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अनु॑ स्व॒धाम॑क्षर॒न्नापो॑ अ॒स्याव॑र्धत॒ मध्य॒ आ ना॒व्या॑नाम् । स॒ध्री॒चीने॑न॒ मन॑सा॒ तमिन्द्र॒ ओजि॑ष्ठेन॒ हन्म॑नाहन्न॒भि द्यून् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu svadhām akṣarann āpo asyāvardhata madhya ā nāvyānām | sadhrīcīnena manasā tam indra ojiṣṭhena hanmanāhann abhi dyūn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अनु॑ । स्व॒धाम् । अ॒क्ष॒र॒न् । आपः॑ । अ॒स्य॒ । अव॑र्धत । मध्ये॑ । आ । ना॒व्या॑नाम् । स॒ध्री॒चीने॑न । मन॑सा । तम् । इन्द्रः॑ । ओजि॑ष्ठेन । हन्म॑ना । अ॒ह॒न् । अ॒भि । द्यून्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:33» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कर्मों का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेना के अध्यक्ष ! आप जैसे (अस्य) इस मेघ का शरीर (नाव्यानाम्) नदी, तड़ाग और समुद्रों में (आवर्द्धत) जैसे इस मेघ में स्थित हुए (आपः) जिस सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर (अनुस्वधाम्) अन्न-२ के प्रति (अक्षरन्) प्राप्त होते और जैसे यह मेघ (सध्रीचीनेन) साथ चलनेवाले (ओजिष्ठेन) अत्यन्त बलयुक्त (हन्मना) हनन करने के साधन (मनसा) मन के सदृश वेग से इस सूर्य के (अभिद्यून्) प्रकाशयुक्त दिनों को (अहन्) अंधकार से ढांप लेता और जैसे सूर्य अपने साथ चलनेवाले किरणसमूह के बल वा वेग से (तम्) उस मेघ को (अहन्) मारता और अपने (अभिद्यून्) प्रकाश युक्त दिनों का प्रकाश करता है वैसे नदी तड़ाग और समुद्र के बीच नौका आदि साधन के सहित अपनी सेना को बढ़ा तथा इस युद्ध में प्राण आदि सब इन्द्रियों को अन्नादि पदार्थों से पुष्ट करके अपनी सेना से (तम्) उस शत्रु को (अहन्) मारा कीजिये ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बिजुली ने मेघ को मार कर पृथिवी पर गिरी हुई वृष्टि यव आदि अन्न-२ को बढ़ाती और नदी तड़ाग समुद्र के जल को बढ़ाती है वैसे ही मनुष्यों को चाहिये कि सब प्रकार शुभ गुणों की वर्षा से प्रजा सुख शत्रुओं का मारण और विद्या वृद्धि से उत्तम गुणों का प्रकाश करके धर्म का सेवन सदैव करें ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्वधा व नाव्यजल

पदार्थान्वयभाषाः - १. अस्य - गतमन्त्र के अनुसार प्रभु का मित्र बननेवाले की (स्वधाम्) - आत्म - धारण शक्ति के (अनु) - अनुसार (आपः) - शरीरस्थ रेतः शक्ति के कण [आपः रेतो भूत्वा०] (अक्षरन्) - शरीर से मलों को दूर करने के लिए गतिशील होते हैं, अर्थात् जब हम आत्मचिन्तन द्वारा चित्तवृत्ति को विषयों से हटाकर स्व - आत्मा को हृदय में धारण करते हैं तब वीर्य के कण शरीर में व्याप्त होकर शरीर के मलों को दूर करनेवाले होते हैं ।  २. और यह 'स्व' का धारण करनेवाला इन (नाव्यानाम्) - भवसागर को तैरने के लिए दी गई इस शरीररूप नाव के लिए हितकर इन रेतः कणों के (मध्ये) - मध्य में (आ अवर्धत) - सब प्रकार की वृद्धि को प्राप्त करता है - शरीर को यह नीरोग बना पाता है, इसका मन निर्मल होता है और इसकी बुद्धि अत्यन्त सूक्ष्म बनती है ।  ३. (इन्द्रः) - यह सर्वतोमुखी उन्नति करनेवाला इन्द्र (सध्रीचीनेन) - सदा परमात्मचिन्तन के साथ चलनेवाले अतएव (ओजिष्ठेन) - ओजस्वी (हन्मना) - वृत्ररूप शत्रु के हनन के साधनभूत (मनसा) - मन के द्वारा (द्यून् अभि) - ज्ञान की ज्योतियों का लक्ष्य करके (तम्) - उस वृत्र को (अहन्) - नष्ट करता है । वृत्र के नाश से ही ज्ञानज्योति दीप्त होती है । वृत्र के हनन के लिए परमात्मा का सहाय्य ही हमें समर्थ बनाता है, अतः यह 'सध्रीचीन मन' आवश्यक ही है । प्रभुचिन्तन हमें ओजस्विता प्राप्त कराता है । ओजस्वी बनकर हम वृत्र को नष्ट कर पाते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम जितना - जितना हृदय में आत्मतत्त्व के धारण का प्रयत्न करते हैं, उतना - उतना शक्तिशाली बनकर वृत्र - 'वासना' का नाश करते हैं और तभी वीर्य के रक्षण से सब प्रकार की उन्नति सम्भव होती है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अनु) वीप्सायाम् (स्वधाम्) अन्नमन्नं प्रति (अक्षरन्) संचलन्ति। अत्र सर्वत्र लडर्थे लङ्। (आपः) जलानि (अस्य) सूर्यस्य (अवर्धत) वर्धते (मध्ये) (आ) समन्तात् (नाव्यानाम्) नावा तार्य्याणां नदी तड़ागसमुद्राणां नौ वयो धर्म० इत्यादिना #यत्। (सध्रीचीनेन) सहांचति गच्छति तत्सध्र्यङ् सध्र्यङ् एव सध्रीचीनं तेन। सहस्य सध्रिः। अ० ६।३।९५। अनेन सध्र्यादेशः। विभाषांचिरदिक् स्त्रियाम्। *अ० ६।३।१३८। इति ¤दीर्घत्वम्। (मनसा) मनोवद्वेगेन (तम्) वृत्रम् (इन्द्रः) विद्युत् (ओजिष्ठेन) ओजो बलं तदतिशयितं तेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (हन्मना) हन्ति येन तेन। अत्र कृतो बहुलमिति। अन्येभ्योपि दृश्यंत इति करणे मनिन् प्रत्ययः। न संयोगाद्वमन्तात्। अ० ६।४।१३७। इत्यल्लोपो न। (अहन्) हन्ति (अभि) आभिमुख्ये (द्यून्) दीप्तान् दिवसान् ॥११॥ #[अ० ४।४।९१।] *[अ० ५।४।८।] ¤[इत्यनेन खः प्रत्ययः, ‘चौ’ अ० ६।३।१३८ इत्यनेन च दीर्घत्वम्। सं०]

अन्वय:

पुनस्तस्येन्द्रस्य कृत्यमुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनाधिपते यथाऽस्य वृत्रस्य शरीरं नाव्यानां मध्ये आवर्धत यथास्य आपः सूर्य्येण छिन्ना अनुस्वधामक्षरन्। यथाचायं वृत्रः सध्रीचीनेनौजिष्ठेन हन्मना मनसाऽस्य सूर्य्यस्याभिद्यूनहन् हन्ति। यथेन्द्रो विद्युत् सध्रीचीनेनौजिष्ठेन बलेन तं हन्ति। अभिद्यून् स प्रकाशान् दर्शयति तथा नाव्यानां मध्ये नौकादिसाधनसहितं बलमावर्ध्यास्य युद्धस्य मध्ये प्राणादीनींद्रियाण्यनुस्वधां चालय सैन्येन तमिमं शत्रुं हिंधि न्यायादीन् प्रकाशय च ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्युता वृत्रं हत्वा निपातिता वृष्टिर्यवादिकमन्नं नदीतड़ागसमुद्रजलं च वर्धयति तथैव मनुष्यैः सर्वेषां शुभगुणानां सर्वतो वर्षणेन प्रजाः सुखयित्वा शत्रून् हत्वा विद्यासद्गुणान् प्रकाश्य सदा धर्मः सेवनीय इति ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The waters of this cloud flow according to their nature, in response to this Indra’s power after the yajnic offers of holy havi, and they collect in the navigable lakes, rivers and seas. Indra, lord of lightning power, strike that cloud of darkness pregnant with waters with your own essential and most lustrous fatal weapon fast as mind, break the darkness, and release the light and waters to flow to the earth.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्युत मेघाला मारून पृथ्वीवर वृष्टी करविते त्यामुळे जव इत्यादी अन्न वाढते. ती नदी, तलाव, समुद्राच्या जलाला वाढविते तसेच माणसांनी सर्व प्रकारच्या शुभगुणांच्या दृष्टीने प्रजासुख, शत्रूंचे हनन व विद्यावृद्धी यांनी उत्तम गुणांचा प्रकाश करून धर्माचे सेवन सदैव करावे. ॥ ११ ॥