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घ्नन्तो॑ वृ॒त्रम॑तर॒न्रोद॑सी अ॒प उ॒रु क्षया॑य चक्रिरे । भुव॒त्कण्वे॒ वृषा॑ द्यु॒म्न्याहु॑तः॒ क्रन्द॒दश्वो॒ गवि॑ष्टिषु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ghnanto vṛtram ataran rodasī apa uru kṣayāya cakrire | bhuvat kaṇve vṛṣā dyumny āhutaḥ krandad aśvo gaviṣṭiṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घ्नन्तः॑ । वृ॒त्रम् । अ॒त॒र॒न् । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पः । उ॒रु । क्षया॑य । च॒क्रि॒रे॒ । भुव॑त् । कण्वे॑ । वृषा॑ । द्यु॒म्नी । आहु॑तः । क्रन्द॑त् । अश्वः॑ । गोइ॑ष्टिषु॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:36» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी पूर्वोक्त विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - राजपुरुष जैसे बिजुली सूर्य्य और उसके किरण (वृत्रम्) मेघ का छेदन करते और वर्षावते हुए आकाश और पृथिवी को जल से पूर्ण तथा इन कर्मों को प्राणियों के संसार में अधिक निवास के लिये करते हैं वैसे ही शत्रुओं को (घ्नन्तः) मारते हुए (रोदसी) प्रकाश और अंधेरे में (अपः) कर्मको करें और सब जीवों को (अतरन्) दुःखों के पार करें तथा (गविष्टिषु) गाय आदि पशुओं के संघातों में (क्रन्दत्) शब्द करते हुए (अश्वः) घोड़े के समान (आहुतः) राज्याधिकार में नियत किया (वृषा) सुख की वृष्टि करनेवाला (उरुक्षयाय) बहुत निवास के लिये (कण्वे) बुद्धिमान् में (द्युम्नी) बहुत ऐश्वर्य को धरता हुआ सुखी (भुवत्) होवे ॥८॥
भावार्थभाषाः - जैसे बिजुली, भौतिक और सूर्य यही तीन प्रकार के अग्नि मेघ को छिन्न-भिन्न कर सब लोकों को जल से पूर्ण करते हैं उनका युद्ध कर्म सब प्राणियों के अधिक निवास के लिये होता है वैसे ही सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को चाहिये कि कण्टकरूप शत्रुओं को मारके प्रजा को निरन्तर तृप्त करें ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

वृत्र - हनन

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की सहायता से (घ्नन्तः) - वासनाओं पर प्रहार करते हुए देववृत्ति के मनुष्य (वृत्रम्) - ज्ञान पर परदा डालनेवाली इस वासना को (अतरन्) - तैर जाते हैं । वासना का विनाश कर देते हैं ।  २. और (रोदसी) - द्यावापृथिवी को अर्थात् मस्तिष्क व शरीर को तथा (अपः) - हृदयान्तरिक्ष को [आपः अन्तरिक्षनामसु निघण्टौ] (क्षयाय) - उत्तम निवास व गति के लिए (उरु चक्रिरे) - विशाल बनाते हैं । विशालता ही इन सबको पवित्र व उत्तम बनाती है । 'संकुचित ज्ञान, संकुचित - सा शरीर व संकुचित हृदय' ये जीवन को संकुचित - सा कर देते हैं ।  २. हे प्रभो ! आप (कण्वे) - मेधावी पुरुष में (वृषा) - सब सुखों की वर्षा करनेवाले (द्युम्नी) - ज्ञानवर्धन करनेवाले तथा (आहुतः) - सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करनेवाले (भुवत्) - होते हैं । आप उसी प्रकार हमें सब वस्तुओं के प्राप्त करानेवाले होते हैं, जैसे कि (गविष्टिषु) - गौओं व भूमियों की प्राप्ति की इच्छावाले [गो - इष्टि] संग्रामों में (क्रन्दत् अश्वः) - हिनहिनाता हुआ घोड़ा विजय को प्राप्त करनेवाला होता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु - कृपा से हम वासनाओं को तैर जाते हैं । शरीर, मन व मस्तिष्क को सुन्दर बनाते हैं । मेधावी पुरुष के लिए प्रभु 'वृषा , द्युम्नी व आहुत' होते हैं ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(घ्नन्तः) शत्रुहननं कुर्वन्तो विद्युत्सूर्यकिरणा इव सेनापत्यादयः (वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् (अतरन्) प्लावयन्ति। अत्र लडर्थे लङ्। (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपः) कर्माणि। अप इति कर्मनामसु पठितम्। निघं० २।१। (उरु) बहु (क्षयाय) निवासाय (चक्रिरे) कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (भुवत्) भवेत्लेट् प्रयोगो बहुलं छन्दसि इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। अ० ७।३।८८। इति गुणप्रतिषेधः। (कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने (वृषा) सुखवृष्टिकर्त्ता (द्युम्नि) द्युम्नानि बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन्। अत्र भूम्न्यर्थ इनिः। (आहुतः) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः (क्रन्दत्) हेषणाख्यं शब्दं कुर्वन् (अश्वः) तुरङ्ग इव (गविष्टिषु) गवां पृथिव्यादीनामिष्टिप्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु ॥८॥

अन्वय:

पुनः स एवार्थ उपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - राजपुरुषाविद्युत्सूर्यकिरणा वृत्रमिव शत्रुदलं घ्नन्तोरोदसी अतरन्नपः कुर्युः तथा गविष्टिषु क्रन्ददश्व इवाहुतो वृषासन्नुरुक्षयाय कण्वे द्युम्नी दधद्भवत् ॥८॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्युद्भौतिकसूर्याग्नयो मेघं छित्त्वा वर्षयित्वा सर्वान् लोकान् जलेन पूरयन्ति तत् कर्म प्राणिनां चिरसुखाय भवत्येवं सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः कण्टकरूपाञ्छत्रूञ् हत्वा प्रजाः सततं तर्पणीयाः ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Just as Indra, the sun, with its rays, strikes the cloud and fills the earth and heaven with light and waters, so does Agni, brilliant ruler and commander, with his forces, break through evil and darkness, filling heaven and earth with the light and fame of his actions. He works for the settlement of his people in spacious homes and, invited and celebrated among the intelligent, he shines as generous and prosperous, while his fame resounds like the roar of the victor in battle.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject is continued.

अन्वय:

As lightning and the rays of the sun smite and slay the cloud, in the same manner, the servants of the State and Commander-in-chief of the army and others should slay unrighteous enemies and should act making earth and heaven and the firmament the spacious dwelling place or wide abode of living creatures. May the Agni ( President of the Assembly or the Commander of the Army ) accepted as such, be bene factor to wise men like a horse that neighs in the battles.

पदार्थान्वयभाषाः - ( वृत्रम्) मेघमिव शत्रुम् = The enemy like the cloud. ( अपः ) कर्माणि अप इति कर्मनाम । अप इति कर्मनामसु पठितम् (निघ० २.१ ) ( कण्वे) शिल्पविद्याविदि मेधाविनि विद्वज्जने |= In a highly intelligent and learned person who is well-versed in arts and industries. (आहुतः) सभाध्यक्षत्वेन स्वीकृतः = Accepted as the President of the Assembly. ( गविष्टिषु ) गवां पृथिव्यादीनाम् इष्टिः प्राप्तीच्छा येषु संग्रामेषु तेषु = In the battles waged with the desire of acquiring land and wealth. (घुम्नी) द्युम्नानि बहुविधानि धनानि भवन्ति यस्मिन् । अत्र भूम्यर्थ इनिः
भावार्थभाषाः - As lightning, fire and sun, cut into pieces the cloud and causing rain fill all worlds with water that gives happiness to all, in the same manner, the subjects should be gladdened by the President of the Assembly and other workers of the State by destroying enemies like the thorns.
टिप्पणी: वृत्र इति मेघनाम ( निघ० १.१० ) पाप्मा वै वृत्रः ( शत० ११.१.५.७ ) द्युम्नम् इति धननाम ( निघo १.१० ) कण्व इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५)
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे विद्युत, भौतिक अग्नी व सूर्य हे तीन प्रकारचे अग्नी मेघाला नष्ट करून सर्व लोकांना जलाने पूर्ण करतात, त्यांचे कर्म सर्व प्राण्यांच्या चिरकाल सुखासाठी असते. तसेच सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुषांनी कंटकरूपी शत्रूंना मारून प्रजेला निरंतर तृप्त करावे. ॥ ८ ॥