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परा॑ चिच्छी॒र्षा व॑वृजु॒स्त इ॒न्द्राय॑ज्वानो॒ यज्व॑भिः॒ स्पर्ध॑मानाः । प्र यद्दि॒वो ह॑रिवः स्थातरुग्र॒ निर॑व्र॒ताँ अ॑धमो॒ रोद॑स्योः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parā cic chīrṣā vavṛjus ta indrāyajvāno yajvabhiḥ spardhamānāḥ | pra yad divo harivaḥ sthātar ugra nir avratām̐ adhamo rodasyoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परा॑ । चि॒त् । शी॒र्षा । व॒वृ॒जुः॒ । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । अय॑ज्वानः । यज्व॑भिः । स्पर्ध॑मानाः । प्र । यत् । दि॒वः । ह॒रि॒वः॒ । स्था॒तः॒ । उ॒ग्र॒ । निः । अ॒व्र॒तान् । अ॒ध॒मः॒ । रोद॑स्योः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:33» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में इन्द्रशब्द से शूरवीर के काम का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हरिवः) प्रशंसित सेना आदि के साधन घोड़े हाथियों से युक्त (प्रस्थातः) युद्ध में स्थित होने और (उग्र) दुष्टों के प्रति तीक्ष्णव्रत धारण करनेवाले (इन्द्र) सेनापति ! (चित्) जैसे हरण आकर्षण गुण युक्त किरणवान् युद्ध में स्थित होने और दुष्टों को अत्यन्त ताप देनेवाला सूर्यलोक (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी का प्रकाश और आकर्षण करता हुआ मेघ के अवयवों को छिन्न-भिन्न कर उसका निवारण करता है वैसे आप (यत्) जो (अयज्वानः) यज्ञ के न करनेवाले (यज्वभिः) यज्ञ के करनेवालों से (स्पर्द्धमानाः) ईर्षा करते हैं वे जैसे (शीर्षाः) अपने शिरों को (ते) तुम्हारे सकाश से (ववृजुः) छोड़नेवाले हों वैसे उन (अव्रतान्) सत्याचरण आदि व्रतों से रहित मनुष्यों को (निरधमः) अच्छे प्रकार दण्ड देकर शिक्षा कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य दिन और पृथिवी और प्रकाश को धारण तथा मेघ रूप अन्धकार को निवारण करके वृष्टि द्वारा सब प्राणियों को सुख युक्त करता है वैसे ही मनुष्यों को उत्तम-२ गुणों का धारण खोटे गुणों को छोड़ धार्मिकों की रक्षा और अधर्मी दुष्ट मनुष्यों को दंड देकर विद्या उत्तम शिक्षा और धर्मोपदेश की वर्षा से सब प्राणियों को सुख देके सत्य के राज्य का प्रचार करना चाहिये ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अव्रतों का विध्वंस

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार जब इन्द्र लोभ व वासना का नाश करता है तब हे (इन्द्र) - शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जीव ! हृदयदेश में (यज्वभिः) - यज्ञानुष्ठान करने की दिव्य भावनाओं से (स्पर्धमानाः) - स्पर्धा करती हुई (ते) - वे (अयज्वानः) - अयज्ञिय भावनाएँ (शीर्षाः) - अपने शिरों को (पराचित् ववृजुः) - पराङ्मुख करके हृदयदेश को दौड़ जाती हैं । ये सब अयज्ञिय भावनाएँ (वृत्र) - [वासना] की अनुचर हैं । हृदयदेश में इनका यज्ञिय भावनाओं से युद्ध चलता रहता है । ये हृदय में अपना आधिपत्य जमाना चाहती हैं, परन्तु लोभ व वृत्र के नष्ट होने पर ये सब वासनाएँ उसी प्रकार पराङ्मुख होकर भाग जाती हैं जैसेकि सेनापति के नष्ट होने पर सेना रण - प्राङ्गण से भाग खड़ी होती है,  २. परन्तु यह होता तभी है (यत्) - [यदा] जब ये (हरिवः) - प्रशस्त इन्द्रियरूप घोड़ोंवाले (स्थातः) - युद्ध में स्थिर रहनेवाले उग्र तेजस्विन् इन्द्र ! तू (दिवः) - ज्ञान के प्रकाश के द्वारा (रोदस्योः द्यावा) - पृथिवी में से, मस्तिष्क व शरीर में से (अवृतान्) - व्रतशून्य भावनाओं को (प्र) - प्रकर्षण (निर् , प्र अधमः) - निःशेषतया भस्म करनेवाला होता है [ध्मा अग्निसंयोगे] । शरीर से तू रोगों को दूर करता है, मस्तिष्क से अज्ञानान्धकारों को । इन रोगों व अज्ञानान्धकारों के नाश के लिए ही तू अपने इन्द्रियरूप घोड़ों प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करता है - इस वासना - संग्राम में तू स्थिर होकर इनके साथ युद्ध करता है तथा तेजस्वी बनकर तू इन वृत्रानुचरों का ध्वंस करता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमें चाहिए कि हम इन्द्रियाश्वों को शुद्ध व प्रशस्त बनाकर धृति का अवलम्बन करके [स्थातः] तेजस्विता के द्वारा अशुभ भावनाओं का विध्वंस करनेवाले बनें ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(परा) दूरीकरणे (चित्) उपमायाम् (शीर्षा) शिरांसि। अत्र अचिशीर्षः। अ० ६।१।६२। इति शीर्षादेशः। शेश्छन्दसि व० इति शेर्लोपः। (ववृजुः) त्यक्तवन्तः। (ते) वक्ष्यमाणाः (इन्द्र) शत्रुविदारयितः शूरवीर (अयज्वानः) यज्ञानुष्ठानं त्यक्तवन्तः (यज्वभिः) कृतयज्ञानुष्ठानैः सह (स्पर्धमानाः) ईर्ष्यकाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) यस्मात् (दिवः) प्रकाशस्य (हरिवः) हरयोऽश्वहस्त्यादयः प्रशस्ताः सेनासाधका विद्यन्ते यस्य स हरिवाँस्तत्संबुद्धौ (स्थातः) यो युद्धे तिष्ठतीति तत्संबुद्धौ (उग्र) दुष्टान् प्रति तीक्ष्णव्रत। (निः) नितराम् (अव्रतान्) व्रतेन सत्याचरणेन हीनान् मिथ्यावादिनो दुष्टान्। (अधमः) शब्दैः शिक्षय (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः। रोदस्ये रिति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्। निघं० ३।३०। ॥५॥

अन्वय:

अथेन्द्रशब्देन शूरवीरकृत्यमुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे हरिवो युद्धं प्रति प्रस्थातरुग्रेन्द्र यथा प्रख्यातोग्रेन्द्रः सूर्यलोको रोदस्योः प्रकाशार्षणे कुर्वन् वृत्रावयवाँश्छित्वा पराधमति तथैव त्वं यद्येऽयज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः सन्ति ते यथा शीर्षा शिरांसि ववृजुस्त्यक्तवन्तो भवेयुस्तानव्रताँस्त्वं निरधमो नितरां शिक्षय दण्डय ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथासूर्यो दिनं पृथिव्यादिकं प्रकाशं च धृत्वा वृत्रान्धकारं निवार्य वृष्ट्या सर्वान् प्राणिनः सुखयति तथैव मनुष्यैः सद्गुणान् धृत्वाऽसद्गुणाँस्त्यक्त्वाऽधार्मिकान् दण्डयित्वा विद्यासुशिक्षाधर्मोपदेशवर्षणेन सर्वान् प्राणिनः सुखयित्वा सत्यराज्यं प्रचारणीयमिति ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of light and justice, firm and steadfast, mighty strong, commander of horse power and armoured force, just as the sun, blazing lord of light and sustainer of earth, heaven and the middle skies, breaks up and scatters the cloud, so do you blow off and scatter the top-notch selfish, uncreative and lawless elements who rival and stall the yajnic creative, constructive and productive powers of your dominion.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य, दिवस, पृथ्वी, प्रकाश यांना धारण करून मेघरूपी अंधःकार नष्ट करतो व वृष्टीद्वारे सर्व प्राण्यांना सुखी करतो तसेच माणसांनी उत्तम गुणांना धारण करून खोट्या गुणांचा त्याग करावा. धार्मिकांचे रक्षण करावे व अधार्मिक दुष्ट माणसांना दंड द्यावा. विद्या व उत्तम शिक्षण आणि धर्मोपदेशाची वृष्टी करावी. सर्व प्राण्यांना सुख द्यावे व सत्य राज्याचा प्रचार करावा. ॥ ५ ॥