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यच्चि॒द्धि शश्व॑ता॒ तना॑ दे॒वंदे॑वं॒ यजा॑महे। त्वे इद्धू॑यते ह॒विः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yac cid dhi śaśvatā tanā devaṁ-devaṁ yajāmahe | tve id dhūyate haviḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। चि॒त्। हि। शश्व॑ता। तना॑। दे॒वम्ऽदे॑वम्। यजा॑महे। त्वे इति॑। इत्। हू॒य॒ते॒। ह॒विः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:26» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यज्ञ करने-करानेवाले आदि हम लोगों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (यत्) जिससे ये (शश्वता) अनादि (तना) विस्तारयुक्त कारण से (इत्) ही उत्पन्न हैं, इससे उन (देवंदेवम्) विद्वान् विद्वान् और सब पृथिवी आदि दिव्यगुणवाले पदार्थ पदार्थ को (चित्) भी (यजामहे) सङ्गत अर्थात् सिद्ध करते हैं (त्वे) उसमें (हि) ही (हविः) हवन करने योग्य वस्तु (हूयते) छोड़ते हैं, वैसे तुम भी किया करो॥६॥
भावार्थभाषाः - यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस संसार में जितने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष पदार्थ हैं, वे सब अनादि अति विस्तारवाले कारण से उत्पन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

एक - एक देव का यजन

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे प्रभो! (यत् चित् हि) - यह जो निश्चय से (शश्वता) - [शश प्लुतगतौ] आलस्यशून्य , क्रियाशीलतावाले (तना) - [तनु विस्तारे] शक्तियों के विस्तार से (देवं देवम्) - एक - एक दिव्यगुण को (यजामहे) - अपने साथ संगत करते हैं । यह सब (त्वे इत्) - आपमें ही (हविः हूयते) - हवि डाली जाती है , अर्थात् यह आपका ही यज्ञ और उपासन होता है ।  २. प्रभु का सच्चा उपासन यही है कि हम एक - एक उत्तम गुण को अपने में धारण करने का प्रयत्न करें । देवों को अपनाकर ही हम महादेव के समीप पहुँचते हैं ।  ३. दिव्यगुणों को धारण करने का उपाय यह है कि हम शक्तियों का विस्तार करें [तना] , वीर बनें । वीरता के साथ ही virtue - गुणों का वास है । शक्तियों के विस्तार के लिए क्रियाशीलता की आवश्यकता है । क्रिया ही शक्ति की जननी है । क्रिया के अभाव में प्रत्येक अंग निर्बल पड़ जाता है । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम क्रियाशीलता से सब अंगों की शक्ति का वर्धन करें । शक्ति - वृद्धि से हममें दिव्यगुणों का विकास होगा । यह दिव्यगुणों का अपने साथ - संग करना ही सच्चा प्रभु - पूजन होगा । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्होत्रादिभिरस्माभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे नरो ! यथा वयं शश्वता तना कारणेनेदेव सहितमुत्पन्नं यं देवंदेवं चिदपि यजामहे सङ्गच्छामहे त्वे हि खलु हविर्हूयते तथा यूयमपि जुहोत॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) वक्ष्यमाणम् (चित्) अपि (हि) खलु (शश्वता) अनादिना कारणेन (तना) विस्तृतेन (देवंदेवम्) विद्वांसं विद्वांसं पृथिव्यादिदिव्यगुणं पदार्थं पदार्थं वा। अत्र वचनव्यत्ययो वीप्सा च। (यजामहे) सङ्गच्छामहे (त्वे) तस्मिन् (इत्) एव (हूयते) प्रक्षिप्यते (हविः) होतव्यं द्रव्यम्॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वा अस्मिन् जगति यावन्तो दृश्यादृश्याः पदार्थाः सन्ति, ते सर्व अनादिना विस्तृतेन कारणेनोत्पद्यन्त इति बोध्यम्॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - By whichever eternal and extended holy powers of cosmic yajna were the brilliant and generous powers of nature created, to the same divine powers we offer yajna, to one and all. And to the same powers is the holy material of yajna offered for all time.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should be done by us (priests and others) is further taught in the sixth Mantra.

अन्वय:

O men, whatever object like the earth etc. or learned persons we come across in this world, is produced by the eternal and vast material cause-Matter. The fire in which oblation. is put is also the product of Matter. You should also put oblation in the fire born out of matter.

पदार्थान्वयभाषाः - ( शश्वता) अनादिना कारणेन = Eternal cause. (तना ) विस्तृतेन = Vast तनु-1 तु-विस्तारे ( देवं देवम् विद्वांसं ) पृथिव्यादि दिव्यगुणं पदार्थ वा = Learned person, or earth etc. full of divine properties. ( हवि:) होतव्यं द्रव्यम् = Oblation to be put in fire.
भावार्थभाषाः - Men should have association with learned persons and know that whatever visible or invisible things exist in this world, are the products of the vast eternal cause-Mattoir.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात जितके प्रत्यक्ष किंवा अप्रत्यक्ष पदार्थ आहेत, ते सर्व अनादी अतिविस्तार असणाऱ्या कारणांपासून (प्रकृती) उत्पन्न झालेले आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ६ ॥