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अयु॑युत्सन्ननव॒द्यस्य॒ सेना॒मया॑तयन्त क्षि॒तयो॒ नव॑ग्वाः । वृ॒षा॒युधो॒ न वध्र॑यो॒ निर॑ष्टाः प्र॒वद्भि॒रिन्द्रा॑च्चि॒तय॑न्त आयन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayuyutsann anavadyasya senām ayātayanta kṣitayo navagvāḥ | vṛṣāyudho na vadhrayo niraṣṭāḥ pravadbhir indrāc citayanta āyan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अयु॑युत्सन् । अ॒न॒व॒द्यस्य॑ । सेना॑म् । अया॑तयन्त । क्षि॒तयः॑ । नव॑ग्वाः । वृ॒ष॒युधः॑ । न । वध्र॑यः । निःअ॑ष्टाः । प्र॒वत्भिः॑ । इन्द्रा॑त् । चि॒तय॑न्तः । आ॒य॒न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:33» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसका क्या कार्य है, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नवग्वाः) नवीन-२ शिक्षा वा विद्या के प्राप्त करने और कराने (वृषायुधः) अतिप्रबल शत्रुओं के साथ युद्ध करने (चितयन्तः) युद्धविद्या से युक्त (क्षितयः) मनुष्य लोगो आप (अनवद्यस्य) जिस उत्तम गुणों से प्रशंसनीय सेनाध्यक्ष की (सेनाम्) सेना को (अयातयन्त) उत्तम शिक्षा से यत्नवाली करके शत्रुओं के साथ (अयुयुत्सन्) युद्ध की इच्छा करो जिस (इन्द्रात्) शूरवीर सेनाध्यक्ष से (वध्रयः) निर्बल नपुसकों के (न) समान शत्रुलोग (निरष्टाः) दूर-२ भागते हुए (प्रवद्भिः) पलायन योग्य मार्गों से (आयन्) निकल जावें उस पुरुष को सेनापति कीजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य शरीर और आत्मबलवाले शूरवीर धार्मिक मनुष्य को सेनाध्यक्ष और सर्वथा उत्तम सेना को संपादन करके जब दुष्टों के साथ युद्ध करते हैं तभी जैसे सिंह के समीप बकरी और मनुष्य के समीप से भीरु मनुष्य और सूर्य्य के ताप से मेघ के अवयव नष्ट होते हैं वैसे ही उक्त वीरों के समीप से शत्रु लोग सुख से रहित और पीठ दिखाकर इधर-उधर भाग जाते हैं इससे सब मनुष्यों को इस प्रकार का सामर्थ्य संपादन करके राज्य का भोग सदा करना चाहिये ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शत्रुओं का भाग खड़े होना

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार (अनवद्यस्य) - प्रशस्त जीवनवाले इन्द्र की (सेनाम्) - दिव्यगुणों की सेना के साथ (अयुयुत्सन्) - वृत्र [वासना] के अनुचरों ने - क्रोध, मोह, मद आदि ने युद्ध करने की कामना की तो (नवग्वाः) - [नवनीय गतयः, स्तोतव्यचरित्राः - सा०] स्तुत्य आचरणवाले (क्षितयः) - उत्तम निवास व गतिवाले पुरुषों ने (अयातयन्त) - [to torture] इन वृत्रानुचरों को अत्यन्त पीड़ित किया, अर्थात् इन क्रोधादि को युद्ध में परास्त कर दिया ।  २. (वृषायुधः) - [वृषण सह युद्ध कुर्वन्तः] शूरवीर पुरुष के साथ युद्ध करते हुए (वध्रयः) - नपुंसक (न) - जैसे नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार (इन्द्रात्) - जितेन्द्रिय पुरुष से (निरष्टाः) - निराकृत हुए - हुए [निरस्ताः] परे फेंकें हुए ये वृत्र के अनुचर (चितयन्तः) - अपनी अशक्ति को जानते हुए, इन्द्र के सामने अपनी दाल न गलती देखकर (प्रवद्भिः) - निम्न मार्गों से - भागने के लिए सुगम मार्गों से (आयन्) - चले जाते हैं, अर्थात् जैसे महादेवजी के सामने कामदेव खड़े होने का साहस नहीं रखते, इसी प्रकार इन्द्र के सामने अशुभ भावनाएँ खड़ी नहीं रह पाती हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - नवग्वा क्षितिः - प्रशस्त गतिवाले मनुष्य वासनाओं को इस प्रकार नष्ट कर देते हैं जैसे एक वीर एक नपुंसक को ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अयुयुत्सन्) युद्धेच्छां कुर्य्युः। अत्र लिङर्थे लङ्। व्यत्ययेन परस्मैपदं च (अनवद्यस्य) सद्गुणैः प्रशंसनीयस्य सेनाध्यक्षस्य (सेनाम्) चतुरंगिणीं संपाद्य (अपातयन्त) सुशिक्षया प्रयत्नवतीं संस्कुर्वन्तु (क्षितयः) क्षियन्ति क्षयं प्राप्नुवन्ति निवसन्ति ये ते मनुष्याः। क्षितय इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। क्षिनिवासगत्योरर्थयोर्वर्त्तमानाद् धातोः। क्तिच् क्तौ च संज्ञायाम्। अ० ३।३।१७४। अनेन क्तिच्। (नवग्वाः) नवीनशिक्षाविद्याप्राप्तः प्रापयितारश्च। नवगतयो नवनीतगतयो वा। निरु० ११।१९। (वृषायुधः) ये वृषेण वीर्यवता शूरवीरेण सह युध्यन्ते ते। वृषोपपदे क्विप् च इतिक्विप्। अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घः। (न) इव (वध्रयः) ये वध्यन्ते निर्वीर्या नपुंसका वीर्य्यहीनास्ते (निरष्टाः) ये नितरां अश्यन्ते व्याप्यन्ते शत्रुभिर्बलेन ते (प्रवद्भिः) ये नीचमार्गैः प्रवन्ते प्लवन्ते तैः (इन्द्रात्) शूरवीरात् (चितयन्तः) धनुर्विद्यया प्रहारादिकं संज्ञानन्तः (आयन्) ईयुः। अत्र लिङर्थे लङ् ॥६॥

अन्वय:

पुनस्तस्य किं कृत्यमित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे नवग्वा वृषायुधश्चितयन्तः क्षितयो मानुषा भवन्तो यस्यानवद्यस्य सेनामयातयंत दुष्टैः शत्रुभिः सहायुयुत्सन् यस्मादिन्द्रात्सेनाध्यक्षात् वध्रयो नेव शत्रवश्चितयन्तो निरष्टाः सन्तः प्रवद्भिर्मार्गैरायन् पलायेरँस्तं सेनाध्यक्षं स्वीकुर्वन्तु ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये मानवाः शरीरात्मबलयुक्तं शूरवीरं धार्मिकं मनुष्यं सेनाध्यक्षं कृत्वा सर्वथोत्कृष्टां सेनां संपाद्य यदा दुष्टैः सह युद्धं कुर्वन्ति तदा यथा सिंहस्य समीपादजा वीरस्य समीपाद्भीरवः सूर्यस्य प्रतापाद् वृत्रावयवा नश्यन्ति तथा तेषां शत्रवो नष्टसुखादर्शितपृष्ठा इतस्ततः पलायन्ते। तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरीदृशं सामर्थ्यं संपाद्य राज्यं भोक्तव्यमिति ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Settled heroes of the nation, brave fighters, trained in the latest arms and tactics, experts of offence and defence, strengthening and elevating the striking power of the admirable commander of the ruler and supreme commander, try to fight and fight on so that the enemies, defeated and demoralised, flee away from Indra down hill by the swiftest course, like emasculated cowards.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे शरीर व आत्मबलयुक्त शूरवीर धार्मिक माणसाला सेनाध्यक्ष करतात. संपूर्ण उत्तम सेना तयार करून दुष्टांबरोबर जेव्हा युद्ध करतात तेव्हा जसे सिंहासमोर बकरी, शूर माणसासमोर भित्रा माणूस व सूर्याच्या तापाने मेघाचे अवयव नष्ट होतात तसेच वरील वीराचे शत्रू भयभीत होऊन पलायन करतात. त्यासाठी सर्व माणसांनी या प्रकारे सामर्थ्य संपादन करून सदैव राज्याचा भोग घेतला पाहिजे. ॥ ६ ॥