अथा॑ न उ॒भये॑षा॒ममृ॑त॒ मर्त्या॑नाम्। मि॒थः स॑न्तु॒ प्रश॑स्तयः॥
athā na ubhayeṣām amṛta martyānām | mithaḥ santu praśastayaḥ ||
अथ॑। नः॒। उ॒भये॑षाम्। अमृ॑त। मर्त्या॑नाम्। मि॒थः। स॒न्तु॒। प्रऽश॑स्तयः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर किसलिये उस ईश्वर की प्रार्थना करना और मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
परस्पर भावन
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स किमर्थं याचनीयो मनुष्यैश्च परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥
हे अमृत जगदीश्वर ! भवत्कृपया यथोत्तमगुणकर्मग्रहणेनाथ नोऽस्माकमुभयेषां मर्त्यानां मिथः प्रशस्तयः सन्तु, तथा सर्वेषां भवन्त्विति प्रार्थयामः॥९॥
डॉ. तुलसी राम
आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड
Why should be God prayed to and how should men deal with one another is taught in the 9th Mantra.
O immortal God, by Thy Grace, may the praises of mankind consisting of highly learned and ordinary persons be mutually the source of happiness to all, by the acceptance of good virtues and actions.
