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अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म्। यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॑वे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu pratnasyaukaso huve tuvipratiṁ naram | yaṁ te pūrvam pitā huve ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अनु॑। प्र॒त्नस्य॑। ओक॑सः। हु॒वे। तु॒वि॒ऽप्र॒तिम्। नर॑म्। यम्। ते॒। पूर्व॑म्। पि॒ता। हु॒वे॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:29» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर और सभाध्यक्ष की प्रार्थना सब मनुष्यों को करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! (ते) तेरा (पिता) जनक वा आचार्य्य (यम्) जिस (प्रत्नस्य) सनातन कारण वा (ओकसः) सबके ठहरने योग्य आकाश के सकाश से (तुविप्रतिम्) बहुत पदार्थों को प्रसिद्ध करने और (नरम्) सबको यथायोग्य कार्य्यों में लगानेवाले परमेश्वर वा सभाध्यक्ष का (पूर्वम्) पहिले (हुवे) आह्वान करता रहा, उन का मैं भी (अनुहुवे) तदनुकूल आह्वान वा स्तवन करता हूँ॥९॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर मनुष्यों को उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! तुम को औरों के लिये ऐसा उपदेश करना चाहिये कि जो अनादि कारण से अनेक प्रकार के कार्य्यों को उत्पन्न करता है तथा जिस की उपासना पहिले विद्वानों ने की वा अब के करते और अगले करेंगे, उसी की उपासना नित्य करनी चाहिये। इस मन्त्र में ऐसा विषय है कि कोई किसी से पूछे कि तुम किस की उपासना करते हो? उसके लिये ऐसा उत्तर देवे कि जिसकी तुम्हारे पिता वा सब विद्वान् जन करते तथा वेद जिस निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, अज और अनादि स्वरूप जगदीश्वर का प्रतिपादन करते हैं, उसी की उपासना मैं निरन्तर करता हूँ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

घर की ओर

पदार्थान्वयभाषाः - १. हम इस जीवन - यात्रा में हैं , हमारा घर ब्रह्मलोक है । उस घर में हम अपने पिता प्रभु के साथ सानन्द रहते थे । यात्रा पर चले और देवलोक - 'देवयोनि [अन्तरिक्ष] , मर्त्यलोक व असुर्यलोक' आदि में समय - समय पर भ्रमण करते रहे । अब हम (प्रत्नस्य ओकसः अनु) - उस सनातन गृह का लक्ष्य करके - उस प्रभु को (हुवे) - पुकारते हैं , जो प्रभु (तु वि प्रतिम्) - प्रत्येक दृष्टिकोण से महान् हैंः वस्तुतः प्रत्येक गुण की पराकाष्ठा ही हैं । जहाँ निरतिशय ज्ञान है , वे ही तो प्रभु हैं । इसी प्रकार जहाँ निरतिशय बल है , निरतिशय व्यापकता है , वे ही तो सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान् , सर्वव्यापक प्रभु हैं । वे प्रभु (नरम्) - [नृ नये] हमें आगे और आगे ले - चलनेवाले हैं ।  २. वे आगे ले - चलनेवाले प्रभु ही हमारे पिता हैं । आज हम कुछ ठोकर लगने पर उस सनातन घर की याद करने लगे हैं । वेद कहता है कि मनुष्यो ! वही तो तेरा घर है (यम्) - जिसकी ओर (ते पिता) - तेरे पिता तो (पूर्वम्) - पहले ही तुझे आने के लिए (हुवे) - पुकार रहे हैं । प्रभु तो सदा हमें इस यात्रा में अपने को यात्री समझते हुए यहाँ ही फंसकर न रह जाने के लिए प्रेरणा देते ही रहते हैं । यहाँ के चमकीले पदार्थ हमें ऐसा आकृष्ट करते हैं कि हम इनका आनन्द लेने लगते हैं और पिता व घर को भूल जाते हैं । कभी - कभी कष्ट आने पर हमें उनका स्मरण आता है । प्रभु तो सदा प्रेरणा देते ही रहते हैं । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम ब्रह्मलोक को अपने घर का लक्ष्य करके प्रभु से यही आराधना करें कि हम यात्रा को पूर्ण करके घर लौट सकें । वस्तुतः प्रभु की प्रेरणा को हम सुनते रहें , वे हमें सदा लौट आने की प्रेरणा देते ही रहते हैं । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरसभाध्यक्षयोः प्रार्थना सर्वमनुष्यैः कार्येत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे मनुष्य ! ते पिता यं प्रत्नस्यौकसः सनातनस्य कारणस्य सकाशात् तुविप्रतिं बहुकार्यप्रतिमातारं नरं परमेश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा पूर्वं हुवे तमेवाहमनुकूलं हुवे स्तौमि॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनु) पश्चादर्थे (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य। प्रत्नमिति पुराणनामसु पठितम्। (निघं०३.२७) अत्र त्नप् प्रगस्य छन्दसि गलोपश्च। (अष्टा०वा०४.३.२३) अनेन प्रशब्दात्त्नप् प्रत्ययः। (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्याकाशस्य (हुवे) स्तौमि (तुविप्रतिम्) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम्। अत्रैकदेशेन प्रतिशब्देन प्रतिमातृशब्दार्थो गृह्यते। (नरम्) सर्वस्य जगतो नेतारम् (यम्) जगदीश्वरं सभासेनाध्यक्षं वा (ते) तव (पूर्वम्) प्रथमम् (पिता) जनक आचार्यो वा (हुवे) गृह्णात्याह्वयति। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुगात्मनेपदं च॥९॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरो मनुष्यानुपदिशति। हे मनुष्या ! युष्माभिरेवमन्यान् प्रत्युपदेष्टव्यं योऽनादिकारणस्य सकाशादनेकविधानि कार्याण्युत्पादयति। किञ्च यस्योपासनं पूर्वे कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्ति च तस्यैवोपासनं नित्यं कर्त्तव्यमिति। अत्र कञ्चित्प्रति कश्चित् पृच्छेत्त्वं कस्योपासनं करोषीति तस्मा उत्तरं दद्यात् यस्योपासनं तव पिता करोति यस्य च सर्वे विद्वांसः। यं वेदा निराकारं सर्वव्यापिनं सर्वशक्तिमन्तमजमनादिस्वरूपं जगदीश्वरं प्रतिपादयन्ति तमेवाहं नित्यमुपासे॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I invoke and call upon the Primeval Man, eternal father, who creates this multitudinous existence from the eternal womb of nature, the same whom our original forefathers invoked and worshipped.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

All men should pray to God and the President of the Assembly is taught in the ninth Mantra.

अन्वय:

O man, I also invoke in right earnest God who creates many things and works from the eternal cause-Primordial matter whom your father or preceptor also invoked.

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रत्नस्य) सनातनस्य कारणस्य = Of the eternal material Cause = of Primordial 'matter. प्रत्नम् इति पुराणनामसु पठितम् ( निघ० ३.२ ) अत्न स्नप् मत्नाश्च प्रत्यया वक्तव्याः ( अष्टा० ५.४.३० ) अनेन प्रशब्दात् नप् प्रत्ययः । (ओकसः) सर्वनिवासार्थस्य आकाशस्य ( तुविमतिम् ) तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिमातरम् । अत्रैकदेशेन प्रतिशब्देन प्रतिमातृशब्दार्थो गृह्यते । = Creator of many objects.(नरम् ) सर्वस्य जगतो नेतारम् = Supreme Leader of all God.(पिता) जनक आचार्यो वा
भावार्थभाषाः - God teaches men You should thus instruct other men. You should adore only that One God Who creates all these objects out of eternal cause Primordial Matter and who has been always worshipped by people in the past, is worshipped now and will be worshipped in future by all wise men. If one asks whom do you worship ? One should reply I worship that God Whom your father or preceptor and all enlightened persons, adored, I always worship that One God Whom the Vedas describe as Formless, Omnipresent, Omnipotent and eternal.
टिप्पणी: The work पिता is used not only for father, but also for the Acharya or preceptor. As Manu has stated..... तदा मातास्य सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ( मनुः ) जनकश्चोपनेता च, यश्च विद्यां प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता, पंचैते पितरः स्मृताः ॥ (चाणक्य नीतौ ) In this well-known Verse from Chanakyaneeti also the word उपनेता is used for the Acharya and he has been called far because it is he who performs the Upanayan Sanskar or initiation ceremony of his pupils. उपनीय तु यः शिष्यम्, वेदमध्यापयेद् द्विजः ।। सकल्पं सरहस्यंच, तमाचार्य प्रचक्षते ॥ मनु० २.१४० = Saya Manu while giving the definition of an Acharya.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर माणसांना उपदेश करतो - हे माणसांनो ! तुम्ही इतरांना असा उपदेश करा की जो अनादी कारणांपासून अनेक कार्यांना उत्पन्न करतो तसेच ज्याची उपासना प्रथम विद्वानांनी केली, आता करतात व भविष्यातही करतील त्याचीच उपासना नित्य करावी. या मंत्रात असा विषय आहे की, एखाद्याने एखाद्याला विचारले की तू कोणाची उपासना करतोस, तेव्हा असे उत्तर द्यावे की तुमचे पिता व सर्व विद्वान ज्याची उपासना करतात, तसेच वेद ज्या निराकार, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, अजन्मा व अनादिस्वरूप जगदीश्वराचे प्रतिपादन करतात त्याचीच मी सदैव उपासना करतो. ॥ ९ ॥