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त्रिर्नो॑ र॒यिं व॑हतमश्विना यु॒वं त्रिर्दे॒वता॑ता॒ त्रिरु॒ताव॑तं॒ धियः॑ । त्रिः सौ॑भग॒त्वं त्रिरु॒त श्रवां॑सि नस्त्रि॒ष्ठं वां॒ सूरे॑ दुहि॒ता रु॑ह॒द्रथ॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trir no rayiṁ vahatam aśvinā yuvaṁ trir devatātā trir utāvataṁ dhiyaḥ | triḥ saubhagatvaṁ trir uta śravāṁsi nas triṣṭhaṁ vāṁ sūre duhitā ruhad ratham ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्रिः । नः॑ । र॒यिम् । व॒ह॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । त्रिः । दे॒वता॑ता । त्रिः । उ॒त । अ॒व॒त॒म् । धियः॑ । त्रिः । सौ॒भ॒ग॒त्वम् । त्रिः । उ॒त । श्रवां॑सि । नः॒ । त्रिः॒स्थम् । वा॒म् । सूरे॑ । दु॒हि॒ता । रु॒ह॒त् । रथ॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:34» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किस कार्य के साधक हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवताता) शिल्प क्रिया और यज्ञ संपत्ति के मुख्य कारण वा विद्वान् तथा शुभगुणों के बढ़ाने और (अश्विना) आकाश पृथिवी के तुल्य प्राणियों को सुख देनेवाले विद्वान् लोगो ! (युवम्) आप (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) उत्तम धन (त्रिः) तीन बार अर्थात् विद्या राज्य श्री की प्राप्ति और रक्षण क्रियारूप ऐश्वर्य्य को (वहतम्) प्राप्त करो (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों (उत) और बल को (त्रिः) तीन बार (अवतम्) प्रवेश कराइये (नः) हम लोगों के लिये (त्रिष्ठम्) तीन अर्थात् शरीर आत्मा और मन के सुख में रहने और (सौभगत्वम्) उत्तम ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेवाले पुरुषार्थ को (त्रिः) तीन अर्थात् भृत्य, संतान और स्वात्म भार्यादि को प्राप्त कीजिये (उत) और (श्रवांसि) वेदादि शास्त्र वा धनों को (त्रिः) शरीर प्राण और मन की रक्षा सहित प्राप्त करते और (वाम्) जिन अश्वियों के सकाश से (सूरेः) सूर्य की (दुहिता) पुत्री के समान कान्ति (नः) हम लोगों के (रथम्) विमानादि यानसमूह को (त्रिः) तीन अर्थात् प्रेरक साधक और चाकन क्रिया से (आरुहत्) ले जाती है उन दोनों को हम लोग शिल्प कार्यों में अच्छे प्रकार युक्त करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि अग्नि भूमि के अवलंब से शिल्प कार्यों की सिद्ध और बुद्धि बढ़ाकर सौभाग्य और उत्तम अन्नादि पदार्थों को प्राप्त हो इस सब सामग्री से सिद्ध हुए यानों में बैठ के देश देशान्तरों को जा-आ और व्यवहार द्वारा धन को बढ़ाकर सब काल में आनन्द में रहें ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सूर्यसम कान्ति

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (अश्विना) - प्राणापानो ! (युवम्) - आप (नः) - हमें (त्रिः) - तीन बार (रयिम्) - धन को (वहतम्) - प्राप्त कराओ - शरीर में 'स्वास्थ्यरूप धन को', मन में 'सत्य' रूप धन को तथा मस्तिष्क में 'ज्ञान' रूप धन को ।  २. (त्रिः) - तीन प्रकार से (देवताता) - हमारे अन्दर दिव्यगुणों को विस्तार करनेवाले होओ । "हम असत् से सत् को, 'तमस् से ज्योति' को प्राप्त हों, मृत्यु से अमरता का लाभ करें" ।  ३. हे अश्विनी देवो ! (उत) - और (धियः) - बुद्धियों को (त्रिः) - तीन बार (अवतम्) - रक्षित करो । सन्तान, धन व लोक की एषणाएँ हमारी बुद्धि को विकृत न कर दें ।  ४. हमें (त्रिः) - तीन बार ही (सौभगत्वम्) - उत्तम भग को प्राप्त कराइए । प्राणों की साधना से हम जीवन के प्रारम्भ में ऐश्वर्य व धर्म को प्राप्त करें, मध्य में यश व श्री - सम्पन्न हों व अन्त में ज्ञान व वैराग्य को प्राप्त कर सकें, ये छह - के - छह भग हमें प्राणों की साधना से प्राप्त हों  ४. (उत) - और (नः) - आपके इस (त्रिष्ठं रथम्) - इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि इन तीनों के अधिष्ठानभूत इस रथ को (सूरेः दुहिता) - सूर्य की दुहिता (अरुहत्) - आरूढ़ हो । सूर्य की दुहिता वेद में 'सूर्या' है - यह सूर्य की कान्ति ही है, अर्थात् हमारी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सभी कान्ति - सम्पन्न हों । प्राणों की साधना से हम सूर्य के समान कान्तिवाले बनते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना से हमें स्वास्थ्य, सत्य व ज्ञानरूप धन प्राप्त हो, हम सत्, ज्योति व अमृतत्त्व को प्राप्त करें, हमारी बुद्धि त्रिविध एषणाओं से अभिभूत न हो जाए, हमें सौभाग्य प्राप्त हो और हम सूर्यसम कान्तिवाले बनें ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(त्रिः) त्रिवारं विद्याराज्यश्रीप्राप्तिरक्षणक्रियामयम् (नः) अस्मान् (रयिम्) परमोत्तमं धनम् (वहतम्) प्रापयतम् (अश्विना) द्यावापृथिव्यादिसंज्ञकाविव। अत्र सुपां सुलुग् इत्याकारादेशः। (युवम्) युवाम् (त्रिः) त्रिवारं प्रेरकसाधक क्रियाजन्यम्। (देवताता) शिल्पक्रियायज्ञसंपत्तिहेतू यद्वा देवान् विदुषो दिव्यगुणान्वा तनुतस्तौ। अत्र दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।८८।# इति क्तः प्रत्ययः। देवतातेति यज्ञनामसु पठितम्। निघं० ३।१७। (त्रिः) त्रिवारं शरीरप्राणमनोभी रक्षणम् (उत) अपि (अवतम्) प्रविशतम् (धियः) धारणावतीर्बुद्धीः (त्रिः) त्रिवारं भृत्यसेनास्वात्मभार्यादिशिक्षाकरणम् (सौभगत्वम्) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्मात् पुरुषार्थात्तस्येदं* सौभगं तस्य भावः¤ सौभगत्वम् (त्रिः) त्रिवारंश्रवणमनननिदिध्यासनकरणम् (उत) अपि (श्रवांसि) श्रूयन्ते यानि तानि वेदादिशास्त्रश्रवणानि धनानि वा। श्रव इति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। (नः) अस्माकम् (त्रिस्थम्) त्रिषु शरीरात्ममनस्सुखेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम् (वाम्) तयोः (सूरे) सूर्यस्य। अत्र सुपां सुलुग् इति शे आदेशः। (दुहिता) कन्येव। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा। निरु० ३।४। (आ) समंतात् (रुहत्) रोहेत्‡। अत्र◌कृमृहरुहिभ्यश्छन्दसि इति च्लेरङ्।¶ बहुलं छन्दस्य माङ्योगेपि इत्यडभावो लङर्थे लुङ्। च (रथम्) रमन्ते येन तं विमानादियानसमूहम् ॥५॥ #[उ० ३।९०।] *[तस्येदम्।अ० ४।३।१२०। इत्यण् प्र०।] ¤[तस्य भवस्त्वतलौ। अ० ५।५।११९। इति ‘त्व’ प्र०] ‡[रोहति,सं०।] ◌[अ० ३।१।५९।] ¶[अ० ६।४।७५।]

अन्वय:

पुनस्तौ किं साधकावित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे देवतातावश्विनौ युवं युवां नोऽस्मभ्यं रयिं त्रिर्वहतं नोस्माकं धियो बुद्धीरुतापि बलं त्रिरवतं नोस्मभ्यं त्रिस्थं सौभगत्वं त्रिर्वहतं प्राप्नुतमुतापि श्रवांसि त्रिर्वहतं प्राप्नुतं वां ययोरश्विनोः सूरे दुहिता पुत्रो वसुविद्यया नोस्माकं रथं त्रिरारुहत् त्रिवारमारोहेत्‡ तौ वयं शिल्पकार्येषु संप्रयुज्महे ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरश्विनोः सकाशाच्छिल्पकार्याणि निर्वर्त्य बुद्धिं वर्धयित्वा सौभाग्यमुत्तमान्नादीनि च प्रापणीयानि तत्सिद्धयानेषु स्थित्वा देशदेशान्तरान् गत्वा व्यवहारेण धनं प्राप्य सदानंदयितव्यमिति ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Ashvins, generous as earth and heaven, bring us, develop and sustain threefold wealth of knowledge, power and protection. Brilliant and godly scholars of science, technology and yajna, three-way benefactors by inspiration, action and achievement, give us threefold enlightenment, protection and sustenance of body, mind and soul. Give us threefold beauty, honour, and grace of prosperity, well-being and noble family. Give us the threefold capacity of listening, reflecting and meditating on Vedas, Shastras and the economics and polity of practical living. And lo! by virtue of your inspiration, action and achievement, the dawn, daughter of the sun, would ride your chariot of glory and in-fuse strength and peace and joy into our body, mind and soul.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अग्नी व भूमीचा अवलंब करून शिल्पकार्य सिद्ध करावे. बुद्धी वाढवून सौभाग्य व उत्तम अन्न इत्यादी पदार्थ प्राप्त करावेत व या सर्व वस्तूंनी सिद्ध झालेल्या यानात बसून देशदेशांतरी ये-जा करून व्यवहाराद्वारे धन वाढवून सर्वकाळी आनंदात राहावे. ॥ ५ ॥