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अथा॑ न उ॒भये॑षा॒ममृ॑त॒ मर्त्या॑नाम्। मि॒थः स॑न्तु॒ प्रश॑स्तयः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

athā na ubhayeṣām amṛta martyānām | mithaḥ santu praśastayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अथ॑। नः॒। उ॒भये॑षाम्। अमृ॑त। मर्त्या॑नाम्। मि॒थः। स॒न्तु॒। प्रऽश॑स्तयः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:26» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किसलिये उस ईश्वर की प्रार्थना करना और मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अमृत) अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर ! आप की कृपा से जैसे उत्तम गुण कर्मों के ग्रहण से (अथ) अनन्तर (नः) हम लोग जो कि विद्वान् वा मूर्ख हैं (उभयेषाम्) उन दोनों प्रकार के (मर्त्यानाम्) मनुष्यों की (मिथः) परस्पर संसार में (प्रशस्तयः) प्रशंसा (सन्तु) हों, वैसे सब मनुष्यों की हों, ऐसी प्रार्थना करते हैं॥९॥
भावार्थभाषाः - जब तक मनुष्य लोग राग वा द्वेष को छोड़कर परस्पर उपकार के लिये विद्या शिक्षा और पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम कर्म नहीं करते, तब तक वे सुखों के सम्पादन करने को समर्थ नहीं हो सकते। इसलिये सबको योग्य है कि परमेश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान होकर सब का कल्याण करें॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

परस्पर भावन

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार उत्तम माता - पिता व आचार्य से शिक्षित होने पर (अथा) - अब (नः) - हमारी (अमृतमर्त्यानाम्) - 'अमृत' कभी न बुझनेवाली ज्ञानाग्नि और यज्ञ करनेवाले जो हम मर्त्य हैं (उभयेषाम्) - इन दोनों की (मिथः) - परस्पर (प्रशस्तयः) - प्रशस्तियाँ (सन्तु) - हों , अर्थात् - हमारे जीवन यज्ञमय हों और इस प्रकार देवों से प्रशंसा के योग्य हों तथा वाय्वादि देव भी हमें उत्तम अन्नादि प्राप्त करानेवाले हों और हम उन देवों के अनुग्रह का प्रशंसन करें ।  २. गीता में मनुष्य को कहा गया है कि "देवान् भावयतानेन" - तुम यज्ञ द्वारा देवों का आदर करो 'ते देवा भावयन्तु वः' - वे देव अन्नादि के प्रापण से तुम्हारा आदर करें । इस प्रकार 'परस्पर भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्य' - परस्पर भावना करते हुए तुम उत्कृष्ट कल्याण को प्राप्त करोगे । कालिदास ने लिखा है कि मृत्युलोक का राजा दिलीप यज्ञों के द्वारा इस पृथिवीलोक को खाली करके द्युलोक को भर रहा था तथा द्युलोक का राजा इन्द्र वृष्टि द्वारा द्युलोक को खाली करके पृथिवीलोक को भरने में लगा था । इस प्रकार दोनों मिलकर दोनों लोकों का सुन्दरता से धारण कर रहे थे । यही 'अमृत' व मर्त्यों' की परस्पर प्रशस्ति है । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम यज्ञों से देवों को प्रीणित करें । देव वृष्टि द्वारा अन्नादि देकर हमें प्रीणित करनेवाले हों । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किमर्थं याचनीयो मनुष्यैश्च परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे अमृत जगदीश्वर ! भवत्कृपया यथोत्तमगुणकर्मग्रहणेनाथ नोऽस्माकमुभयेषां मर्त्यानां मिथः प्रशस्तयः सन्तु, तथा सर्वेषां भवन्त्विति प्रार्थयामः॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अथ) अनन्तरे (नः) अस्माकम् (उभयेषाम्) पण्डितापण्डितानाम् (अमृत) अविनाशिस्वरूपेश्वर (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (मिथः) अन्योन्यार्थे (सन्तु) भवन्तु (प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्मग्रहणप्रशंसाः॥९॥
भावार्थभाषाः - यावन्मनुष्या रागद्वेषौ विहाय परस्परोपकाराय विद्याशिक्षापुरुषार्थैः प्रशस्तानि कर्माणि न कुर्वन्ति नैव तावत्तेषु सुखानि सम्पत्तुं शक्नुवन्ति। अथेत्यनन्तरं सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वराज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वहितं नित्यं साधनीयमिति॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Lord eternal and immortal, by your kindness and grace, may the mutual praise and appreciation of both kinds of people—all subject to mortality, both average and exceptional of knowledge and achievement—be for our good.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Why should be God prayed to and how should men deal with one another is taught in the 9th Mantra.

अन्वय:

O immortal God, by Thy Grace, may the praises of mankind consisting of highly learned and ordinary persons be mutually the source of happiness to all, by the acceptance of good virtues and actions.

पदार्थान्वयभाषाः - (उभयेषाम् ) पण्डितापण्डितानाम् = Both of highly learned scholars and of ordinary persons. ( प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्म ग्रहणे प्रशंसाः = Praises on account of the acceptance of good virtues and actions.
भावार्थभाषाः - Men can not enjoy happiness unless they give up all attachment and jealousy and engage themselves in the performance of admirable acts with knowledge, education and industriousness. Then all men should obey the commands of God and bring about the welfare of all.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जोपर्यंत माणसे राग किंवा द्वेष सोडून परस्पर उपकारासाठी विद्या व शिक्षण तसेच पुरुषार्थाने उत्तम कर्म करत नाहीत तोपर्यंत ते सुख प्राप्त करू शकत नाहीत. त्यासाठी सर्वांनी परमेश्वराच्या आज्ञेत राहून सदैव सर्वांचे कल्याण करावे. ॥ ९ ॥