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तदित्स॑मा॒नमा॑शाते॒ वेन॑न्ता॒ न प्र यु॑च्छतः। धृ॒तव्र॑ताय दा॒शुषे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad it samānam āśāte venantā na pra yucchataḥ | dhṛtavratāya dāśuṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। इत्। स॒मा॒नम्। आ॒शा॒ते॒ इति॑। वेन॑न्ता। न। प्र। यु॒च्छ॒तः॒। धृ॒तऽव्र॑ताय। दा॒शुषे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में सूर्य्य और वायु का प्रकाश किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - ये (प्रयुच्छतः) आनन्द करते हुए (वेनन्ता) बाजा बजानेवालों के (न) समान सूर्य और वायु (धृतव्रताय) जिसने सत्यभाषण आदि नियम वा क्रियामय यज्ञ धारण किया है, उस (दाशुषे) उत्तम दान आदि धर्म करनेवाले पुरुष के लिये (तत्) जो उसका होम में चढ़ाया हुआ पदार्थ वा विमान आदि रथों की रचना (इत्) उसी को (समानम्) बराबर (आशाते) व्याप्त होते हैं॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अति हर्ष करनेवाले बाजे बजाने में अति कुशल दो पुरुष बाजों को लेकर चलाकर बजाते हैं, वैसे ही सिद्ध किये विद्या के धारण करनेवाले मनुष्य से होम हुए पदार्थों को सूर्य और वायु चालन करके धारण करते हैं॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

समान , धृतव्रत , दाश्वान्

पदार्थान्वयभाषाः - १. एक घर में पति - पत्नी (इत्) - निश्चय से (तत्) - उस सर्वव्यापक (समानम्) - [सम् , आनयति] सम्यक् सोत्साहित व प्राणित करनेवाले प्रभु को ही (आशाते) - व्याप्त करते हैं अर्थात् सदा प्रत्येक कार्य को करते हुए प्रभु का स्मरण करते हैं उस प्रभु को भूलते नहीं ।  २. (वेनन्ता) - ये दोनों उस प्रभु की ही कामनावाले होते हैं (न प्रयुच्छतः) - ये प्रमाद कभी नहीं करते ।  ३. प्रमादरहित होकर ये उस प्रभु की प्राप्ति के लिए ही मार्ग पर निरन्तर बढ़ते हैं जो प्रभु (धृतव्रताय) - सब व्रतों का धारण करनेवाले हैं तथा (दाशुषे) - दाश्वान् - सब - कुछ देनेवाले हैं । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - वह 'वरुण' नामक प्रभु 'समान , धृतव्रत व दाश्वान्' हैं । हमें प्रमादरहित होकर उस प्रभु की प्राप्ति की प्रबल कामना से मार्ग पर बढ़ते चलना चाहिए । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वायुसूर्य्यावुपदिश्यते॥

अन्वय:

एतौ वेनन्ता प्रयुच्छतो न=इव मित्रावरुणौ धृतव्रताय दाशुषे तदिद्यानं समानमाशाते व्याप्नुतः॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) हुतं हविः। विमानादिरचनविधानं वा (इत्) एव (समानम्) तुल्यम् (आशाते) व्याप्नुतः (वेनन्ता) वादित्रवादकौ। अत्र ‘वेनृ’ धातोर्वादित्राद्यर्थो गृह्यते। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशश्च। (न) इव। निरुक्तकारनियमेन परः प्रयुज्यमानो नकार उपमार्थे भवतीति हेतोः सायणाचार्य्यस्य निषेधार्थव्याख्यानमशुद्धमेव। (प्र) प्रकृष्टार्थे (युच्छतः) हर्षं कुरुतः (धृतव्रताय) धृतं धारितं व्रतं सत्यभाषणादिकं क्रियामयं वा येन तस्मै (दाशुषे) दानकर्त्रे॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा हर्षवन्तौ वादित्रवादनकुशलौ वादित्राणि गृहीत्वा चालयित्वा शब्दयतस्तथैव साधितं धृतविद्येन मनुष्येण हुतं हविर्विमानादियानं च कलायन्त्रेषु यथावत् प्रयोजितौ वायुसूर्य्यौ धृत्वा चालयित्वा शब्दयतः॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Both Mitra and Varuna yearning with love for the man of the vows of Dharma and yajnic generosity forsake him not, they abide by him constantly and bless him with fulfilment.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The properties of the air and sun are taught in the Sixth Mantra.

अन्वय:

The two (Mitra and Varuna or the air and the sun) like the two players on musical instruments who give happiness are equally confreres of delight to the righteous observers of truth and other vows who offers oblations in the fire or construct vehicles like the aero planes etc.

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) हवि: हुतं हविः विमानादिरचनविधानं वा । = Oblation put in the fire or the manufacture of aero plane etc. (वेनन्ता ) वादिववादकौ । अत्र वेन् धातोर्वादिवार्थो गृह्यते । सुपां सुलुगित्याकारादेशश्र । (युच्छतः ) हर्ष कुरुतः ।= Give delight. (दाशुषे ) दानकर्त्रे । = To the Giver.
भावार्थभाषाः - There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As two happy players on the musical instruments produce pleasant sound by playing upon their instruments, in the same way, the air and the sun when utilized properly in machines produce nice sound by moving on all sides the oblation given by a learned person or the vehicles like the aero planes etc. manufactured by an expert scientist.
टिप्पणी: Rishi Dayananda has interpreted वेनन्ता as वादित्रवादको = players on musical instruments. It is derived from वेनू गति ज्ञान चिन्ता निशामन वादित ग्रहणेनु here the meaning of वादित्र has been taken प्रयुच्छत: has been explained by Rishi Dayananda as प्रकर्षण हर्षं कुरुतः = Give great pleasure प्रयुच्छत: is derived great from युच्छ-प्रमादे मदी-हर्पे Therefore it means-give pleasure or happiness. The Devata or subject of the Mantra is मित्रवरुणौ Mitra means sun is admitted on all hands. अहर्वैमित्रः ( ऐत० ४.१० ) When day is called मित्र the as maker or lord of the day is certainly called in Mantras like मित्रो जनान् यातर्थात ब्र बाणो मित्रो दाधारपृथिवीमुतद्याम् || ( ऋ० ३. ५९. १ ) In यः प्राणः स वरुणः (गोपथ उ० ४. ११) and other passages of the Brahmanas the word वरुण has been used for प्राण वायु = vital air. Hence Rishi Dayananda's interpretation is quite correct and based upon ancient authorities.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे अति हर्षित दोन कुशल वादक वाद्य वाजवितात, तसेच विद्यायुक्त माणसांकडून होमात घातलेल्या पदार्थांना सूर्य व वायू धारण करतात. ॥ ६ ॥