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ये ते॒ पन्थाः॑ सवितः पू॒र्व्यासो॑ऽरे॒णवः॒ सुकृ॑ता अ॒न्तरि॑क्षे । तेभि॑र्नो अ॒द्य प॒थिभि॑स्सु॒गेभी॒ रक्षा॑ च नो॒ अधि॑ च ब्रूहि देव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye te panthāḥ savitaḥ pūrvyāso reṇavaḥ sukṛtā antarikṣe | tebhir no adya pathibhiḥ sugebhī rakṣā ca no adhi ca brūhi deva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये । ते॑ । पन्थाः॑ । स॒वि॒त॒रिति॑ । पू॒र्व्यासः॑ । अ॒रे॒णवः॑ । सुकृ॑ताः । अ॒न्तरि॑क्षे । तेभिः॑ । नः॒ । अ॒द्य । प॒थिभिः॑ । सु॒गेभिः॑ । रक्ष॑ । च॒ । नः॒ । अधि॑ । च॒ । ब्रू॒हि॒ । दे॒व॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:35» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सवितः) सकल जगत् के रचने और (देव) सब सुख देनेवाले जगदीश्वर ! (ये) जो (ते) आपके (अरेणवः) जिनमें कुछ भी धूलि के अंशों के समान विघ्नरूप मल नहीं है तथा (पूर्व्यासः) जो हमारी अपेक्षा से प्राचीनों ने सिद्ध और सेवन किये हैं (सुकृताः) अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए (पन्थाः) मार्ग (अन्तरिक्षे) अपने व्यापकता रूप ब्रह्माण्ड में वर्त्तमान हैं (तेभिः) उन (सुगेभिः) सुखपूर्वक सेवने योग्य (पथिभिः) मार्गो से (नः) हम लोगों को (अद्य) आज (रक्ष) रक्षा कीजिये (च) और (नः) हम लोगों के लिये सब विद्याओं का (अधिब्रूहि) उपदेश (च) भी कीजिये ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे ईश्वर ! आपने जो सूर्य आदि लोकों के घूमने और प्राणियों के सुख के लिये आकाश वा अपने महिमारूप संसार में शुद्ध मार्ग रचे हैं जिनमें सूर्यादि लोक यथा नियम से घूमते और सब प्राणी विचरते हैं उन सब पदार्थों के मार्गों तथा गुणों का उपदेश कीजिये कि जिससे हम लोग इधर-उधर चलायमान न होवें ॥११॥ इस सूक्त में सूर्यलोक वायु और ईश्वर के गुणों का प्रतिपादन करने से चौतीसवें सूक्त के साथ इस सूक्त की संगति जाननी चाहिये ॥ यह सातवां वर्ग ७ सातवां अनुवाक ७ और पैंतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

रजःशून्य पथ

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (सवितः) - कर्मों में प्रेरित करनेवाले सूर्यदेव ! (ये) - जो (ते) - तेरे (पन्थाः) - मार्ग (पूर्व्यासः) - पूर्णता को प्राप्त करानेवाले (अरेणवः) - धूलि से रहित (सुकृताः) - उत्तमता से बने हुए (अन्तरिक्षे) - इस अन्तरिक्षलोक में हैं, हे सूर्यदेव ! (तेभिः) - उन (सुगेभिः) - उत्तम स्थिति को प्राप्त करानेवाले (पथिभिः) - मार्गों से (अद्य) - आज (नः) - हमें (रक्ष) - रक्षित कीजिए, (च) - और हे (देव) - प्रकाश प्राप्त करानेवाले सूर्यदेव ! (नः) - हमें (अधिब्रूहि) - आधिक्येन उपदेश दीजिए ।  २. वेद में अन्यत्र कहा गया है कि 'पूषन्तव व्रते वयं न रिष्येम कदाचन' हे पूषन् ! हम तेरे व्रत में कभी हिंसित न हों । [क] सूर्य अपने मार्ग पर निरन्तर चल रहा है, हम भी सूर्य का अनुकरण करते हुए निरन्तर क्रियाशील बनें । [ख] सूर्य के मार्ग पूर्ण है, पूरण करनेवाले हैं, सूर्य प्राणशक्ति का पूरण करता है - रोगकृमियों का संहार करता है । इसी प्रकार हमारे कार्य पूर्णता को उत्पन्न करनेवाले हों । [ग] सूर्य के मार्ग धूलि से रहित हैं - हमारे जीवन - मार्ग रजोवृत्ति से ऊपर उठे हुए हों । [घ] सूर्य अन्तरिक्ष में गति कर रहा है, हम भी सदा 'अन्तरा - क्षि' - मध्य मार्ग से चलनेवाले हों ।  ३. सबको शक्ति व प्रकाश को प्राप्त कराता हुआ सूर्य हमें भी यही उपदेश दे रहा है कि हम शक्ति व ज्ञान का संग्रह करके इन्हीं का प्रसार करनेवाले बनें ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम सूर्य के मार्ग पर चलनेवाले बनें ।   
टिप्पणी: विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ अग्नि आदि देवों के आह्वान से होता है [१] । विशेषकर सूर्य के हिरण्यमय रथ का वर्णन करते हैं [२] । यह सविता देव सब दुरितों को दूर करता है [३] । सूर्य शक्ति व प्रकाश का केन्द्र है [४] । यह सम्पूर्ण प्रजाओं व भुवनों का आधार है [५] । द्युलोक के दो भाग सूर्य के नीचे, एक भाग ऊपर है [६] । यह सूर्य उत्तमता से पालन करनेवाला व प्राणशक्ति को देनेवाला है [७] । यह हिरण्याक्ष है [८] । हिरण्यपाणि व [९] हिरण्यहस्त है [१०] । रजः शून्य पथ से जाता हुआ हमें भी उत्तम उपदेश दे रहा है [११] । यह सूर्य जिस प्रभु की विभूति है उसके आराधन से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -  
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(ये) वक्ष्यमाणाः (ते) तव (पन्थाः) धर्ममार्गाः। अत्र सुपां सुलुग् इति जसः स्थाने सुः। (सवितः) सकलजगदुत्पादकेश्वर (पूर्व्यासः) पूर्वैः कृताः साधिताः सेविताश्च। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। अ० ४।४।१३३। इति पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः। आज्जसेरसुग्# इत्यसुगागमश्च। (अरेणवः) अविद्यमाना रेणवो धूल्यंशा इव विघ्ना येषु ते। अत्रिवृरी०। उ० ३।३७। इति रीधातोर्णुः प्रत्ययः। (सुकृताः) सुष्ठु निर्मिताः (अन्तरिक्षे) स्वव्याप्तिरूपे ब्रह्माण्डे (तेभिः) तैः (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन्नहनि (पथिभिः) उक्तमार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः। सुदुरोरधिकरणे०। अ० ३।२।४८। इति वार्त्तिकेन सूपपदाद्गमधातोर्डः प्रत्ययः (रक्ष) पालय। अत्र द्वचोतस्तिङ इतिदीर्घः। (च) समुच्चये (नः) अस्मभ्यम् (अधि) ईश्वरार्थ उपरिभावे (च) अपि (ब्रूहि) उपदिश (देव) सर्वसुखप्रदातरीश्वर ॥११॥ #[अ० ७।१।५०।]

अन्वय:

अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सवितर्देव जगदीश्वर त्वं कृपया येते तवारेणवः पूर्व्यासः सुकृताः पंथानोन्तरिक्षे स्वव्याप्तिरूपे वर्त्तन्ते तेभिः सुगेभिः पथिभिर्नोस्मानद्य रक्ष च नोस्मभ्यं सर्वा विद्या अधिब्रूहि च ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे इश्वर त्वया ये सूर्यादि लोकानां भ्रमणार्था मार्गा प्राणिसुखाय च धर्ममार्गा अन्तरिक्षे स्वमहिम्नि च रचितास्तेष्विमे यथानियमं भ्रमन्ति विचरन्ति च तान् सर्वेषां पदार्थानां मार्गानां गुणांश्चास्मभ्यं ब्रूहि। येन वयं कदाचिदितस्ततो न भ्रमेमेति ॥११॥ अस्मिन् सूक्ते सूर्यलोकेश्वरवायुगुणानां प्रतिपादनाश्चतुस्त्रिंशसूक्तोक्तार्थेन संगतिरस्तीति वेदितव्यम्। इति ७ वर्गः ७ अनुवाकः ३५ सूक्तं च समाप्तम् ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Savita, self-refulgent lord creator and giver of light, by those paths of divinity set out by you which are ancient and eternal, free from dust and smoke, well laid out on high in heaven, by those very paths simple, straight and pleasant, come to-day, guide and protect us, and reveal into our soul the Voice Divine.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे ईश्वरा! तू सूर्य इत्यादी गोलांना फिरण्यासाठी व प्राण्यांच्या सुखासाठी आकाश व आपल्या महिमामयी जगात शुद्ध मार्ग निर्माण केलेले आहेस, ज्यात सूर्य इत्यादी गोल नियमाने फिरतात व सर्व प्राणी त्यात वावरतात. त्या सर्व पदार्थांच्या मार्गांचा व गुणांचा उपदेश कर ज्यामुळे आम्ही इकडे तिकडे भटकता कामा नये. ॥ ११ ॥