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प्रि॒यो नो॑ अस्तु वि॒श्पति॒र्होता॑ म॒न्द्रो वरे॑ण्यः। प्रि॒याः स्व॒ग्नयो॑ व॒यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

priyo no astu viśpatir hotā mandro vareṇyaḥ | priyāḥ svagnayo vayam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रि॒यः। नः॒। अ॒स्तु॒। वि॒श्पतिः॑। होता॑। म॒न्द्रः। वरे॑ण्यः। प्रि॒याः। सु॒ऽअ॒ग्नयः॑। व॒यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:26» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर हम लोगों को परस्पर किस प्रकार वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (स्वग्नयः) जिन्होंने अग्नि को सुखकारक किया है, वे हम लोग (प्रियाः) राजा को प्रिय हैं, जैसे (होता) यज्ञ का करने-कराने (मन्द्रः) स्तुति के योग्य धर्मात्मा (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य विद्वान् (विश्पतिः) प्रजा का स्वामी सभाध्यक्ष (नः) हम को प्रिय है, वैसे अन्य भी मनुष्य हों॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे हम लोग सब के साथ मित्रभाव से वर्त्तते और ये सब लोग हम लोगों के साथ मित्रभाव और प्रीति से सब लोग वर्त्तते हैं, वैसे आप लोग भी होवें॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हमें प्रभु ही प्रिय हों

पदार्थान्वयभाषाः - १. संसार में दिव्यता की ओर चलने के लिए आवश्यक है कि (नः) - हमें वे प्रभु ही (प्रियः अस्तु) - प्रिय हों । हमारी रुचि प्रभु - प्राप्ति की ही हो । हम उस प्रभु को ही (विश्पतिः) - सब प्रजाओं का रक्षक जानें । 'हमारे भी रक्षक वे प्रभु ही हैं' , ऐसा समझ हम प्रभु को प्राप्त करने की ही कामनावाले हों ।  २. वे प्रभु ही (होता) - हमें सब - कुछ देनेवाले हैं , वे ही हमारे जीवन - यज्ञ के चलानेवाले हैं । ३. (मन्द्रः) - वे प्रभु स्वयं आनन्दमय हैं , हमें आनन्द देनेवाले हैं , अतः वे ही (वरेण्यः) - वरने के योग्य है । इस संसार में प्रकृति का चुनाव करके हम अपने जीवनों को आनन्दमय नहीं बना सकते । प्रकृति में स्वयं आनन्द नहीं , वह हमें क्या आनन्द प्राप्त कराएगी! आनन्द तो आनन्दमय प्रभु को पाने में ही है ।  ४. (वयम्) - हम (स्वग्नयः) - उत्तम मातारूप दक्षिणाग्निवाले , उत्तम पितारूप गार्हपत्य अग्निवाले तथा उत्तम आचार्यरूप आहवनीय अग्निवाले बनकर (प्रियाः) - उस प्रभु के प्रिय हों । जब हम 'स्वग्नि' नहीं होते , हमें उत्तम माता , पिता और आचार्य प्राप्त नहीं होते तो हम प्रकृति की ओर झुकाववाले होकर विषयों में फंसकर अपनी शक्तियों को जीर्ण कर लेते हैं । निर्बल होकर हम प्रभु के प्रिय कैसे हो सकते हैं !
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम प्रभु को 'विश्पति , होता , मन्द्र व वरेण्य' जानें । उत्तम माता , पिता व आचार्य से सुशिक्षित होकर प्रभु के प्रिय बनें । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरस्माभिः परस्परं कथं वर्त्तिव्यमित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे मानवा ! यथा स्वग्नयो वयं राजप्रियाः स्मो यथा होता मन्द्रो वरेण्यो विश्पतिर्नः प्रियोऽस्ति तथाऽन्योऽपि प्रियोऽस्तु॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियः) प्रीतिविषयः (नः) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (विश्पतिः) विशां प्रजानां पालकः सभापती राजा। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज० (अष्टा०८.२.३६) इति षत्वं न भवति (होता) यज्ञसम्पादकः (मन्द्रः) स्तोतुमर्हो धार्मिकः। अत्र स्फायितञ्चिवञ्चि० (उणा०२.१३) इति रक्प्रत्ययः। (वरेण्यः) स्वीकर्तुं योग्यः (प्रियाः) राज्ञः प्रीतिविषयाः। (स्वग्नयः) शोभनः सुखकारकोऽग्निः सम्पादितो यैस्ते (वयम्) प्रजास्था मनुष्याः॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा वयं सर्वैः सह सौहार्देन वर्त्तामहेऽस्माभिः सह सर्वे वर्त्तेरंस्तथा यूयमपि वर्त्तध्वम्॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May the happy, charming and venerable ruler of the people, worthy of choice, be dear to us. May the venerable people who offer yajna in honour of Agni, eternal lord of cosmic yajna, and the leader of the people, be dear to us.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How should we deal with one another is taught in the seventh Mantra.

अन्वय:

O men, as we (subjects) who perform Yajnas well and who use fire that gives us happiness for various purposes are loved by the rulers and the protector of men (the President) who performs Yajnas, is praise-worthy righteous person elected by us is dear to us, so let all others have love towards one another.

पदार्थान्वयभाषाः - ( विश्पतिः) विशां प्रजानां पालकः सभापती राजा । = President King who is the protector of his subjects. (मन्द्रः) स्तोतुर्मों धार्मिक: अत्र स्फायि तंचि वंचि मन्दिचन्दि-शुभिययो रक् ( उणा० २.१३) इति रक् प्रत्ययः । = Praiseworthy righteous person. (स्वग्नयः ) शोभन: सुखकारकोऽग्निः सम्पादितो यैस्ते । = Who use properly fire that gives happiness. ( मदि-स्तुति मोद मद स्वप्नकान्तिगतिषु | = Here the first meaning of स्तुति or praise has been taken) Tr.
भावार्थभाषाः - As we deal with all in a friendly manner and others deal with us in the same way, so you should also do.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - (हे माणसांनो) जसे आम्ही सर्वांबरोबर मैत्रीभावाने वागतो व हे सर्व लोक आमच्याबरोबर मैत्रीभावाने वागतात तसे तुम्हीही वागा. ॥ ७ ॥