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विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒स्रिध॒ एहि॑मायासो अ॒द्रुहः॑। मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśve devāso asridha ehimāyāso adruhaḥ | medhaṁ juṣanta vahnayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वे॑। दे॒वासः॑। अ॒स्रिधः॑। एहि॑ऽमायासः। अ॒द्रुहः॑। मेध॑म्। जु॒ष॒न्त॒। वह्न॑यः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:3» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वान् लोग कैसे स्वभाववाले होकर कैसे कर्मों को सेवें, इस विषय को ईश्वर ने अगले मन्त्र में दिखाया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (एहिमायासः) हे क्रिया में बुद्धि रखनेवाले (अस्रिधः) दृढ़ ज्ञान से परिपूर्ण (अद्रुहः) द्रोहरहित (वह्नयः) संसार को सुख पहुँचानेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोगो ! तुम (मेधम्) ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ को प्रीतिपूर्वक यथावत् सेवन किया करो॥९॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देता है कि-हे विद्वान् लोगो ! तुम दूसरे के विनाश और द्रोह से रहित तथा अच्छी विद्या से क्रियावाले होकर सब मनुष्यों को सदा विद्या से सुख देते रहो॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अशोषण - अद्रोह

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र में वर्णित प्रकार से प्राप्त हुए - हुए (विश्वेदेवासः) - सब दिव्यगुण (अस्त्रिधः) - क्षय से रहित हैं । ये मनुष्य को क्षीण न होने देनेवाले हैं अथवा शोषण से रहित हैं । ये मनुष्य में औरों के शोषण  , परन्तु अपने पोषण की वृत्ति को जन्म देनेवाले नहीं हैं ।  २. (एहिमायासः) [आ ईहते इति एहिः  , माया प्रज्ञा] - समन्तात् क्रियाशील प्रज्ञावाले हैं  , अर्थात् ये प्रज्ञा - सम्पादन करते हैं और इनकी प्रज्ञा शरीर  , मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से अथवा व्यक्ति  , समाज  , राष्ट्र व विश्व के दृष्टिकोण से क्रियाशील होती है । ये बुद्धिपूर्वक इस प्रकार का प्रयत्न करते हैं कि 'शरीर  , मन व बुद्धि' तीनों का स्वास्थ्य बढ़े तथा 'व्यक्ति  , समाज व विश्व' सभी का कल्याण - साधन हो ।  ३. (अद्रुहः) - ये विश्वेदेव द्रोह की भावना से रहित होते हैं । दिव्यगुणों का यही तो मुख्य लक्षण है कि वहाँ किसी के प्रति द्रोह की भावना नहीं  , किसी की जिघांसा नहीं  , सबके कल्याण की भावना ही वहाँ काम करती है ।  ४. ये दिव्यगुण  , (वह्नयः) [वोढारः] - कार्यभार का वहन करनेवाले होते हैं । अपने कर्तव्य - कर्मों के भार को सहर्ष स्वीकार करते हैं और उन कर्मों को सफलता तक पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं ।  ५. (मेधम्) - [मेधृ संगमे] अपने कार्यों में संगमन की भावना का (जुषन्त) - प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं । 'सं गच्छध्वम्' प्रभु के इस निर्देश को सम्यक्तया जीवन में क्रियान्वित करते हैं । 'येन देवा न वियन्ति' = देवलोग तो विरुद्ध दिशाओं में चला ही नहीं करते  , वे तो मिलकर ही चलते हैं । वस्तुतः इस मेल व ऐक्य के कारण ही वे मृत्यु को जीतनेवाले होते हैं । इनसे विपरीत वृत्तिवाले असुर 'मिथो विघ्नाना उपयन्तु मृत्युम्' - एक-दूसरे के कार्य को विहत [नष्ट] करते हुए मृत्यु के मार्ग का अनुक्रमण करते हैं । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - देवताओं में हिंसा व द्रोह नहीं होते । ये मिलकर चलते हैं । कार्यों को समाप्ति तक ले - जानेवाले होते हैं । इनकी प्रज्ञा व्यापक  , उन्नतिवाले कर्मों को सिद्ध करती है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एते कीदृशस्वभावा भूत्वा किं सेवेरन्नित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे एहिमायासोऽस्रिधोऽद्रुहो वह्नयो विश्वेदेवासो भवन्तो मेधं ज्ञानक्रियाभ्यां सेवनीयं यज्ञं जुषन्त संप्रीत्या सेवध्वम्॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) समस्ताः (देवासः) वेदपारगाः (अस्रिधः) अक्षयविज्ञानवन्तः। क्षयार्थस्य नञ्पूर्वकस्य स्रिधेः क्विबन्तस्य रूपम्। (एहिमायासः) आसमन्ताच्चेष्टायां प्रज्ञा येषां ते। चेष्टार्थस्याङ्पूर्वस्य ईहधातोः सर्वधातुभ्य इन्। (उणा०४.११९) इतीन्प्रत्ययान्तं रूपम्। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (मेधम्) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा सह सङ्गमम्। मेध इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (जुषन्त) प्रीत्या सेवध्वम्। (वह्नयः) सुखस्य वोढारः। अयं वहेर्निप्रत्ययान्तः प्रयोगः वह्नयो वोढारः। (निरु०८.३)॥९॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञापयति-भो विद्वांसः ! परक्षयद्रोहरहिता विशालविद्यया क्रियावन्तो भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्यासुखयोः सदा दातारो भवन्त्विति॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Divinities of the world, unerring and unfouling lovers of Omniscience, free from hate and fear, come at the fastest and join the ecstasies of the brilliant fires of the yajna of love, compassion and knowledge.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should be their nature and what should they serve is taught in the 9th Mantra.

अन्वय:

Let learned persons well-versed in the Vedas and possessing un-decaying wisdom, devoid of malice, bearers of happiness, whose intellect is on all sides engaged in doing noble acts, attend the pure Yajna (non-violent sacrifice) consisting of knowledge, good actions and association with the learned and noble virtues.

पदार्थान्वयभाषाः - (एहिमायासः) मायेति प्रज्ञानाम (निघ० ३.९ ) आसमन्तात् चेष्टायांप्रज्ञा येषां ते ईहधातोः सर्वधातुभ्यइन् (उणा० ८. ११९ ) इति इन् प्रत्यय: (मेधम् ) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा संगमम् मेधइतियज्ञनामसु (निघ० ३.१७ ) वह्नयः वोढार: (निरुक्ते ८.३ ) वह प्रापणे इति धातोर्निप्रत्ययः । (मेधम्) मेधृ-मेधासंगमनयोहिंसायां च The Medha used for Yajna is from the root, Medhri to associate hence the commentator's explanation सर्वैर्विद्भिः शुभैर्गुणै कर्मभिर्वा संगमम् How absurd it is for Roth, Bohtlink and Griffith to translate एहिमायास: as changing shape like serpents. This is nothing but the wild imagination of Roth and Bohtlink confounding एहिमायास: with अहिमायास: though the two are quite different. Rishi Dayananda is right in deriving एहि from आसमन्तात् prefix with ईह-चैष्टायाम् and giving the meaning of समन्तात् चेष्टायां प्रज्ञा येषाम् मायेति प्रज्ञानाम निघ० ३.१ as translated above, viz. whose intellect is on all sides engaged in noble acts. whom Even Sayanacharya on many western scholars generally rely interprets it as सर्वतोव्याप्तप्रज्ञा : i. e. very intelligent. Wilson translates it as 'Omniscient" which is not quite correct. But Roth's and Griffith's translation as 'changing shape like serpents' is simply astounding and even mischievous as it implies by serpent's simile crookedness in devas or wise men which is against the Vedic spirit. देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजुयताम् ( ऋ० १-८९.१ ) ऋजुदीध्यानाः ।। तैः कीदृशी वाक् प्राप्तुमेष्टव्येत्युपदिश्यते ।। (ऋ० १०-६७-२ )
भावार्थभाषाः - God commands — O learned people ! You should be always givers of knowledge and happiness to all persons, being free from violence and malice, possessing vast learning and being engaged in good deeds.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर आज्ञा देतो की- हे विद्वान लोकांनो! तुम्ही दुसऱ्याचा नाश व विद्रोह न करता ज्ञानवान व कर्मशील बनून सर्व माणसांना सदैव विद्येचे सुख देत राहा. ॥ ९ ॥