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देवता: मरूतः ऋषि: कण्वो घौरः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

मरु॑तो॒ यद्ध॑ वो॒ बलं॒ जनाँ॑ अचुच्यवीतन । गि॒रीँर॑चुच्यवीतन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

maruto yad dha vo balaṁ janām̐ acucyavītana | girīm̐r acucyavītana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मरु॑तः । यत् । ह॒ । वः॒ । बल॑म् । जना॑न् । अ॒चु॒च्य॒वी॒त॒न॒ । गि॒रीन् । अ॒चु॒च्य॒वी॒त॒न॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:37» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजप्रजाजन वायु के समान कर्म करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) पवनों के समान सेनाध्यक्षादि राजपुरुषो ! तुम लोग (यत्) जिस कारण (वः) तुम्हारा (ह) प्रसिद्ध (बलम्) सेना आदि दृढ़ बल है इसलिये जैसे वायु (गिरीन्) मेघों को (अचुच्यवीतन) इधर-उधर आकाश पृथिवी में घुमाया करते हैं वैसे (जनान्) प्रजा के मनुष्यों को (अचुच्यवीतन) अपने-२ उत्तम व्यवहारों में प्रेरित करो ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे वायु मेघों को इधर-उधर घुमा के वर्षाते हैं वैसे ही प्रजा के सब मनुष्यों को न्याय की व्यवस्था से अपने-२ कर्मों में आलस्य छोड़ के सदा नियुक्त करते रहें ॥१२॥ मोक्षमूलर की उक्ति है। हे पवनो ऐसे बल के साथ जैसी आपकी शक्ति है और तुम पुरुष वा पर्वतों को पतन कराने के निमित्त हो सो यह अशुद्ध है, क्योंकि गिरि शब्द से इस मन्त्र में मेघ का ग्रहण है और जन* शब्द से सामान्य गति ¤वाले का ग्रहण है पतनमात्र का नहीं है ॥१२॥ सं० उ० के अनुसार पहाड़ों का नही। इतना और होना चाहिये। सं० *अर्थात् घन कर्मक अचुच्यवीतन शब्द से। सं० ¤वाली क्रिया का। सं०
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कर्मों में व्यापृत करना

पदार्थान्वयभाषाः - १. (मरुतः) - प्राणो ! (यत् ह) - जो निश्चय से (वः) - आपका (बलम्) - बल है, वह (जनान्) - लोगों को (अचुच्यवीतन) - अपने - अपने व्यापारों में प्रेरित करता है । आपका बल लोगों को आलस्य से पृथक् करता है और सदा कर्मों में प्रेरित करता है ।  २. यह मरुतों को बल (गिरीन्) - सब ज्ञानों को निगीर्ण कर जानेवाले अविद्या के पर्वतों को भी (अचुच्यवीतन) - स्थानभ्रष्ट व नष्ट करता है । प्राणसाधना से बुद्धि की सूक्ष्मता होने पर अविद्यारूप पर्वत विनष्ट हो जाता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना से वह शक्ति प्राप्त होती है जो लोगों को कार्यों में प्रेरित करती है और अविद्यारूप पर्वत को भी नष्ट करती है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(मरुतः) वायव इव सेनाध्यक्षादयः (यत्) यस्मात् (ह) प्रसिद्धम् (वः) युष्माकम् (बलम्) सेनादिकम् (जनान्) प्रजास्थान् मनुष्यान्। अत्र दीर्घादटि समानपादे। अ० ८।३।९। इति नकारस्य रुत्वम्। अत्रानुनासिक्? पूर्वस्य तु वा। अ० ८।३।२। इति पूर्वस्याऽनुनासिकः। भोभगोअघो०। अ० ८।३।१७। इति य लोपः*। (अचुच्यवीतन) प्रेरयन्ति अत्र लडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। बहुलं छन्दसि इति ईडागमः। ¤तप्तनप्तनथनाश्च इति तनबादेशः। पुरुषव्यत्ययः। सायणाचार्येणेदं भ्रान्त्या लुङन्तं¶ व्याख्याय बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुरिति सूत्रं योजितम्। तत्र च्लेरपवादत्वाच्छवेव नास्ति कुतः श्लुः कस्य लुक् तस्मादशुद्धमेव। (गिरीन्) मेघान्। गिरिरिति मेघनामसु पठितम्। निघं० १।१०। अत्र रुत्वाऽनुनासिकाविति पूर्ववत् (अचुच्यवीतन) आकाशे भूमौ च प्रापयन्ति। अस्य सिद्धिः पूर्ववत् अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः ॥१२॥ *[इति यकारादेशः। लोपः शाकल्यस्य। अ० ८।३।१९। इत्यनेन च यकारलोपः।सं०] ¤[अ० ७।३।४५।] ¶[लुङन्तम्। सं०]

अन्वय:

पुनस्ते वायुवत् कर्माणि कुर्युरित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुत इव वर्त्तमानाः सेनापत्यादयो यूयं यद्वो युष्माकं ह बलमस्ति तेन वायवो गिरीनचुच्यवीतनेव जनानचुच्यवीतन स्वस्वव्यवहारेषु प्रेरयत ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। सभाध्यक्षादिराजपुरुषैर्यथा वायवो मेघानितस्ततः प्रेरयन्ति तथैव सर्वे प्रजाजनाः स्वस्वकर्मसु न्यायव्यवस्थया सदैव निरालस्ये प्रेरणीयाः ॥१२॥ मोक्षमूलरोक्तिः। हे मरुत ईदृग्बलेन सह यादृशी शक्तिर्युष्माकमस्ति यूयं पुरुषाणां पातननिमित्तं स्थ पर्वतानां चेत्यशुद्धास्ति। कुतः। गिरिशब्देनात्र मेघस्य ग्रहणं न शैलानां #जनशब्देन सामान्यगतिमतो* ग्रहणं नतु पतनमात्रस्यातः ॥१२॥ #[ जनकर्मका च्युच्यवीतन शब्देन, इत्यर्थः। सं०] *[सामान्यगतिमत्याः क्रियायाः। सं०]
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Maruts, warriors of the nation, just as the powers of the winds shake up the clouds, so may your power and force inspire the people to do great deeds in the world.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

They (the officers of the State) should act like winds is taught in the 12th Mantra.

अन्वय:

O Commanders of the armies and other brave people, with your vigor, in invigorate mankind, as the winds give impetus to the clouds, prompt them to discharge their duties.

पदार्थान्वयभाषाः - Prof. Maxmuller's translation of the Mantra as “O Maruts, with such strength as yours, you have caused mien to tremble, you have caused mountain to tremble. "is incorrect, as the word गिरि:( Giri) stands here for clouds and not for mountains गिरिरिति मे नाम ( निघ० १.१० ) = Tr. ( मरुतः) वायव इव सेनाध्यक्षादय: = The Commanders of the armies, mighty iike the winds.
भावार्थभाषाः - The Officers of the State like the Commanders of the armies should prompt the people to perform their works industriously and justly, as the winds move the clouds.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायू जसे मेघांना इकडेतिकडे फिरवून वृष्टी करवितात तसेच सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुषांनी आळस सोडून प्रजेला न्यायव्यवस्थेने आपापल्या कर्मात सदैव नियुक्त करावे. ॥ १२ ॥
टिप्पणी: मोक्षमूलरची उक्ती - हे वायूंनो ! अशा बलाबरोबर जशी तुमची शक्ती आहे व तुम्ही पुरुष किंवा पर्वताच्या पतनाचे निमित्त आहात हे अशुद्ध आहे. कारण गिरी शब्दाने या मंत्रात मेघाचा अर्थ ग्रहण केलेला आहे व जन शब्दाने सामान्य गती करणाऱ्याचा अर्थ ग्रहण केलेला आहे. पतनाचा नाही. ॥ १२ ॥