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अ॒भीवृ॑तं॒ कृश॑नैर्वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यशम्यं यज॒तो बृ॒हन्त॑म् । आस्था॒द्रथं॑ सवि॒ता चि॒त्रभा॑नुः कृ॒ष्णा रजां॑सि॒ तवि॑षीं॒ दधा॑नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhīvṛtaṁ kṛśanair viśvarūpaṁ hiraṇyaśamyaṁ yajato bṛhantam | āsthād rathaṁ savitā citrabhānuḥ kṛṣṇā rajāṁsi taviṣīṁ dadhānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भिवृ॑तम् । कृश॑नैः । वि॒श्वरू॑प॒म् । हिर॑ण्यशम्यम् । य॒ज॒तः । बृ॒हन्त॑म् । आ । अ॒स्था॒त् । रथ॑म् । स॒वि॒ता । चि॒त्रभा॑नुः । कृ॒ष्णा । रजां॑सि । तवि॑षीम् । दधा॑नः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:35» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में उन दोनों के दृष्टान्त से राजकार्य्य का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभा के स्वामी राजन् ! आप जैसे (यजतः) संगति करने वा प्रकाश का देनेवाला (चित्रभानुः) चित्र विचित्र दीप्ति युक्त (सविता) सूर्यलोक वा वायु (कृशनैः) तीक्ष्ण करनेवाले किरण वा विविध रूपों से (बृहंतम्) बड़े (हिरण्यशम्यम्) जिसमें सुवर्ण वा ज्योति शांत करने योग्य हो (अभीवृतम्) चारों ओर से वर्त्तमान (विश्वरूपम्) जिसके प्रकाश वा चाल में बहुत रूप हैं उस (रथम्) रमणीय रथ (कृष्णा) आकर्षण वा कृष्णवर्ण युक्त (रजांसि) पृथिव्यादि लोकों और (तविषीम्) बल को (दधानः) धारण करता हुआ (आस्थात्) अच्छे प्रकार स्थित होता है वैसे अपना वर्त्ताव कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य आदि की उत्पत्ति का निमित्त सूर्य आदि लोक का धारण करनेवाला बलवान् सब लोकों और आकर्षणरूपी बल को धारण करता हुआ वायु विचरता है और जैसे सूर्य्यलोक अपने समीप स्थलोंको धारण और सब रूप विषय को प्रकट करता हुआ बल वा आकर्षण शक्ति से सबको धारण करता है और इन दोनों के विना किसी स्थूल वा सूक्ष्म वस्तु के धारण का संभव नहीं होता वैसे ही राजा को होना चाहिये कि उत्तम गुणों से युक्त होकर राज्य का धारण किया करे ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शक्ति व प्रकाश का केन्द्र

पदार्थान्वयभाषाः - १. (यजतः) - संगति करने योग्य (सविता) - सबका कार्यों में प्रवर्तक सूर्य (रथम्) - अपने रथ पर (आस्थात्) - स्थित होता है जो रथ [क] (अभीवृतम्) - [अभितो वर्तते] सब दिशाओं में वर्तमान होनेवाला व जानेवाला है ; सूर्य अपने प्रकाश के द्वारा सर्वत्र पहुँचता है, सम्भवतः यहाँ 'अभि' शब्द का भाव 'दोनों ओर' लेना अधिक संगत है, सूर्य का प्रकाश पृथिवी के दोनों ओर पहुँचता है - पृथिवी का जो भाग सूर्याभिमुख होता है वहाँ सूर्य की किरणें सीधी पहुँच रही होती हैं, और दूसरे भाग पर चन्द्रमा से प्रतिक्षिप्त होकर सूर्यकिरणें भू - भाग को प्रकाशित करती हैं । [ख] (कृशनैः) - जलों को सूक्ष्म करनेवाली किरणों से [सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः, द०] (विश्वरूपम्) - इस संसार को सुन्दरता प्राप्त करानेवाले । यदि सूर्यकिरणों से जलों का वाष्पीकरण न होता तो वृष्टि के अभाव में इस संसार का स्वरूप एक मृत - पुरुष के समान होता [ग] (हिरण्यशम्यम्) - यह रथ स्वर्ण के शंकुओंवाला है, इसकी एक - एक किरण की सूई [Golden needle] के समान है [हिरण्यानि शम्यानि यस्मिन्, द०] । अथवा सब अन्य ज्योतियों को शान्त करनेवाला है, इसके उदित होने पर अन्य ज्योतियों का प्रकाश मन्द पड़ जाता है । [घ] (बृहन्तम्) - इसका यह रथ वृद्धि का कारणभूत है [बृहि वृद्धौ] । सब उपज इसी के कारण होती है । सूर्यकिरणों के अभाव में पृथिवी में भी उपजाऊ शक्ति का अभाव हो जाता है ।  २. यह सूर्य (चित्रभानुः) - अद्भुत किरणों व प्रकाशवाला है । इसकी विविध किरणें भिन्न - भिन्न रोगों को शान्त करनेवाली होती हैं, सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करती हैं । इसकी किरणें केवल प्रकाश देने का कार्य नहीं करतीं ।  ३. यह सूर्य (कृष्णा रजांसि) - आकृष्ट लोकसमूहों को लक्ष्य करके (तविषीम्) - बल को (दधानः) - धारण कर रहा है । एक सौरलोक में सूर्य के चारों ओर जितने भी पिण्ड घूमते हैं, उनमें शक्ति का संचार सूर्य द्वारा ही हो रहा होता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सम्पूर्ण शक्ति व वृद्धि का स्रोत यह सूर्य ही है । इसकी किरणें प्रकाश व शक्ति दोनों को प्राप्त कराती हैं ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अभिवृतम्) अभितः सर्वतः साधनैः पूर्णो वर्त्तते सोऽभीवृत्तम्। नहिवृति० अ० ६।३।११६। इति पूर्वस्य दीर्घत्वम् (कृशनैः) तनूकरणैः सूक्ष्मत्वनिष्पादकैः किरणैर्विविधैरूपैर्वा। कृशनमिति रूपनामसु पठितम्। निघं० ३।७। (विश्वरूपम्) विश्वानि बहूनि रूपाणि यस्मिन् प्रकाशे तम् (हिरण्यशम्यम्) हिरण्य सुवर्णान्यन्यानि वा ज्योतींषि शम्यानि शमितुं योग्यानि यस्मिँस्तम् (यजतः) सङ्गतिप्रकाशयोर्दाता (बृहन्तम्) महान्तम् (आ) समंतात् (अस्थात्) तिष्ठति। अत्र लडर्थे लुङ् (रथम्) यस्मिन् रमते तम्। रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा। निरु० ९।११। (सविता) ऐश्वर्यवाव्राजा सूर्यलोको वायुर्वा। सवितेति पदनामसु पठितम्। निघं० ५।४। अनेन प्राप्तिहेतोर्वायोरपिग्रहणम्। (चित्रभानुः) चित्राभानवो दीप्तयो यस्य यस्माद्वा सः (कृष्णा) कृष्णान्याकर्षणकृष्णवर्णयुक्तानि पृथिव्यादीनि (रजांसि) लोकान् (तविषीम्) बलम्। तविषीति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (दधानः) धरन् ॥४॥

अन्वय:

पुनस्तयोर्दृष्टान्तेन राजकृत्यमुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभेश राजँस्त्वं यथा यजतश्चित्रभानुः सवितासूर्यो वायुर्वा कृशनैः किरणैरूपैर्वा बृहन्तं हिरण्यशम्यमभीवृतं विश्वरूपं रथं कृष्णानि रजांसि पृथिव्यादिलोकांस्तविषीं बलं च दधानः सन्नास्थात् समंतात् तिष्ठति तथा भूत्वा वर्त्तस्व ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्यादिजनननिमित्तः सूर्यादिलोकधारको बलवान् सर्वान् लोकानाकर्षणाख्यां बलं च धरन् वायुर्वर्त्तते यथा च सूर्यलोकः स्वसन्निहितान् लोकान् धरन् सर्वं रूपं प्रकटयन् बलाकर्षणाभ्यां सर्वं धरति नैताभ्यां विना कस्यचित् परमाणोरपि धारणं संभवति। तथैव राजा शुभगुणाढ्यो भूत्वा राज्यं धरेत् ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Savita, adorable and companionable lord of wondrous light, commanding enormous power, holding the world regions by his subtle waves of gravitation, rides the vast, beautiful and autonomous world of infinite forms brighter than gold.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा सूर्य इत्यादीच्या उत्पत्तीचे निमित्त, सूर्य इत्यादी गोलाचे धारण करणारा, बलवान, सर्व लोक (गोल) व आकर्षणरूपी बल धारण करीत वायू विचरण करतो व जसा सूर्य आपल्या जवळच्या स्थानांना धारण करून सर्व रूप प्रकट करून बल व आकर्षणशक्तीने सर्वांना धारण करतो. या दोन्हींशिवाय एखाद्या स्थूल किंवा सूक्ष्म वस्तूचे धारण शक्य नाही. तसे राजाने शुभगुणयुक्त होऊन राज्याचे धारण करावे. ॥ ४ ॥