाः - ( विदधेषु ) विज्ञानेषु पठनपाठनव्यवहारेषु कर्त्तव्येषु सत्सु । विदधानि वेदनानि विदधानि प्रचोदयात् इत्यपि निगमो भवतीति निरुक्ते ६.७ । ( अनेहसम् ) अहंसनीयं, सर्वदा रक्ष्यं निर्दोषम् । = Inviolable and faultless, ever to be preserved. = अत्र नञि इन एह च । उंणा० ४. २३१ इति नञ् पूर्वकस्य हन् धातोः प्रयोगः ( इमां वाचम् ) वेदचतुष्टयी वाचम् = The speech consisting of the four Vedas. (प्रतिहर्यथ) पुन: पुनविजानीथ = Know again and again. ( वामा ) प्रशस्ता वाक् । वाम इति प्रशस्यनामसु पठितम् । ( निघ० ३.८ )
भावार्थभाषाः - Learned persons should teach to all the Vedas with their meanings and limbs ( grammar, meter, etymology etc.), their secret and practical application. If one desires to enjoy happiness, he must acquire the Vedic knowledge. Without it, none can attain true happiness. Therefore all teachers and the taught should learn and teach all Vedas.
टिप्पणी: The above two Mantras clearly show that the Vedas are Revealed by God and are therefore flowless and Universal. Their study and teaching is the duty of all learned persons. The translation of the 6th Mantra by Wilson and Griffith, though very faulty, conveys the idea to a certain extent, though unfortunately they could not understand its full import. They wrongly thought that the reference was only to some particular Mantra or hymn. Prof. Wilson's translation is- "Let us recite gods, that felicitous and faultless prayer at sacrifices, if you leaders desire (to hear) this prayer, then will all that is to be spoken reach unto you.” (Wilson). Griffith's translation is- “May we in holy Synods, Gods, recite that hymn, peerless, that brings felicity. If you O Heroes, graciously accept this word, may it obtain all bliss from you. (Griffith). Both have mis-interpreted देवा: as “gods" or Gods, while according to विद्वांसो हि देवाः ( शत० ३.७, ३.१० ) it means learned persons as translated by Rishi Dayananda.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी विद्येच्या प्रचारासाठी माणसांना निरंतर अर्थ, अंग, उपांग रहस्य, स्वर व हस्तक्रियासहित वेदांचा उपदेश करावा व या लोकांनी अर्थात मनुष्यमात्रांनी या विद्वानांकडून सर्व वेदविद्या प्रत्यक्ष शिकावी. जो कोणी पुरुष सुख इच्छितो त्याने विद्वानांच्या संगतीने विद्या प्राप्त करावी. या विद्येशिवाय कुणालाही खरे सुख मिळत नाही. त्यामुळे अध्यापक, अध्येता यांनी प्रयत्नपूर्वक संपूर्ण विद्या ग्रहण करावी व करवावी. ॥ ६ ॥