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परा॑ ह॒ यत्स्थि॒रं ह॒थ नरो॑ व॒र्तय॑था गु॒रु । वि या॑थन व॒निनः॑ पृथि॒व्या व्याशाः॒ पर्व॑तानाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parā ha yat sthiraṁ hatha naro vartayathā guru | vi yāthana vaninaḥ pṛthivyā vy āśāḥ parvatānām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परा॑ । ह॒ । यत् । स्थि॒रम् । ह॒थ । नरः॑ । व॒र्तय॑थ । गु॒रु । वि । या॒थ॒न॒ । व॒निनः॑ । पृ॒थि॒व्याः । वि । आशाः॑ । पर्व॑तानाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:39» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मंत्र में विद्वान् मनुष्यों के कार्य का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) नीति युक्त मनुष्यो ! तुम जैसे (वनिनः) सम्यक् विभाग और सेवन करनेवाले किरण सम्बन्धी वायु अपने बल से (यत्) जिन (पर्वतानाम्) पहाड़ और मेघों (पृथिव्याः) और भूमि को (व्याशाः) चारों दिशाओं में व्यासवत् व्याप्त होकर उस (स्थिरम्) दृढ़ और (गुरु) बड़े-२ पदार्थों को धरते और वेग से वृक्षादि को उखाड़ के तोड़ देते हैं वैसे विजय के लिये शत्रुओं की सेनाओं को (पराहथ) अच्छे प्रकार नष्ट करो और (ह) निश्चय से इन शत्रुओं को (विवर्त्तयथ) तोड़-फोड़ उलट-पलट कर अपनी कीर्त्ति से (आशाः) दिशाओं को (वियाथन) अनेक प्रकार व्याप्त करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वेगयुक्त वायु वृक्षादि को उखाड़ तोड़-झंझोड़ देते और पृथिव्यादि को धरते हैं वैसे धार्मिक न्यायाधीश अधर्माचारों को रोक के धर्मयुक्त न्याय से प्रजा को धारण करें और सेनापति दृढ़ बल युक्त हो उत्तम सेना का धारण शत्रुओं को मार पृथिवी पर चक्रवर्त्ति राज्य का सेवन कर सब दिशाओं में अपनी उत्तम कीर्त्ति का प्रचार करें और जैसे प्राण सबसे अधिक प्रिय होते हैं वैसे राज पुरुष प्रजा को प्रिय हों ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वनच्छेद व पर्वत - विदारण

पदार्थान्वयभाषाः - १. (नरः) - आगे और आगे बढ़नेवाले (मरुतः) - वीर सैनिको ! तुम (यत् ह स्थिरम्) - जो निश्चय से बड़ी - बड़ी स्थिर वस्तु भी मार्ग में विघ्नरूप से होती है उसको (पराहथ) - तोड़ - फोड़कर दूर फेंक देते हो । (गुरु) - गुरुत्व व भार से युक्त विघ्नभूत चट्टानों को भी (वर्तयथ) - उलट देते हो ।  २. (पृथिव्याः) - इस पृथिवी के (वनिनः) - बड़े - बड़े वनों का निर्माण करनेवाले घने वृक्षों को (वियाथन) - [वियुज्य गच्छथ] अलग - अलग करके, मध्य में मार्ग बनाकर, आगे बढ़ते हो, अर्थात् घने वनों में भी आवश्यक वृक्षों के छेदन से प्रौढ़ मार्ग का निर्माण कर लेते हो ।  ३. घने वृक्षों से ही नहीं (पर्वतानाम्) - पर्वतों की (आशाः) - पार्श्व दिशाओं को भी (वि) [याथन] - अलग करके आगे बढ़ते हो, अर्थात् पर्वत - पार्श्वों को भी काटकर सेना के लिए मार्ग बना लेते हो ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - वीर सैनिक बड़े - बड़े टीलों, वनों व पर्वतों को भी विदीर्ण करके आगे बढ़ते हैं । ये बाधाएँ उन्हें आगे बढ़ने से रोक नहीं पाती ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(परा) प्रकृष्टार्थे (ह) किल (यत्) ये (स्थिरम्) दृढं बलम् (हथ) भग्नांगाञ्च्छत्रून् कुरुथ (नरः) नेतारो मनुष्याः (वर्तयथ) निष्पादयथ। अत्रान्येषामपि० इति दीर्घः। (गुरु) गुरुत्वयुक्तं न्यायाचरणं पृथिव्यादिकं द्रव्यं वा (वि) विविधार्थे (याथन) प्राप्नुथ। अत्र तप्तनत्पन० इति थस्य स्थाने थनादेशः। (वनिनः) वनं रश्मिसंबन्धो विद्यते येषान्ते वायवः। अत्र सम्बन्धार्थ इनिः। (पृथिव्याः) भूगोलस्यान्तरिक्षस्य वा (वि) विशिष्टार्थे (आशाः) दिशः। आशा इति दिङ्नामसु पठितम्। निघं० १।६। (पर्वतानाम्) गिरीणां मेघानां वा ॥३॥

अन्वय:

अथ विद्वन्मनुष्यकृत्यमुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे नरो नायका यूयं यथा वनिनो वायवो यत्पर्वतानां पृथिव्याश्च व्याशाः सन्तः स्थिरं गुरु हत्वा नयन्ति तथा तत्स्थिरं गुरु बलं संपाद्य शत्रून् पराहथ ह किलैतान् विवर्त्तयथ विजयाय वायुवच्छत्रुसेनाः शत्रुपुराणि वा वियाथ ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वेगयुक्ता वायवो वृक्षादीन् भंजते पृथिव्यादिकं धरन्ति तथा धार्मिका न्यायाधीशा अधर्म्माचरणानि भङ्त्वा धर्म्येण न्यायेन प्रजा धरेयुः सेनापतयश्च महत्सैन्यं धृत्वा शत्रन् हत्वा पृथिव्यां चक्रवर्त्तिराज्यं संसेव्य सर्वासु दिक्षु सत्कीर्त्तिं प्रचारयन्तु यथा सर्वेषां प्राणाः प्रियाः सन्ति तथैते विनयशीलाभ्यां प्रजासु† स्युः ॥३॥ †[प्रियाः। सं०]
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Men of heroic character as the winds, whatever stands unmoved and inflexible against you, move and throw off. Whatever is dense and impenetrable, break through and scatter. Like rays of light and currents of winds, go round the earth in all directions, reach the clouds and cross over the mountains unto the skies.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Now the duty of a learned person is taught.

अन्वय:

O leaders among men, defeat and kill your enemies, having attained strong power, as the winds overthrow what is strong and whirl about what is heavy in all directions of the earth, the mountains and the clouds. Drive away your foes. Like the winds, go to the armies and towns of your enemies to conquer them.

पदार्थान्वयभाषाः - ( नरः) नेतारो मनुष्याः = Leaders. (गुरु) गुरुत्वयुक्तं न्यायाचरणं पृथिव्यादिकं द्रव्यं वा = Significant just conduct or earth etc. ( वनिनः) वनं रश्मिसम्बन्धो विद्यते येषां ते वायवः । अत्र सम्बन्धार्थ इनिः । = Airs connected with the rays of the sun. ( आशा : ) दिश: । आशा इति दिङ्नामसु पठितम् ( निघ० १.६) =Directions. ( पर्वतानाम् ) गिरीणां मेघानां वा ( पर्वत इति मेघनाम, निघ० १.१० ) =Of the mountains or the clouds.
भावार्थभाषाः - As strong winds shatter trees and other things and sustain earth, in the same manner, righteous dispensers of justice, should demolish unrighteous conduct and preserve the people with righteous justice. The commanders of the armies should have vast armies, kill their enemies and establish vast and good Government and spread their good reputation everywhere. As Pranas are loved by all, in the same manner, they should be loved by all subjects on account of humility and good character.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वेगयुक्त वायू वृक्ष इत्यादींना उखडून तोडून टाकतो व पृथ्वी इत्यादींना धरून ठेवतो. तसे धार्मिक न्यायाधीशांनी अधर्माचारांना रोखून धर्मयुक्त न्यायाने प्रजेला धारण करावे व सेनापतीने दृढ बलयुक्त व्हावे. उत्तम सेनेला धारण करून शत्रूंचे हनन करून पृथ्वीवर चक्रवर्ती राज्याचे सेवन करून सर्व देशात आपल्या उत्तम कीर्तीचा प्रचार करावा व जसे प्राण सर्वांत अधिक प्रिय असतात तसे राजपुरुषांनी प्रजेला प्रिय व्हावे. ॥ ३ ॥