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पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती। य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pāvakā naḥ sarasvatī vājebhir vājinīvatī | yajñaṁ vaṣṭu dhiyāvasuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पा॒व॒का। नः॒। सर॑स्वती। वाजे॑भिः। वा॒जिनी॑ऽवती। य॒ज्ञम्। व॒ष्टु॒। धि॒याऽव॑सुः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:3» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वानों को किस प्रकार की वाणी की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में ईश्वर ने कहा है-

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजेभिः) जो सब विद्या की प्राप्ति के निमित्त अन्न आदि पदार्थ हैं, उनके साथ जो (वाजिनीवती) विद्या से सिद्ध की हुई क्रियाओं से युक्त (धियावसुः) शुद्ध कर्म के साथ वास देने और (पावका) पवित्र करनेवाले व्यवहारों को चितानेवाली (सरस्वती) जिसमें प्रशंसा योग्य ज्ञान आदि गुण हों, ऐसी उत्तम सब विद्याओं को देनेवाली वाणी है, वह हम लोगों के (यज्ञम्) शिल्पविद्या के महिमा और कर्मरूप यज्ञ को (वष्टु) प्रकाश करनेवाली हो॥१०॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि वे ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ से सत्य विद्या और सत्य वचनयुक्त कामों में कुशल और सब के उपकार करनेवाली वाणी को प्राप्त रहें, यह ईश्वर का उपदेश है॥१०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सरस्वती की आराधना का फल

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार हममें दिव्यगुणों का विकास हो इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वाध्यायशील बनकर सरस्वती - ज्ञानाधिदेवता की आराधना करें  , इसलिए मन्त्र में कहते हैं कि (सरस्वती) - ज्ञानाधिदेवता (नः) - हमारे लिए (पावका) - पवित्रता की देनेवाली हो । इस सरस्वती की आराधना से  , नैत्यिक स्वाध्याय से हमारा जीवन पवित्र हो । ['न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' - ज्ञान ही अनुपम पवित्रता का सम्पादन करनेवाला है ।] सारी मलिनता अज्ञानजन्य है  , अतएव अज्ञान ही सारे क्लेशों का क्षेत्र है । वस्तुतः अज्ञान ही क्लेश है और ज्ञान ही सुख व स्वर्ग है ।  २. यह ज्ञान पवित्रता के सम्पादन से जहाँ पारलौकिक निःश्रेयस [मोक्ष] का साधन बनता है  , वहाँ यह सरस्वती (वाजेभिर्वाजिनीवती) [अन्नैरन्नवती - यास्क] अन्नों से अन्नवाली है  , अर्थात् प्रशस्त अन्नों को प्राप्त करानेवाली है  , इसलिए लौकिक दृष्टिकोण से यह अभ्युदय की साधिका है । इस सरस्वती की आराधना से मनुष्य उन सात्विक अन्नों को प्राप्त करनेवाला होता है  , जो उसे शक्तिशाली बनाते हैं  , त्याग की भावनावाला बनाते हैं [वाज - शक्ति  , त्याग] ।  ३. इस सरस्वती की आराधना करनेवाला (धियावसुः) - [कर्मवसुः निरु०] ज्ञानपूर्वक कमों से धन का सम्पादन करनेवाला व्यक्ति (यज्ञं वष्टु) - यज्ञ की कामना करे  , अर्थात् [क] स्वाध्यायशील पुरुष ज्ञानी तो बनता ही है  , [ख] वह ज्ञान प्राप्त करके प्रत्येक कर्म को प्रज्ञापूर्वक करता है  , [ग] इन कर्मों के द्वारा ही वह धन कमाने का ध्यान करता है  और [घ] धनार्जन करके वह यज्ञों की ही कामनावाला होता है  , उस धन का विनियोग यज्ञों में ही करता है  , विलास की वृत्तिवाला नहीं बन जाता । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - स्वाध्याय मनुष्य को पवित्र बनाता है  , उत्तम धनों को प्राप्त कराता है । यह स्वाध्यायशील पुरुष प्रज्ञापूर्वक कर्मों से धनार्जन करके उस धन का यज्ञों में विनियोग करता है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तैः कीदृशी वाक् प्राप्तुमेष्टव्येत्युपदिश्यते।

अन्वय:

या वाजेभिर्वाजिनीवती धियावसुः पावका सरस्वती वागस्ति सास्माकं शिल्पविद्यामहिमानं कर्म च यज्ञं वष्टु तत्प्रकाशयित्री भवतु॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पावका) पावं पवित्रकारकं व्यवहारं काययति शब्दयति या सा। ‘पूञ् पवने’ इत्यस्माद्भावार्थे घञ्। तस्मिन् सति ‘कै शब्दे’ इत्यस्मात् आतोऽनुपसर्गे कः। (अष्टा०३.२.३) इति कप्रत्ययः। उपपदमतिङ्। (अष्टा०२.२.१९) इति समासः। (नः) अस्माकम् (सरस्वती) सरसः प्रशंसिता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्यां सा सर्वविद्याप्रापिका वाक्। सर्वधातुभ्योऽसुन्। (उणा०४.१८९) अनेन गत्यर्थात् सृधातोरसुन्प्रत्ययः। सरन्ति प्राप्नुवन्ति सर्वा विद्या येन तत्सरः। अस्मात्प्रशंसायां मतुप्। सरस्वतीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (वाजेभिः) सर्वविद्याप्राप्ति-निमित्तैरन्नादिभिः सह। वाज इत्यन्ननामसु पठितम्। (निरु०२.७) (वाजिनीवती) सर्वविद्यासिद्धक्रियायुक्ता। वाजिनः क्रियाप्राप्तिहेतवो व्यवहारास्तद्वती। वाजिन इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.६) अनेन वाजिनीति गमनार्था प्राप्त्यर्था च क्रिया गृह्यते। (यज्ञम्) शिल्पिविद्यामहिमानं कर्म च। यज्ञो वै महिमा। (श०ब्रा०६.२.३.१८) यज्ञो वै कर्म। (श०ब्रा०१.१.२.१) (वष्टु) कामसिद्धिप्रकाशिका भवतु। (धियावसुः) शुद्धकर्मणा सहवासप्रापिका। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। (अष्टा०६.३.१४) अनेन तृतीयातत्पुरुषे विभक्त्यलुक्। सायणाचार्य्यस्तु बहुव्रीहिसमासमङ्गीकृत्य छान्दसोऽलुगिति प्रतिज्ञातवान्। अत एवैतद् भ्रान्त्या व्याख्यातवान्। इमामृचं निरुक्तकार एवं समाचष्टे-पावका नः सरस्वत्यन्नैरन्नवती यज्ञं वष्टु धियावसुः कर्मवसुः। (निरु०११.२६) अत्रान्नवतीति विशेषः॥१०॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरोऽभिवदति-सर्वैर्मनुष्यैः सत्याभ्यां विद्याभाषणाभ्यां युक्ता क्रियाकुशला सर्वोपकारिणी स्वकीया वाणी सदैव सम्भावनीयेति॥१०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May Sarasvati, goddess of divine speech, mother knowledge of arts, science and divinity, come with gifts of food for the mind and intellect and purify us with the light of knowledge. May the mother grace our yajna of arts and sciences and bless us with the light divine.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What kind of speech should they (the learned) desire to obtain is taught in the 10th Mantra.

अन्वय:

May our speech giver of pure food which enable us to acquire knowledge, possessing practical wisdom born of all sciences, be purifier. May it desire and manifest the glory of the arts and crafts and noble actions, helping us to associate ourselves with pure and righteous deeds.

पदार्थान्वयभाषाः - (सरस्वती) सरस: मशंसिता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्यां सा सर्वविद्याप्रापिका वाक् । सृ गतौ सर्वधातुभ्योऽसुन् । (उणादि० ४. १८२ ) इति असुन् प्रत्ययः । सरन्ति प्राप्नुवन्ति सर्वा विद्या येन तत्सरः । तस्मात् प्रशंसायां मतुप् । सरस्वतीतिवाङ्नामसु (निघ० १.११) सरस्वती । Noble speech full of all knowledge. वाज इति पदनामसु (निघo ५.६ ) (वा जनीवती ) सर्व विद्यासिद्धिक्रियायुक्ता = full of practical wisdom born of knowledge वाजिन: प्राप्तिहेतवः व्यवहाराः तद्वती गतेस्त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । ( यज्ञम् ) शिल्पविद्यामहिमानं कर्म च । यज्ञोवै महिमा ( शत० ६.२.३.१८ ) यज्ञो वै कर्म ( शत० १.१.२.१ ). Sayanacharya has wrongly taken धियावसु: कर्मप्राप्यधननिमित्तभूता । But as a matter of fact धियावसु: is तृतीयातत्पुरुष: विभक्त्या-लुक् and it is not बहुब्रिहिसमास as taken by Sayanacharya. How should be our speech is taught further.
भावार्थभाषाः - God commands that all men should have pure speech which is full of all knowledge and utterance, efficient to lead to action and doing good to all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी ईश्वराची प्रार्थना करावी व आपल्या पुरुषार्थाने सत्य विद्या व सत्य वचनयुक्त कामात कुशल व्हावे व सर्वांवर उपकार करणारी वाणी प्राप्त करावी, हाच ईश्वराचा उपदेश आहे. ॥ १० ॥