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अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya pītvā śatakrato ghano vṛtrāṇām abhavaḥ | prāvo vājeṣu vājinam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। पी॒त्वा। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। घ॒नः। वृ॒त्राणा॑म्। अ॒भ॒वः॒। प्र। आ॒वः॒। वाजे॑षु। वा॒जिन॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:4» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी परमेश्वर ने सूर्य्यलोक के स्वभाव का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुषोत्तम ! जैसे यह (घनः) मूर्त्तिमान् होके सूर्य्यलोक (अस्य) जलरस को (पीत्वा) पीकर (वृत्राणाम्) मेघ के अङ्गरूप जलबिन्दुओं को वर्षाके सब ओषधी आदि पदार्थों को पुष्ट करके सब की रक्षा करता है, वैसे ही हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों के करनेवाले शूरवीरो ! तुम लोग भी सब रोग और धर्म के विरोधी दुष्ट शत्रुओं के नाश करनेहारे होकर (अस्य) इस जगत् के रक्षा करनेवाले (अभवः) हूजिये। इसी प्रकार जो (वाजेषु) दुष्टों के साथ युद्ध में प्रवर्त्तमान धार्मिक और (वाजिनम्) शूरवीर पुरुष है, उसकी (प्रावः) अच्छी प्रकार रक्षा सदा करते रहिये॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जो मनुष्य दुष्टों के साथ धर्मपूर्वक युद्ध करता है, उसी का ही विजय होता है और का नहीं। तथा परमेश्वर भी धर्मपूर्वक युद्ध करनेवाले मनुष्यों का ही सहाय करनेवाला होता है, औरों का नहीं॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वृत्र - हनन

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (शतक्रतो) - अनन्त कर्मों व प्रज्ञानोंवाले प्रभो ! आप (अस्य पीत्वा) - इस सोम की रक्षा करके (वृत्राणाम्) - ज्ञान पर आवरणरूप कामादि के (घनः) मारनेवाले (अभवः) - होते हो । हम प्रभु का नाम स्मरण करते हैं और उस नामस्मरण से कामादि वासनाओं का विनाश होता है । इस प्रकार प्रभु इस सोम की रक्षा व पान करानेवाले होते हैं । सोम की रक्षा होने पर मनुष्य क्रोधादि का शिकार नहीं होता एवं सोम वृत्रों के विनाश का साधन बनता है । २. हे प्रभो ! आप (वाजेषु) [वाज - युद्ध] - इन वासनासंग्रामों में (वाजिनम्) - [वाज - अन्न] प्रशस्त अन्नवाले को (प्रावः) - प्रकर्षेण रक्षित करते हो । जब एक मनुष्य सात्त्विक अन्न का सेवन करता है तब उसकी बुद्धि व मन भी सात्त्विक बनते हैं । यह पुरुष 'वाजिन्' कहलाता है । इस 'वाजिन्' की संग्राम में अवश्य विजय होती है । 'वाजिनम्' का अर्थ 'बलवान् को' भी है । 'सोमपान से वृत्रविनाश'  , 'वृत्रविनाश से बाजी बनना' तथा 'बाजी का संग्राम में विजय' यह क्रम मन्त्र में प्रतिपादित है ।  बलवान् की विजय होती है  , प्रभु इसकी रक्षा करते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु - नामस्मरण से हम वासनाओं से ऊपर उठते हैं  , शरीर में सोम का व्यापन कर पाते हैं और शक्तिशाली बनकर संग्रामों में प्रभु द्वारा रक्षित होते हैं ।  
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनश्च कथंभूत इन्द्र इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे शतक्रतो पुरुषव्याघ्र ! यथा घनो मूर्तिमानयं सूर्य्यलोकोऽस्य जलस्य रसं पीत्वा वृत्राणां मेघावयवानां हननं कृत्वा सर्वानोषध्यादीन् पदार्थान् प्रावो रक्षति, यथा च स्वप्रकाशेन सर्वान्प्रकाशते, तथैव त्वमपि सर्वेषां रोगाणां दुष्टानां शत्रूणां च निवारको भूत्वाऽस्य रक्षकोऽभवो भूयाः। एवं वाजेषु दुष्टैः सह युद्धेषु प्रवर्त्तमानं धार्मिकं वाजिनं शूरं प्रावः प्रकृष्टतया सदैव रक्षको भव॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) समक्षासमक्षस्य सर्वस्य जगतो जलरसस्य वा (पीत्वा) पानं कृत्वा (शतक्रतो) शतान्यसंख्याताः क्रतवः कर्माणि यस्य शूरवीरस्य सूर्य्यलोकस्य वा सः। शतमिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) क्रतुरिति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (घनः) दृढः काठिन्येन मूर्तिं प्रापितो वा। मूर्त्तौ घनः। (अष्टा०३.३.७७) अनेनायं निपातितः। (वृत्राणाम्) वृत्रवत्सुखावरकाणां शत्रूणां मेघानां वा। वृत्र इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (अभवः) भूयाः भवति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। लिङ्लटोरर्थे लङ् च। (प्रावः) रक्ष रक्षति वा। अत्रापि पूर्ववत्। (वाजेषु) युद्धेषु। वाज इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (वाजिनम्) धार्मिकं शूरवीरं मनुष्यं प्राप्तिनिमित्तं सूर्य्यलोकं वा। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेन युद्धेषु प्राप्तवेगहर्षाः शूराः सूर्य्यलोका वा गृह्यन्ते॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोमालङ्कारः। यथा यो मनुष्यो दुष्टैः सह धर्मेण युध्यति तस्यैव विजयो भवति नेतरस्य, तथा परमेश्वरोऽपि धार्मिकाणां युद्धकर्तॄणां मनुष्याणामेव सहायकारी भवति नेतरेषाम्॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Hero of a hundred yajnic projects, having accomplished the programme and having drunk the soma of success, concentrate and consolidate as the light of the sun and be the breaker of the clouds of rain, and then advance and promote the wealth and defence of the nation through the battles of progress.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

अन्वय:

O lion among men engaged in doing many good works, as the solid sun takes the juice of the water ( rivers, seas etc.) destroys the clouds and protects the herbs and plants (through rain), and illuminates all with his light, so you should also destroy all diseases and wicked enemies and should protect a brave righteous person, who is engaged in waging war against unrighteous foes.

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजेषु ) युद्धेषु वाज इति संग्रामनाम (निघ० २.१७ ) = In Battles. (वृत्राणाम् ) वृत्रवत् सुखावरकाणां शत्रूणां मेघानां वा वृत्र इति मेघनामसु (निघ० १.१० ) = Of unrighteous persons, enemies or of the clouds.
भावार्थभाषाः - Here implied simile ( लुप्तोपमालङ्कार ) is used. As only that person gets victory who righteously fights with the wicked or un-righteous people and none else, in the same way, God also helps or supports only righteous fighters and not others.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जो माणूस दुष्टांबरोबर धर्मपूर्वक युद्ध करतो, त्याचाच विजय होतो, इतरांचा नाही व परमेश्वरही धर्मपूर्वक युद्ध करणाऱ्या माणसांचा सहायक असतो, इतरांचा नाही. ॥ ८ ॥