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वि जना॑ञ्छ्या॒वाः शि॑ति॒पादो॑ अख्य॒न्रथं॒ हिर॑ण्यप्रउगं॒ वह॑न्तः । शश्व॒द्विशः॑ सवि॒तुर्दैव्य॑स्यो॒पस्थे॒ विश्वा॒ भुव॑नानि तस्थुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi janāñ chyāvāḥ śitipādo akhyan rathaṁ hiraṇyapraügaṁ vahantaḥ | śaśvad viśaḥ savitur daivyasyopasthe viśvā bhuvanāni tasthuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि । जना॑न् । श्या॒वाः । शि॒ति॒पादः॑ । अ॒ख्य॒न् । रथ॑म् । हिर॑ण्यप्रउग॒म् । वह॑न्तः । शश्व॑त् । विशः॑ । स॒वि॒तुः । दैव्य॑स्य । उ॒पस्थे॑ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । त॒स्थुः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:35» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सज्जन पुरुष ! आप जैसे जिस (दैव्यस्य) विद्वान् वा दिव्य पदार्थों में उत्पन्न होनेवाले (सवितुः) सूर्यलोक की (उपस्थे) गोद अर्थात् आकर्षण शक्ति में (विश्वा) सब (भुवनानि) पृथिवी आदि लोक (तस्थुः) स्थित होते हैं उसके (शितिपादः) अपने श्वेत अवयवों से युक्त (श्यावाः) प्राप्ति होनेवाले किरण (जनान्) विद्वानों (हिरण्यप्रउगम्) जिसमें ज्योति रूप अग्नि के मुख के समान स्थान हैं उस (रथम्) विमान आदि यान और (शश्वत्) अनादि रूप (विशः) प्रजाओं को (वहन्तः) धारण और बढ़ाते हुए (अख्यन्) अनेक प्रकार प्रगट होते हैं वैसे तेरे समीप विद्वान् लोग रहैं और तूं भी विद्या तथा धर्म का प्रचार कर ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जैसे सूर्यलोक के प्रकाश का आकर्षण आदि गुण सब जगत् को धारणपूर्वक यथायोग्य प्रगट करते हैं। और जो सूर्य के समीप लोक हैं वे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। जो अनादि रूप प्रजा है उसका भी वायु धारण करता है इस प्रकार होने से सब लोक अपनी-२ परिधि में स्थित होते हैं वैसे तुम सद्गुणों का धारण और अपने-२ अधिकारों में स्थित होकर अन्य सबको न्याय मार्ग में स्थापन किया करो ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सम्पूर्ण प्रजाओं व भुवनों का आधार

पदार्थान्वयभाषाः - १. (श्यावः) - [श्यैङ् गतौ] सब लोकों में गति करनेवाले (शितिपादः) - श्वेतकिरणरूप पाँवोंवाले सूर्य के अश्व (हिरण्यप्रउगम्) - ज्योतिर्मय मुखवाले [प्रउग - रथ का युगबन्धन स्थान] (रथम्) - रथ को (वहन्तः) - आगे ले - चलते हुए (जनान्) - सब प्राणियों को (वि अख्यन्) - विशेषरूप से प्रकाश प्राप्त कराते हैं । यह सूर्य का पिण्ड ही रथ है, उसमें किरणें ही मानो घोड़े जुते हुए हैं । ये सूर्य - रथ को निरन्तर गतिमय कर रहे हैं ।  २. (विशः) - सब प्रजाएँ (शश्वत्) - सदा (दैव्यस्य) - उस महान् देव प्रभु की विभूतिरूप (सवितुः) - इस कर्मों में प्रेरित करनेवाले सूर्य की (उपस्थे) - गोद में (तस्थः) - स्थित होती हैं । ३. और (विश्वा भुवनानि) - सम्पूर्ण लोक उस सूर्य के ही समीप (तस्थुः) - स्थित हैं । उसके आकर्षण से स्थित हुए - हुए उसके चारों ओर ही गति कर रहे हैं ।  
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सूर्य प्रभु की महती विभूति है । सम्पूर्ण प्रजाएँ व लोक उसी के समीप स्थित हैं । प्रजाओं को वह प्राणशक्ति दे रहा है और भुवनों को आकर्षण से धारण कर रहा है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(वि) विशेषार्थे (जनान्) विदुषः (श्यावाः) श्यायन्ते प्राप्नुवन्ति ते। श्यावाः सवितुरित्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। निघं० १।१५। (शितिपादः) शितयः शुक्लाः पादा अंशा येषां किरणानान्ते (अख्यन्) ख्याता भवन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्। (रथम्) विसानादियानम् (हिरण्यप्रउगम्) हिरण्यस्य ज्योतिषोऽग्नेः प्रउगं सुखवत्स्थानं यस्मिँस्तं प्रयोगार्हम्। पृषोदरादिना अभीष्टरूपसिद्धिः (वहन्तः) प्राप्नुवन्तः (शश्वत्) अनादयः (विशः) प्रजाः (सवितुः) सूर्यलोकस्य (दैव्यस्य) देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु भवो दैव्यस्तस्य (उपस्थे) उपतिष्ठन्ते यस्मिँस्तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानम् इत्यधिकरणे कः प्रत्ययः। (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि। अत्र शेश्छन्दसि इति शेर्लोपः। (भुवनानि) पृथिवीगोलादीनि (तस्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लिट् ॥५॥

अन्वय:

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सज्जन यथाऽस्य दैव्यस्य सवितुः सूर्यलोकस्योपस्थे विश्वा भुवानानि सर्वे भूगोलास्तस्थुस्तस्य शितिपादः श्यावाः किरणा जनान् हिरण्यप्रउगं रथं शश्वद्विशश्च वहन्ती व्यख्यन् विविधतया ख्यान्ति तथा तव निकटे विद्वांसस्तिष्ठन्तु त्वं च विद्याधर्मौ प्रकटय ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यूयं यथा सूर्यलोकस्य प्रकाशाकर्षणादयो गुणाः सन्ति ते सर्वं जगद्धारणपुरस्सरं यथा योग्यं प्रकटयन्ति ये सूर्यस्य सन्निधौ लोकाः सन्ति ते सूर्य्यप्रकाशेन प्रकाशन्ते या अनादिरूपाः प्रजास्ता अपि वायुर्धरति। अनेन सर्वेलोकाः स्वस्वपरिधौ समवतिष्ठन्ते तथा गुणान्धरत स्वस्वव्यवस्थायां स्थित्वा न्यायान् स्थापयत च ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - In the lap of Divine Savita, eternal Lord of the universe, reside all the worlds of existence and the children of the divine. So in the gravitational field of the sun, heavenly light, are held all the regions of the solar system alongwith the living beings ever abiding therein. And the rays of the sun, white and brilliant, bearing the world-chariot of the golden yoke, shine and proclaim the glory of the lord to the people.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे सूर्याचा प्रकाश किंवा आकर्षण इत्यादी गुण सर्व जगाला धारणापूर्वक यथायोग्य प्रकट करतात व जे गोल सूर्यासमीप आहेत ते सूर्याच्या प्रकाशाने प्रकाशित होतात. जी अनादीरूप प्रजा आहे त्यांनाही वायू धारण करतो. याप्रकारे सर्व गोल आपापल्या परिधीत स्थित असतात. तसे हे माणसांनो! तुम्ही सद्गुणांना धारण करून आपापल्या अधिकारात स्थित राहून इतरांना न्यायमार्गात स्थापित करा. ॥ ५ ॥