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उच्छि॒ष्टं च॒म्वो॑र्भर॒ सोमं॑ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज। नि धे॑हि॒ गोरधि॑ त्व॒चि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uc chiṣṭaṁ camvor bhara somam pavitra ā sṛja | ni dhehi gor adhi tvaci ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। शि॒ष्टम्। च॒म्वोः॑। भ॒र॒। सोम॑म्। प॒वित्रे॑। आ। सृ॒ज॒। नि। धे॒हि॒। गोः। अधि॑। त्व॒चि॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:28» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उन से क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् तुम (चम्वोः) पैदल और सवारों की सेनाओं के समान (शिष्टम्) शिक्षा करने योग्य (सोमम्) सर्वरोगविनाशक बलपुष्टि और बुद्धि को बढ़ानेवाले उत्तम ओषधि के रस को (उद्भर) उत्कृष्टता से धारण कर उस से दो सेनाओं को (पवित्रे) उत्तम (आसृज) कीजिये (गोः) पृथिवी के (अधि) ऊपर अर्थात् (त्वचि) उस की पीठ पर सेनाओं को (निधेहि) स्थापन करो॥९॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषों को चाहिये कि दो प्रकार की सेना रक्खें अर्थात् एक तो सवारों की दूसरी पैदलों की, उनके लिये उत्तम रस और शस्त्र आदि सामग्री इकट्ठी करें, अच्छी शिक्षा और औषधि देकर शुद्ध बलयुक्त और नीरोग कर पृथिवी पर एक चक्रराज्य नित्य करें॥९॥सत्ताईसवें सूक्त से अग्नि और विद्वान् जिस-जिस गुण को कहे हैं, वे मूसल और ऊखली आदि साधनों को ग्रहण कर औषध्यादि पदार्थों से संसार के पदार्थों से अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उत्पन्न करें, इस अर्थ का इस सूक्त में सम्पादन करने से सत्ताईसवें सूक्त के कहे हुए अर्थ के साथ अट्ठाईसवें सूक्त की सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥९॥सत्ताईसवें सूक्त से अग्नि और विद्वान् जिस-जिस गुण को कहे हैं, वे मूसल और ऊखली आदि साधनों को ग्रहण कर औषध्यादि पदार्थों से संसार के पदार्थों से अनेक प्रकार के उत्तम-उत्तम पदार्थ उत्पन्न करें, इस अर्थ का इस सूक्त में सम्पादन करने से सत्ताईसवें सूक्त के कहे हुए अर्थ के साथ अट्ठाईसवें सूक्त की सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

चमुओं में सोम का भरण

पदार्थान्वयभाषाः - १. हमें चाहिए कि सोम को नष्ट न होने दें । यह शरीर का सर्वोत्तम रत्न है । शरीर की टूट - फूट को ठीक करने में जितना इसका विनियोग हो जाए उससे उच्छिष्टम् - बचे हुए सोम को चम्बोः - [चम्वो द्यावापृथिव्योर्नाम , नि० ३/३०] द्यावापृथिवी के निमित्त , अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के निमित्त [मूर्ध्नो द्यौः , पृथिवी शरीरम्] (भर) - शरीर में ही तू संभृत कर । यह सुरक्षित सोम तेरा वह कोश होगा जिसके द्वारा तू अपनी ज्ञानाग्नि में सदा समिधा डालता हुआ ज्ञानाग्नि को चमका सकेगा और रोगनाश द्वारा शरीर को पुष्ट बना सकेगा ।  २. (सोमम्) - सोम को (पवित्रे) - मन की पवित्रता के निमित्त तू (आसज) - शरीर में चारों ओर व्याप्त करनेवाला बन । सोमरक्षण से शक्ति की वृद्धि होती है और मन में भी द्वेष - ईर्ष्यादि की हीन भावनाएँ नहीं उत्पन्न होतीं ।  ३. तू इस सोम को (गोः) - ज्ञानरश्मि के (अधि) - आधिक्येन (त्वचि) - सम्पर्क के [touch - त्वच्] निमित्त (निधेहि) - निश्चित रूप से सुरक्षित रख । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सोम को नष्ट न होने देकर शरीर में ही धारण करना चाहिए , जिससे हमारा मस्तिष्क व शरीर सुन्दर बने , मन पवित्र हो और हम ज्ञान - किरणों के खूब सम्पर्क में हों । 
टिप्पणी: विशेष - सारे सूक्त की मूलभावना यही है कि हम सोम का रक्षण करें । इससे हम प्रभु के स्तोता व व्यापक उन्नतिवाले बनेंगे [१] । हमारे ज्ञान व हमारी भक्ति दोनों का ही पोषण होगा [२] । हृदय में प्रभु के नाम का मन्थन हमारी ज्ञानरश्मियों को संयत करेगा [५] । हम यज्ञशील , शक्तिशाली व उच्च विहरणवाले बनेंगे [७] । इसके रक्षण से ही हमारा जीवन शंसनीय बनेगा -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताभ्यां किं किं साधनीयमित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे विद्वँस्त्वं चम्वोरिव शिष्टं सोममुद्भर तेनोभे सेने पवित्रे आसृज गोः पृथिव्या अधि त्वचि ते निधेहि नितरां संस्थापय॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) उत्कृष्टार्थे क्रियायोगे (शिष्टम्) शिष्यते यस्तम् (चम्वोः) पदातिहस्त्यश्वादिरूढयोः सेनयोरिव (भर) धर (सोमम्) सर्वरोगनाशकबलपुष्टिबुद्धिवर्द्धकमुत्तमौषध्यभिषवम् (पवित्रे) शुद्धे सेविते (आ) समन्तात् (सृज) निष्पादय (नि) नितराम् (धेहि) संस्थापय (गोः) पृथिव्याः। गौरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अधि) उपरि (त्वचि) पृष्ठे॥९॥
भावार्थभाषाः - राजपुरुषादिभिर्द्विविधे सेने सम्पादनीये एका यानारूढा द्वितीया पदातिरूपा तदर्थमुत्तमा रसाः शस्त्रादिसामग्र्यश्च सम्पादनीयाः सुशिक्षयौषधादिदानेन च शुद्धबले सर्वरोगरहिते सङ्गृह्य पृथिव्या उपरि चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवनीयमिति॥९॥सप्तविंशेन सूक्तेनाग्निर्विद्वाँसश्चोक्तास्तैर्मुसलोलूखलादीनि साधनानि गृहीत्वौषध्यादिभ्यो जगत्स्थपदार्थेभ्यो बहुविधा उत्तमाः पदार्थाः सम्पादनीया इत्यस्मिन्सूक्ते प्रतिपादनात् सप्तविंशसूक्तोक्तार्थेन सहास्याष्टाविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥९॥सप्तविंशेन सूक्तेनाग्निर्विद्वाँसश्चोक्तास्तैर्मुसलोलूखलादीनि साधनानि गृहीत्वौषध्यादिभ्यो जगत्स्थपदार्थेभ्यो बहुविधा उत्तमाः पदार्थाः सम्पादनीया इत्यस्मिन्सूक्ते प्रतिपादनात् सप्तविंशसूक्तोक्तार्थेन सहास्याष्टाविंशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - High-priest of soma-yajna, come and create the purest soma as prescribed by experts, hold it on in special containers for vitalisation and place it on the floor of the earth for Indra.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What else can be accomplished with them is taught in the ninth Mantra.

अन्वय:

O learned person, like the two armies, prepare the extract of the herbs which destroys all diseases and makes people strong. By their proper and pure use, make the soldiers of the army healthy and strong. Establish your good government on the face of the earth.

भावार्थभाषाः - The officers of the state, should have two kinds of army, one mounted on cars and carriages and the other on foot. For them, they should keep ready good extract of nourishing herbs and arms and ammunitions. The armies should be trained well and made healthy and strong by proper use of the herbs and drugs (when necessary. By adopting such means good and vast Government on earth should be established.
टिप्पणी: This hymn is connected with the 27th hymn. In that hymn, there was mention of fire and learned people, In this the use of mortar and pestle etc. for various domestic purposes is stated. So they are inter-connected. Here ends the twenty-eighth hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजपुरुषांनी दोन प्रकारच्या सेना बाळगाव्या. एक वाहनस्वार व दुसरे पायदळ. त्यांच्यासाठी उत्तम रस व शस्त्रे इत्यादी साहित्य एकत्र करावे. त्यांना चांगले शिक्षण व औषधी देऊन शुद्ध बलयुक्त व निरोगी बनवावे आणि पृथ्वीवर चक्रवर्ती राज्य स्थापन करावे. ॥ ९ ॥